ध्यान और प्रार्थना से आत्म विकास

July 1959

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संसार का अर्थ है गतिशील वस्तु। जगत् निरन्तर चलता रहता है-बदलता रहता है और इस परिवर्तन का भला-बुरा प्रभाव निरन्तर व्यक्ति के ऊपर पड़ा करता है। पर आश्चर्य का विषय है कि ये परिवर्तन किस में हो रहे हैं, इसका हम कभी स्मरण नहीं करते। इसका परिणाम यह होता है कि हम दिशा भूले हुये मुसाफिर की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं।

अगर इन सदैव पड़ने वाले संस्कारों को विवेक युक्त और सार्थक बनाना हो, तो मनुष्य को बार-बार यह विचार करना चाहिये कि ये संस्कार किस पर पड़ रहे हैं इसका बराबर ध्यान करते रहना चाहिये। सब प्राणी जीते है उसी प्रकार हम भी जीते हैं और जैसे सब मरेंगे वैसे ही हम भी मर जायेंगे—यह कथन एक दृष्टि से सत्य ही है, पर इसमें जीवन-रहस्य की कोई बात नहीं है। सब प्राणी जीते हैं यह ठीक है, पर उनका प्रत्यक्ष अनुभव तो हम को नहीं है। जिस प्रकार अन्य व्यक्ति मरते हैं वैसे ही हम भी मर जायेंगे—यह भी ठीक-ठीक कहा जा सकता। मृत्यु का वास्तविक अनुभव तो मरने वाले को ही होता है। साराँश यह है बिना सोचे समझे और नित्य मनन और स्मरण किये बिना हम अपने ऊपर पड़ने वाले संस्कारों का महत्व नहीं समझ सकते और उनका पड़ना या न पड़ना हमारे हित की दृष्टि से व्यर्थ ही रहता है।

इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये मुख्य उपाय ध्यान और प्रार्थना ही है। व्यक्ति के जीवन को संकलित करने का कार्य इन्हीं से होता है। प्रार्थना का तात्पर्य यह नहीं कि मनुष्य अपने धर्मात्मा या ईश्वर भक्त होने का अभिमान करे वरन् वह अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में सदा सतर्क और जागृत रहे यह प्रार्थना का उद्देश्य है। हम अपने भीतर की चैतन्य शक्ति को सहज ही में नहीं पहिचान सकते। उसका बारम्बार स्मरण करते रहना जीवन-विकास के लिये आवश्यक है और इसके ध्यान तथा प्रार्थना द्वारा मनुष्य को अपने अन्तर में प्रवेश करना चाहिये। इसका दूसरा उद्देश्य बाहरी वस्तुओं में से आत्म-विकास के लायक तत्व ग्रहण करना भी है। जिस प्रकार वृक्ष अपने बीज के गुण और शक्ति के अनुसार तत्वों को भूमि तथा वातावरण से ग्रहण करके अपना विकास करता है उसी प्रकार आत्मा भी संसार में से अपने उपयुक्त संस्कारों को ग्रहण करके विकसित हो सकती है। ध्यान और प्रार्थना इस कार्य को सरल बनाते हैं। संसार यात्रा में इसके द्वारा बीच-बीच में रुककर आत्मा की प्रगति का निरीक्षण किया जा सकता है।

इस आत्म-तत्व को निर्बल न समझना चाहिये। वैसे तो सूक्ष्म वस्तु स्थूल वस्तु के मुकाबले में अल्प शक्ति वाली जान पड़ती है, पर वास्तव में उसमें बहुत अधिक शक्ति होती है। हमारी वाणी हमारे भीतरी भावों का आधा-पर्धा रूप होती है, पर जब किसी कार्य का अवसर आता है तो हम अपने आन्तरिक भावों के अनुसार ही काम करते हैं। दूसरी तरफ सब से बलवान हमारे हाथ पैर ही होते हैं पर जब वेदना-जनक घटना होती है तो हमारे हाथ-पैर बिल्कुल शिथिल पड़ जाते हैं। इन उदाहरणों से यह मानना ही पड़ता है कि मनुष्य के आत्म-तत्व में कोई ऐसी गूढ़ शक्ति मौजूद है जिसे हम ढूंढ़ सकते हैं, ध्यान के द्वारा मनुष्य को इस बात का अनुभव होता है कि आत्म-तत्व कोई सबसे अलग किसी से सम्बन्ध न रखने वाला पदार्थ नहीं है। यह समस्त विश्व एक चेतना का महासमुद्र है, हमारी व्यक्तिगत चेतना भी उसी का एक अंश है। हमारी चेतना का विश्व चेतना के साथ क्या संबंध है इसका ज्ञान होने से हमारी सामर्थ्य, स्थिरता और ज्ञान की वृद्धि होती है।

परम तत्व की तरफ से अभिमुख या उन्मुख होते ही उसकी शक्ति का व्यक्ति में संचार होता है। कमल जैसे ही उन्मुख होता है वैसे ही सूर्य की किरणों उसके दलों को प्रफुल्लित कर देती हैं। इसी प्रकार ध्यान तथा प्रार्थना द्वारा ईश्वर का स्मरण, प्रार्थना, ध्यान, उपासना करने से उसकी समस्त शक्ति का झुकाव हमारी तरफ हो जाता है। पर्वत का दर्शन जिस प्रकार स्थिरता का भाव उत्पन्न करता है, समुद्र का दर्शन विशालता की भावना उत्पन्न करता है, उसी प्रकार ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर की शक्ति का प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है, चाहे उसका परिमाण कितना भी कम क्यों न हो।

आत्मा का परमात्मा के साथ अल्प अंश में संपर्क होना शुभ है, पर इससे मनुष्य कृतकृत्य नहीं हो सकता। इसके लिये ध्यान और प्रार्थना का प्रयत्न निरन्तर जारी रहना चाहिये। तभी व्यक्ति का पूर्ण विकास(मोक्ष) होना संभव है। पर इस प्रयत्न के होते हुये भी मनुष्य का सम्बन्ध संसार से टूट नहीं जाता। पर अब उसका दृष्टिकोण बदल जाता है। उसके साँसारिक सम्बन्ध अब भी कायम रहते है, पर अब उनके विषय में उसे उत्तम दृष्टि प्राप्त हो जाती है। ईश्वर-प्राप्ति का लक्ष्य मनुष्य की कर्तव्यता अथवा कर्तव्यपरायणता में कमी नहीं करता है, वरन् इसके कारण अनासक्तता और कर्तव्य कुशलता की वृद्धि होती है। जिस प्रकार आकाश, समुद्र, पर्वत वर्षा, बसन्त, वृक्ष, नदी, सरोवर आदि साँसारिक पदार्थों और घटनाओं को आत्म-विकास का पोषक बनाया जाता है, उसी प्रकार साँसारिक सम्बन्धों को भी मनुष्य आत्म-दर्शन का साधन बना सकता है। जो सबके लिये हितकर कार्य है उसका त्याग मुमुक्ष को नहीं करना है, वरन् उस कार्य के द्वारा भी उसे मोझ-मार्ग में अग्रसर होना है। इस कार्य के लिये उसे चेतना और शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता होगी जो ध्यान और प्रार्थना द्वारा प्राप्त हो सकेगी।

हमारी सनातन प्रार्थना का भाव यही है कि मैं सत्य के दर्शन करूं, मेरी बुद्धि शुद्ध बने और सत्य को प्राप्त करे और सब मनुष्यों के लिये कल्याणकारक पदार्थों में प्रवृत्त रहे। सत्य दर्शन के बिना न तो व्यक्ति का कल्याण हो सकता है और न समष्टि का ।


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