स्वार्थ-भाव को मिटाने का व्यवहारिक उपाय

July 1959

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आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करने की सबसे पहली और सर्व प्रधान शर्त यह है कि हम लोक व्यवहार में स्वार्थपरता को छोड़कर निःस्वार्थता को स्थान दें। निस्वार्थता एक ऐसा दैवी गुण है जो अन्य सद्वृत्तियों को स्वयं ही आकर्षित कर लेता है। पर इसके लिये आवश्यकता इस बात की है कि हम स्वार्थ और निःस्वार्थता के बीच के वास्तविक भेद को पहिचानें। क्योंकि स्वार्थ के अनेक रूप होते हैं और जब हम अपनी समझ में उसके किसी एक रूप को निर्मूल कर भी देते हैं, तो वह उतनी ही प्रबलता से दूसरे रूप में प्रकट हो जाता है। इस विधि से स्वार्थ से छुटकारा पा सकना अधिकाँश व्यक्तियों के लिये असंभव होता है। क्योंकि जब स्वार्थ का एक रूप समाप्त होने पर उसके स्थान पर दूसरा उत्पन्न हो जाय तो उसका निर्मूल हो सकना संभव नहीं जान पड़ता। जिस प्रकार रावण का एक सिर कटने पर दूसरा उत्पन्न हो जाता था और इसलिये श्री राम द्वारा उसका मरण नहीं हो पाता था, वही दशा हमारे हृदय स्थित स्वार्थ-भाव की भी होती है। इसलिये आवश्यकता है कि हम इस उपाय को छोड़ कर किसी अन्य ऐसे उपाय का अवलंबन करें जिससे स्वार्थ की जड़ पर कुठाराघात होता हो।

इस सम्बन्ध में जब हम विशेष मनोयोगपूर्वक विचार करते हैं तो यही जान पड़ता है कि हमारे मन की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है कि वह कभी खाली नहीं रह सकता, भले या बुरे कैसे भी विचार और भावनाएँ उसमें उत्पन्न होती ही रहती हैं। इसलिये स्वार्थपरता के विचारों से छुटकारा पाने का मूल मार्ग यही हो सकता है कि हम अपने मन को स्वार्थ के विपरीत निःस्वार्थता और परसेवा की वृत्ति से इतना अधिक भर दें कि हीन विचारों के लिये वहाँ स्थान ही न रह जाय। उदाहरणार्थ भक्ति -मार्ग का एक अमूल्य और सर्वोत्तम लाभ यही है कि मनुष्य का मन प्रति समय अपने आराध्य देव के चिन्तन में तन्मय और उन्हीं की भावना से परिपूर्ण रहता है और इस प्रकार सहज ही में स्वार्थ की निकृष्ट भावनाओं से छुटकारा पा सकता है। विकास की स्वाभाविक विधि यही है कि “जिस प्रकार सूर्य के लिए अपने हृदय द्वार को खोले हुये कुसुम स्वतः ही विकसित होता है उसी प्रकार तुम भी विकास पाओ। जब तक इसके लिये प्रयत्न करने की आवश्यकता रहती है, तब दुर्बलता भी प्रकट होती है। इसलिये जिसके लिये जो कोई भी स्वाभाविक उपाय अनुकूल जान पड़े उसी के द्वारा अपने हृदय को उत्तम बातों की ओर लगा देना चाहिये। इससे आपके अवगुणों को पुष्टि नहीं मिलती और बिना पोषण के वे नष्ट हो जाते हैं। अपने दोषों पर विजय प्राप्त करने का यही सर्वोत्तम उपाय है कि उनका ध्यान ही न किया जाय। क्योंकि उनके विषय में शाँतिपूर्वक सोचने से भी वे पुष्ट होते हैं और उनका बल बढ़ता है।

इसलिये साँसारिक व्यवहारों में संलग्न किसी व्यक्ति के लिये इस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग यही है कि अपने को परोपकार की भावनाओं और कार्यों में लीन रक्खे। इसलिये उसे अपने लिये विशेष सोचने का कोई समय या अवसर ही न रहेगा और तभी वह सुखी हो सकेगा। अपने से सम्बन्ध रखने वाली बातों के लिये शोक करना स्वार्थपरायणता है और इससे मनुष्य केवल दुखी ही होता है। तथापि अनेक लोग यही करते हैं; वे बैठ जाते हैं और कहने लगते हैं कि “हाय, कितने दुःख की और कितनी कठोर बात है कि अमुक व्यक्ति मेरी परवाह नहीं करता, मेरी खोज खबर नहीं लेता। मुझे प्रेम नहीं करता इत्यादि। वे इसी प्रकार की अनिश्चित कल्पनाएँ करके अपने को दुखी बनाते रहते हैं।

