ईश्वर प्राप्ति के दस वेदोक्त साधन

July 1959

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(श्री पं. सुरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी काव्यतीर्थ)

धर्म का सबसे बड़ा लक्षण ईश्वर-प्राप्ति है। क्योंकि जब तक मनुष्य की रुचि ईश्वर के प्रति आकर्षित नहीं होती तब तक वह सच्चे सुख और शांति से वंचित ही रहता है। इस सम्बन्ध में वैदिक साहित्य में इस प्रकार के साधनों का उल्लेख मिलता है।

(1) उद्गीथ विद्या—मुक्ति का सर्वप्रधान साधन ज्ञान है। इसके बिना मनुष्य को धर्म का स्वरूप और विधि ज्ञात नहीं होती और इसलिये वह परमात्मा को भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसका सबसे सीधा उपाय ॐ अथवा प्रणव द्वारा परमात्मा का ध्यान करना है। यही परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम है, इसी से प्रणव को उद्गीथ कहते हैं। प्राचीन ऋषियों ने इस अक्षर को अविनाशी बतलाया है। पृथ्वी सब प्राणियों को धारण करती है, वही प्राणियों का आश्रम है। उसका सार है जल। जल ने ही औषधियों में सार-तत्व उत्पन्न किया है। उसी से मनुष्य परिपुष्ट होते हैं। मनुष्य में सबसे महत्व की वस्तु है वाक् (बोली)। उसमें ऋक् और साम यथार्थ तत्व हैं। उनका सार ॐ है। शक्ति अथवा अर्थ के ध्यान से इसके बढ़कर ईश्वर का दूसरा नाम नहीं है। छान्दोग्य में कहा गया है “सरानाँ रसतमः।” इसके उच्चारण के समय वाक् और प्राण में एकता उत्पन्न होती होते हैं। इसके जप करने वालों के सब मनोरथ पूर्ण होते हैं।

(2) संवर्ग विद्या— इसका अर्थ होता है ग्रहण कर लेना अथवा ग्रास कर लेना। अग्नि बुझाने पर क्या हो जाती है? सूर्य चन्द्रमा अस्त होने पर कहाँ रहते हैं? इसका उत्तर यही है कि ये वायु से ग्रस्त हो जाते हैं, अर्थात् इन पर वायु का आवरण पड़ जाता है। जल भी वायु में लीन हो जाता है। सुषुप्ति के समय वाणी, आँख और कान तथा मन, प्राण में ही व्याप्त रहते हैं। उस समय केवल श्वाँस(प्राण वायु) चलता रहता है। इस क्रिया को प्राण में इन्द्रियों का संवर्ग कहा जाता है। पर प्राण और वायु का संवर्ग कहाँ होता है? इनका संवर्ग परमात्मा है। इस बात का आन्तरिक ज्ञान जिसे हो जाता है वह परमात्मा को प्राप्त करने में समर्थ बनता है। वह परमात्मा कैसा है—”जो सबको खाता है, जिसे कोई नहीं खा सकता, जिसमें सब लीन हो जाते हैं और जो किसी में लीन नहीं होता, वही महामहिमशाली ब्रह्म है।” इसी बात को छान्दोग्य में इस प्रकार कहा गया है—आत्मा देवानाँ हिरण्यदंष्ट्रों वभसोऽन- सूरिर्महान्तमस्य महिमानमाहुरनद्यमानः।”

(3) मधुविद्या - माधुर्य प्रत्येक प्राणी को पसन्द होता है। “मधुविद्या” में मधु शब्द मीठेपन का ही द्योतक है। मनुष्य जाति का सर्वश्रेष्ठ खाद्य मीठा दूध है। परमात्मा उससे भी कहीं अधिक माधुर्यशाली है। उसी माधुर्य की प्राप्ति सूर्य के द्वारा हो सकती है, क्योंकि सूर्य खट्टे पदार्थों को पकाकर देता है। इसी आधार पर उपनिषद् में सूर्य को देवताओं का मधु कहा गया है। पृथ्वी पर मधु का छत्ता किसी लकड़ी आदि में लगता है। सबसे ऊपर का द्युलोक इसके लिये आश्रय है। आतरिक्ष छत्ता है और सूर्य रश्मियाँ मधुमक्खियों की पंक्ति । चारों वेदों के अनुसार किए हुए कर्म पुष्प-पराग हैं। उनसे अमृत स्वरूप मोक्ष, जो कि मधु है, उत्पन्न होता है। कर्म प्रवर्तक सूर्य ही मुख्य रूप से मधु है और उसकी उपासना करने से परम मधु की प्राप्ति सहज हो जाती है—”असौ वा आदित्यो देव मधु वेदा ह्यमृतास्तेषामेतान्य मृतानि।”

