(श्री विद्याप्रसाद मिश्रा)
सुख की प्राप्ति और दुःख से निवृत्ति सभी जीवनधारियों का ध्येय है। जिसके लिये वे सारे जीवन भर नाना प्रकार की चेष्टायें करते हैं। पशु−पक्षियों में साधारणतया विचार शक्ति का विकास नहीं होता अतः वे केवल अपने शरीरों की तात्कालिक दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति के लिये ही सतत् उद्यम करते रहते हैं। उस उद्यम से उन्हें किस मात्रा में कितनी सफलता प्राप्त होगी या नहीं या उसका विपरीत परिणाम तो नहीं होगा इत्यादि बातों पर विचार करने की उनमें योग्यता नहीं होती।
मनुष्य में विचार शक्ति का विकास होता है अतः वह अन्य प्राणियों की तरह बिना सोचे समझे अन्धाधुँध कार्य नहीं करता किन्तु विवेक और दूरदर्शिता से काम लेता है। वह केवल अपने शरीर तक ही सीमित न रह मानसिक दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति के लिये भी प्रयत्न करता है तथा साथ ही साथ अपने इस लोक के भविष्य एवं परलोक पर दृष्टि रखता हुआ सुख-दुःख के परिणाम और मात्रा का भी विचार करता हुआ साथ-साथ अपने अन्य कुटुम्बियों के सुखों के लिये भी प्रयत्नशील रहता है।
मनुष्यों में विचार शक्ति के विकास की न्यूनाधिकता के अनेक दर्जे होते हैं और अपनी-अपनी योग्यतानुसार सुख प्राप्ति और दुःख निवृत्त के लिये सब कोई निरन्तर उद्योग करते रहते हैं। कई लोग तो अपने ही शरीर और मन की, कुछ अपने कुटुम्बियों एवं सम्बन्धियों आदि की तथा कुछ भावुक लोग इहलौकिक सुखों को तुच्छ समझ पारलौकिक सुखों के लिये इस देह के सुखों की अवहेलना कर अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक कष्ट सहन करते हैं अर्थात् मरने के पश्चात् दूसरे जन्म में भौतिक सुखों की प्राप्ति अथवा सूक्ष्म शरीर द्वारा स्वर्गादि सुख भोगने या मुक्ति प्राप्ति की कामना से अनेक प्रकार से प्रयत्न करते रहते हैं।
जिन मनुष्यों की पुष्टि विशेष विकासित होती है, उन्हें ये उपरोक्त सुख-प्राप्ति और दुःख निवृत्ति के प्रयत्न निरर्थक प्रतीत होते हैं क्योंकि वास्तव में न तो उनसे दुःखों की निवृत्ति ही होती है और न अक्षय सुख की प्राप्ति ही। वे इसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि शारीरिक एवं मानसिक सुख-दुःखादि के जोड़े सब सापेक्ष एवं अन्योन्य-आश्रित होते हैं। अतः जितने सुख के साधन दिये जाते हैं उतना ही दुःख साथ ही साथ उत्पन्न हो जाता है। प्रथम तो उन सुखों की प्राप्ति के प्रयत्न में ही बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं फिर सुख प्राप्त होने पर उसके नाश होने का भय बना रहता है और साथ ही दूसरों के अधिक सुखों को देख-देखकर ईर्ष्या होने लगती है। सुख भोग के पीछे उसके परिणाम में दुःख अवश्य होता है इसलिये वे सोचते हैं कि जिन स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति के साथ निरन्तर दुःख लगा ही रहता है, वे दुःख मिश्रित सुख वास्तविक सुख कैसे हो सकते हैं। मरने के बाद भी जिस शक्ति की प्राप्ति के लिये जीवनकाल में सारी आयु नाना प्रकार के नियमों एवं बन्धनों में बितानी पड़े, वह सच्ची मुक्ति कैसे हो सकती है।