यह सब स्वार्थपरायणता ही है। आपके दुख और स्वार्थ दोनों की केवल एक ही चिकित्सा है कि तुरन्त ही जाकर किसी दूसरे के लिये काम में लग जाओ। आपके मन में एक ही समय में ये दोनों बातें नहीं समा सकतीं, अतः जिस क्षण आप अपने को भूल जाते हैं, उसी क्षण आप सुखी हो जाते हैं। जब आप यह कहने में समर्थ हो सकेंगे कि “मुझे मेरे साथियों से कुछ भी लेने की इच्छा नहीं है, मैं तो प्रेम करता हूँ, मुझे बदले की आवश्यकता नहीं”-तभी आप सुखी हो सकेंगे। साधारणतया लोग जिसे प्रेम कहते हैं, वह स्वार्थ के अनेक आवरणों के भीतर नाम मात्र का ही प्रेम होता है। प्रेम द्वारा सुख प्राप्त होने का अर्थ ही यह है कि वहाँ स्वार्थ विद्यमान है।

मैं जानती हूँ कि सहृदय और स्नेहशील व्यक्तियों के सीखने के लिये यह एक कठिन शिक्षा है, किन्तु इसे सीखना ही पड़ेगा। सीख लेने के पश्चात् यह सुख और शाँति लाती है। मैं यह बात अपने अनुभव से कह रही हूँ। बदला पाने की इच्छा किये बिना ही सब से प्रेम करना सीखो। ऐसा करने से अनेक लोग आपसे स्नेह करने लगेंगे। किन्तु जब तक आप उससे कुछ प्राप्त करने की चेष्टा करते रहेंगे, तब तक प्राकृतिक नियमों के अनुसार वह आपसे दूर हटता जायगा। यह सत्य है कि अनेक व्यक्तियों को मेरी ये बातें केवल जबानी जमा खर्च जैसी जान पड़ेंगी; क्योंकि व्यवहारिक जीवन इन पर आचरण करना आरम्भ में बड़ा कठिन होता है। किन्तु मैं फिर भी विश्वास दिलाना चाहती हूँ कि एक बार इसे सीख लेने पर वह शाँति प्राप्त होगी जिसे कोई भंग नहीं कर सकता। यहाँ तक कि आपके प्रेमपात्र की आपके प्रति अप्रसन्नता भी उसे भंग नहीं कर सकेगी। क्योंकि आप जानते हैं कि अगर आप उनसे पूर्ववत् प्रेम करते ही रहेंगे तो किसी दिन वह पुनः स्वयमेव प्रसन्न हो जायगा, इसलिये थोड़े दिन तक उसके असन्तुष्ट हो जाने की चिन्ता करना अनावश्यक है। यदि आप कष्ट पा रहे हैं तो भी इसके लिये व्याकुल न होने का निश्चय कर लीजिये और अपने आप से कहिये कि “मेरा निकृष्ट स्वभाव कितना कष्ट पा रहा है, पर इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं।” आखिर यह कष्ट पाने वाला हमारा निम्न व्यक्तित्व (घटिया दर्जे का स्वभाव) ही तो है। तब तक हम उसको कष्ट पाने की अथवा दूसरे से प्रेम-याचना करने की इतनी चिन्ता क्यों करें? अपने दुख के प्रति इस मनोवृत्ति को ग्रहण करके आप दुख पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

हम जिनके संपर्क में आते हैं उन सब पर हमें प्रेम रखना चाहिये। इसका अर्थ यह नहीं कि हम प्रत्येक व्यक्ति से एक बराबर प्रेम रखें। यह आशा एक साधारण मनुष्य से तो क्या बड़े से बड़े महापुरुष से भी नहीं रखी जा सकती। भगवान राम हनुमान जी पर जितना स्नेह रखते थे उतना सुग्रीव, अंगद, जामवन्त आदि पर नहीं। भगवान बुद्ध भी अपने शिष्य आनंद से औरों की अपेक्षा अधिक स्नेह रखते थे। इसलिये किसी मनुष्य शरीरधारी से यह आशा करना तो निरर्थक है कि सब के साथ समान प्रेम रखेगा, यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने माता-पिता,पत्नी या सन्तान के प्रति जैसी भावना रखते हैं क्रियात्मक रूप से हमें सब के प्रति वैसी ही सदिच्छा और प्रेमभावना रखनी चाहिये। जिस क्षण कोई मनुष्य प्रेम के बदले की माँग पेश करता है, उसी समय मानो वह अपना अधिकार प्रतिपादन करने लगता है और इससे स्वार्थ युक्त इच्छाओं की सृष्टि होती है। प्रेम के निःस्वार्थ हुये बिना मनुष्य ईर्ष्या, स्पर्धा एवं दूसरों अनेक इच्छाओं में उलझ जाता है। इसलिये स्वार्थ की भावना से मुक्त होने के लिये हमको सरल भाव से दूसरी के साथ उपकार करने का स्वभाव बताना चाहिये और उसी में आत्मानन्द लाभ करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करनी चाहिये।


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