(4) पंचाग्नि विद्या - शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग उत्तरायण सूर्य में शरीर त्याग करते है वे मुक्त हो जाते हैं और दक्षिणायन में करते है वे संसार में फिर जन्म ग्रहण करते हैं। उत्तरायण का अर्थ ज्ञान-मार्ग है और दक्षिणायन का कर्म मार्ग। ज्ञान-मार्ग की अभिलाषा रखने वाले को पंचाग्नि विद्या का पूर्णापरिचय होना चाहिये। इसका रहस्य उपनिषद् में इस प्रकार बतलाया गया है—

“यह लोक अग्नि है, इसको प्रज्वलित करने के लिये सूर्य लकड़ी है। उसकी किरणें धूम हैं, दिन ज्वाला है। इस अग्नि में देवता लोग श्रद्धा रूपी ‘हवि’ का हवन करते है। इस हवन से सोम की उत्पत्ति होती है। इसमें श्रद्धा जल स्वरूप है। अतएव देवता मेघ (जल)रूप अग्नि में सोम (चन्द्रमा)को, लोक रूप अग्नि में वृष्टि को, और पुरुष रूप अग्नि में वृष्टि से उत्पन्न अन्न को जलाते हैं। इससे वीर्य उत्पन्न होता है जिसका हवन स्त्री रूप में अग्नि में होता है। इस प्रकार मनुष्यों की उत्पत्ति में मेघ, लोक, पुरुष और स्त्री कारण हैं। पुरुष और स्त्री को चिता की अग्नि जला देती है। यही पाँच अग्नियाँ हैं। इन पाँचों में परमात्मा व्याप्त है। इनके द्वारा जो परमात्मा को जानता है वह नित्य मुक्त हो जाता है। कहा गया है कि इस पंचाग्नि विद्या का ज्ञाता पुनरावृत्ति विहीन मुक्ति को प्राप्त होता है—”पुरुषो मानस एत्य ब्रह्म लोकान गमयति ते तेषुः ब्रह्मलाकेषु पराःपरावतो वसन्ति तेषाँ न पुनरावृत्तिः॥ (वृहदारण्यक)

(5) उपकोसल की आत्मविद्या—उपकोसल सत्यकाम जाबालि के पास बहुत समय तक शिष्य भाव से रहा परन्तु महर्षि ने उसे ब्रह्म विद्या का उपदेश नहीं किया। गुरु के बाहर चले जाने पर उपकोसल ने मानसिक व्यथा से पीड़ित हो भोजन और भाषण का परित्याग कर दिया। इस पर सत्यकाम की अग्नियों ने उसे उपदेश दिया “प्राणो ब्रह्म, कं ब्रह्म,खं ब्रह्म।” इस पर यह सन्देह होता है कि प्राणवायु जो अचेतन है, क अर्थात् सुख जो परिमित है और ख अर्थात् आकाश जो शून्य है ये भला ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? पर इस वचन का अभिप्राय कुछ गूढ़ है। इसका आशय यह है कि जिस परमात्मा के बल-प्राण अपना कार्य करते हैं, यह आकाश के समान व्यापक और असीम आनन्द स्वरूप है। जो ईश्वर को इस रूप में समझता है उसकी उपासना सफल होती है।

(6) शाण्डिल्य विद्या—महर्षि शाण्डिल्य ने कहा है कि परमात्मा का मुख्य गुण करुणा है-”मुख्य हि तस्य कारुण्यम्” (शाण्डिल्य सूत्र)। उनका मत है कि समस्त ब्रह्माण्ड ब्रह्म है, यही भावना उपासना में रखनी चाहिये। इसका कारण यह है कि परमात्मा ‘तज्जलान्’ है। अर्थात् यह संसार उसी से उत्पन्न होता है उसी में लय होता है और उसी से प्रतिपालित होता है। पुरुष की जैसी भावना होगी वैसी ही उसकी गति होगी। यदि हम परमात्मा की भक्ति करके उसी का आश्रय लें तो अवश्य उसे प्राप्त कर सकते हैं—”सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत“