सच्चा सुख और मुक्ति तो वह है जिसके लिये मरने की प्रतिज्ञा न करनी पड़े किन्तु जिसका अनुभव इसी शरीर में तुरन्त हो जाय, अर्थात् जीवन काल में ही सब प्रकार के दुःखों और बन्धनों की निवृत्ति हो जावे। इसलिये वे लोग सुख प्राप्ति और दुःख निवृत्ति में उपरोक्त प्रयत्न निष्फल समझ कर सच्चे एवं अक्षय सुख की प्राप्ति किस तरह हो सकती है, इसका अचूक उपाय खोज निकालने के लिये सुख दुःखादि के यथार्थ स्वरूप, उनके मूल कारण तथा उनके नाना प्रकार के सम्बन्ध एवं प्रभाव आदि के विषय में अन्वेषण करते हैं।
उनके उपरोक्त अन्वेषण के प्रसंग में जब उन्हें सारा संसार ही अपनी तरह सुख दुःख से ग्रसित प्रतीत होता है, तब उन्हें यह जानने की सहज उत्कंठा होती है कि यह जगत् क्या है, मैं क्या हूँ, जगत् से मेरा क्या सम्बन्ध है? इसका संचालनकर्त्ता कौन है और वह किस प्रकार करता है इत्यादि बातों की सूक्ष्म जिज्ञासा उत्पन्न होती है जिसके तात्विक विवेचन के बिना उसका यथार्थ निर्णय नहीं हो सकता। बुद्धिमान लोग अपने तथा इस जगत् के अस्तित्व और उससे सम्बन्धित विषयों पर जब गूढ़ तात्विक विचार करते हैं तब उसे दर्शन शास्त्र कहते हैं।
प्राचीन काल में हमारे आत्म दृष्टा महर्षियों ने उपरोक्त दार्शनिक विषयों में अनेकानेक अनुसन्धान किये थे और बुद्धि के तारतम्य के अनुसार उन लोगों ने विविध प्रकार के दार्शनिक सिद्धाँत निश्चित किये जिन्हें “दर्शन शास्त्र” कहते हैं। इस विषय पर उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए वे लोग इस निश्चय पर पहुँचे कि “नाना भावापन्न प्रतीत होने वाला यह संसार वस्तुतः एक ही सत्य सनातन आत्मा के अनेक रूपों की बनावट अर्थात् एक ही सच्चिदानन्द आत्मा अपनी इच्छा शक्ति से अनेक भावों में व्यक्त होकर जगत् रूप होता है” (कठोपनिषद् बल्ली 5 मंत्र 9-10)। परन्तु उसके नाना रूपों का बनाव निरन्तर परिवर्तनशील तथा उत्पत्ति नाशवान होने के कारण असत याने कल्पित है और उन अनेकानेक बनाव के अन्दर जो एकत्व भाव है वही सच्चिदानन्द सनातन आत्म-तत्व है और वह आत्म-तत्व सर्वव्यापक सदा एक सार एवं स्थायी रहने के कारण “सत्” है। इस भिन्नता के कल्पित बनाव को सच्चा मानने की भूल में पड़कर दूसरों से प्रथक अपने व्यक्तित्व अहंकार युक्त तथा व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से राग-द्वेष पूर्वक जगत् के व्यवहार करने से नाना प्रकार के दुःख उत्पन्न होते हैं।
इस अनेकता के बनाव को एक ही सच्चिदानन्द सर्व व्यापक सनातन आत्मा की इच्छा शक्ति (प्रकृति) का प्रतिक्षण परिवर्तनशील खेल समझ कर व्यक्तित्व के अहंकार एवं स्वार्थ को समष्टि के अहंकार एवं स्वार्थ के साथ जोड़ कर व्यवहार करने से दुःख का जरा भी अस्तित्व प्रतीत नहीं होता किन्तु संसार आनन्दमय मान होता है और वह आनन्द सापेक्ष दुःखी परिणाम वाला तथा उत्पत्ति विनाशवान नहीं होता क्योंकि वह आत्म-ज्ञान की समत्व बुद्धि से होता है। आत्मा स्वयं आनन्द स्वरूप है इसलिये आत्म-ज्ञान युक्त व्यवहार करने वाला भी सदा-आनन्द स्वरूप होता है। इस सिद्धान्त को ब्रह्मविद्या कहते हैं।