गृहस्थ में रहकर ही मुक्ति प्राप्त कीजिये

July 1959

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(श्री.वी. एम. शाह)

अगर दान, शील, तप और सद्भावना का पालन करते हम मुक्ति के समीप नहीं पहुँचते तो समझ लेना चाहिये हमने इन कार्यों का वास्तविक रूप में पालन नहीं किया।

प्रश्न होता है कि हम किसकी मुक्ति चाहते हैं? तुम स्वयं कहते हो कि “मुझे मुक्ति मिलनी चाहिये।” इससे प्रकट होता है कि तुम अपने “मैं या अहम्” की मुक्ति चाहते हो। यह “मैं” ही अपने को सुखी या दुखी मानता है, अपने को बद्ध अथवा मुक्त मानता है। इसलिये मुक्ति की आवश्यकता इसी “मैं” को है।

संसार में सर्वत्र हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये कानून का बंधन स्वीकार करना पड़ता है। पर यदि कोई व्यक्ति राजा बन जाय तो उसे कानून का बन्धन नहीं रहता। इसी प्रकार तुम अपने “मैं” अथवा व्यक्तित्व को राजा बनाओ—समष्टि रूप बनाओ तो तुम सुख-दुख के कानून रूपी बन्धन से मुक्त हो।

घरबार के जंजाल में फँसे व्यक्ति कहते हैं कि मुक्ति इस लोक में नहीं मिलती, परलोक में मिलती है। यह बात झूठी भी नहीं है। बाह्य इन्द्रियों द्वारा दिखाई पड़ने वाली दुनिया—इहलोक है और अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से जिसका अनुभव होता है वह सब परलोक है। इस लोक में तो मजदूरी और मेहनत का ही भार उठाना पड़ता है। शाँति, मुक्ति , आनन्द ये अनुभव तो अंतःकरण अथवा परलोक के ही हैं।

पर परलोक कोई भविष्य काल की वस्तु नहीं है, इस समय भी वह मौजूद है। तुम आज भी परलोक और इहलोक दोनों में रहते हो और इससे अब भी मुक्ति का अनुभव कर सकते हो। मुक्त पुरुष के व्यवहार और विचार, संस्कारबद्ध व्यक्ति के व्यवहारों और विचारों से भिन्न प्रकार के होते हैं। देहाती लोग भी खाते हैं, नगर निवासी भी खाते हैं और राजा भी खाता है, पर तीनों के खाने के तरीके और पदार्थों में अन्तर होता है। भिखारी को हर्ष-शोक होता है, राजा को भी हर्ष-शोक होता है, साधु को भी हर्ष-शोक होता है—पर तीनों के हर्ष-शोक भिन्न प्रकार के होते हैं।

भविष्य में मुक्ति प्राप्त होने के बन्धनों पर ध्यान मत दो। तुम इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करने का उद्देश्य रखो, कि जिससे मुक्त होकर जीवन रूपी घोड़े पर सवार होने का आनंद प्राप्त कर सको। खच्चर पर लदे हुये मूर्ख की तरह समस्त जीवन व्यतीत कर देने में क्या लाभ है?

मुक्त पुरुष और मुक्त स्त्रियाँ ही हँसते-खेलते अपने राष्ट्र और समस्त मनुष्य जाति को मुक्त करेंगी।

यदि तुम मुक्ति के लिये योजनापूर्वक और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करो और फिर भी इस जीवन में मुक्ति न मिले, तो कम से कम वह पहले की अपेक्षा अधिक समीप तो आ ही जायगी। तब तुम्हारी आगामी पीढ़ी उसके और भी समीप आ जायेगी। इसके परिणामस्वरूप उससे आगामी पीढ़ी तो मुक्ति पर सवार हो ही जाएगी। उसमें आवश्यकता इसी बात की है कि तुम अपनी आगामी सन्तान में मुक्ति के लिये बेचैनी का भाव पैदा कर दो। अगर तुम ऐसा कर सको तो समझ लो कि तुमने मुक्ति प्राप्त कर ही ली और कोई तुम्हें उससे वंचित नहीं कर सकता।

चूँकि मुक्ति और बंधन मन पर निर्भर करता है इसलिए राग द्वेष व आसक्ति रहित फल की आशा न रखकर गृहस्थ कार्यों को कर्तव्य पूर्वक पालन करते हुए कर्म बन्धन से छूट सकते हो।


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