(7) दहर विद्या— जैसे इस लोक में पुरुषार्थ से पैदा की हुई सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, वैसे ही पुण्यबल से उपार्जित पारलौकिक सुख भी नष्ट हो जाता है। जिसे परमात्मा का ज्ञान हो गया है। उसके सुख नित्य होते हैं। वे कभी नष्ट नहीं होते। परमात्मा का ज्ञान उपासना के बिना नहीं होता। उपासना का अर्थ है समीप रहना, पर जिसका कोई पता ठिकाना ही नहीं उसके समीप कोई कैसे रह सकता है? शास्त्र कहते हैं कि “मनुष्य शरीर ही ब्रह्मपुर है, उसका दहर (हृदय कमल) भगवान का निवास स्थान है, उसमें भगवान को खोजो। उसमें रहते हुये भी भगवान शरीर के धर्मों का स्पर्श नहीं करते। जरा, मृत्यु, क्षुधा, पिपासा, उनका स्पर्श नहीं कर सकती। बाहर की अभिलाषाएँ वहाँ पूर्ण रहती हैं। कोई दुख शोक नहीं सताता—”यदिदमस्मि न ब्रह्मपुरे दहरे पुण्रीकं वेश्मदहरोऽस्मिन्नन्तरा काश-स्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्।”

(8) भूमि विद्या—जगत के प्राणी जो कुछ करते हैं, उसका उद्देश्य सुख है। सुख की जानकारी के बिना सुख कहीं हो सकता। सब से महान वस्तु ईश्वर है, वही सुख है। उसका स्वरूप आनन्दमय है—”आनन्दो ब्रह्मणो रूपम्।” यहाँ एक बात विचारने योग्य है कि हम जगत में बहुत कुछ खाते-पीते, देखते-सुनते हैं, परन्तु तृप्ति नहीं होती, इसका कारण क्या है? कारण यही है कि जगत की वस्तुएँ परिमित हैं, अल्प हैं। परमात्मा सब से बड़ा है—असीम है, उसके प्राप्त हो जाने पर दूसरे किसी पदार्थ की इच्छा नहीं रहती, पूर्णता आ जाती है। सब वस्तुएँ विनाशशील हैं, केवल परमात्मा ही अमृत स्वरूप भूमा (अनन्त) है—”यो वै भूमा तत्सुखँ नाल्ये सुख मस्ति भूभैव सुखम्।” (छान्दोग्य)

(9) दीर्घायुष्य विद्या—जो मनुष्य चौबीस, चवालीस अथवा अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करके यज्ञादि करते है, वे निरोग रहते हुये सौ वर्ष पर्यन्त जीवित रहते हैं। जो ब्रह्मज्ञानी उपासक हैं उनकी मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन रहती है। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि महिदास नाम के एक ज्ञानी सोलह सौ वर्ष तक जीवित रहे “एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः स ह षोड़श वर्ष शतम जीवत्” इस प्रकार ज्ञानी जन बहुत काल तक जीवित रहकर परमात्मा की उपासना करने में समर्थ होते हैं।

(10) मन्त्र विद्या—सिद्ध अथवा शरणागति प्राप्त हो जाने पर धन की आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु साधनावस्था में उसकी आवश्यकता होती है। इसके लिये मन्थाख्य कर्म किया जाता है, जिससे धन प्राप्त होता है। उस कर्म में ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि “हे अग्नि स्वरूप देव भगवन्, सब देवता विपरीत होकर मेरी सफलताओं को नष्ट कर देते हैं। मैं उनकी तृप्ति के लिये आहुति देता हूँ”। किसी अच्छे मुहूर्त में केवल दुग्ध पर रहकर कुशकण्डिका करे तथा औषधियों और फलों से हवन करे। वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार “ज्येष्ठाय स्वाहा, श्रेष्ठाय स्वाहा” इत्यादि मंत्रों से आहुति देने से मनोरथ पूर्ण होते हैं।

इस प्रकार ये दस प्रकार के साधन-मार्ग साधक को परमात्मा की प्राप्ति में समर्थ बनाते हैं।


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