मानसिक बल और उसका विकास

July 1959

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री भगवान सहाय वाशिष्ठ)

पूर्ण परिश्रम से कार्य करने वाले व्यक्ति को देखकर साधारण मनुष्य यह सोचते हैं कि इसका शरीर कितना फुर्तीला है एवं कार्य करने में इसके अमुक अंग किस तरह लगे हुए हैं। किन्तु यह सच्चा निर्णय नहीं हुआ। मनुष्य की वास्तविक शक्ति वह नहीं है जो आँखों से दिखाई दे। मनुष्य की मुख्य शक्ति है बुद्धिबल एवं मानसिक बल जो फिर स्थूल रूप में चक्षुओं द्वारा देखी जाती है।

किसी कार्य को करने में एक हाथ लगा रहता है किन्तु हाथ की स्वयं की कोई शक्ति नहीं है। वह हाथ बुद्धि एवं मानसिक बल से सम्बन्धित होता है और कार्य में व्यस्त रहता है। उक्त दोनों शक्तियों के अभाव में शरीर एवं अन्य वस्तुओं को अणुमात्र भी नहीं हिलाया जा सकता। इन दोनों शक्तियों के सामंजस्य से ही पूर्ण पुरुष का निर्माण होता है। बुद्धि किसी निश्चित लक्ष्य की ओर जाने का सही निर्णय करती है फिर मानसिक बल स्थूल अंगों से एकता प्राप्त कर उसे पूर्ण करता है।

इसके तत्व को समझना अत्यावश्यक है। तब ही मानसिक शक्ति की महत्ता को समझकर इसके विकास का मार्ग अपनाया जा सकता है। किसी भी कार्य के पूर्ण होने में साधारणतया दो स्थितियाँ होती हैं। प्रथम उसके सम्बन्ध में विचार करके उसका निर्णय करना कि हमें अमुक कार्य करना है। यह कार्य बुद्धि का है। बुद्धि अपनी विचार शक्ति से किसी कार्य का निर्णय करती है। फिर उस निर्णय का या विचार को क्रियात्मक रूप देने के लिए मानसिक बल की आवश्यकता पड़ती है।

मानसिक बल उस कार्य को सम्पन्न करता है और इस प्रकार सफलता या सिद्धि उपलब्ध होती है। बुद्धिमान मनुष्य वही है जो पहले अपनी बुद्धि से किसी कार्य का निर्णय करे और फिर उसे पूर्ण करने में मानसिक बल का उपयोग करे। केवल विचारों में बहते रहने वाले व्यक्ति जीवन में सफल नहीं होते। इसी तरह बिना बुद्धि का उपयोग किये जो कुछ सामने आ जाय उसी में अन्धे बनकर लग जाएं वे पशुवत् ही हैं। अन्त में अपनी प्रकृति प्रदत्त शक्ति को यों ही छिन्न भिन्न करके असफल होते हैं। अतः किसी कार्य की सफलता के लिए बुद्धिबल और मानसिक बल की आवश्यकता है। अच्छे-अच्छे विचारकों एवं कवियों में मानसिक बल भी हो तो वे बहुत कुछ सुधारात्मक एवं परिवर्तनकारी कार्य कर सकते हैं। केवल विचार ही विचार से कुछ नहीं होता प्रधानता तो कार्य की है।

अन्य कार्यों की तरह स्वास्थ्य सुधार एवं चिकित्सा में भी मानसिक बल का महत्वपूर्ण स्थान है। स्वास्थ्य रक्षा के लिये भिन्न-भिन्न साधनों को ढूँढ़ना बुद्धि का काम है और उन्हें उपयोग में लाने का कार्य मानसिक शक्ति का है। कार्य की सफलता तक दोनों क्रम ठीक चलते रहें तो सफलता अवश्य मिलती है।

मनुष्य में मानसिक बल एक महत्वपूर्ण शक्ति है। मानव जीवन में होने वाला सारा खेल इसी शक्ति का पसारा है। जिस व्यक्ति में मानसिक बल जितनी बड़ी मात्रा में होता है वह उतना ही कार्यशील एवं दक्ष होता है। भले ही बुद्धि बल की कमी या वातावरणवश या संस्कार के प्रभाव से वह अच्छे या बुरे कार्य में प्रवृत्त हो किन्तु वह उसमें तेजी से बढ़ता जायगा।

मानसिक शक्ति तत्त्वरूप से स्वभाव रूप से सभी व्यक्तियों में स्थित होती है। लोगों की यह धारणा गलत है कि प्रकृति जिसको बलवान या सम्पन्न अथवा हीन बनाती है उसे जन्म से ही उस तरह का उत्पन्न करती है। साथ ही इस तर्क में सबसे बड़ी गलती यह है कि मनुष्य या तो आखिरी अथवा आगे अर्थात् दोनों सिरों को ही प्रधानता देते हैं मध्यम मार्ग का अनुसरण नहीं करते जिससे हीन को सम्पन्न बनाया जा सके। कमी को पूरा किया जा सकता है। क्योंकि तत्व रूप से तो मानसिक बलहीन एवं महान् दोनों व्यक्ति में एक स्वभाव से स्थित हैं। केवल कर्मक्षेत्र की वजह से एक व्यक्ति महान् बन जाता है और एक दीन-हीन यहाँ तक कि अपना शरीर निर्वाह नहीं कर सकता।

निर्बलता को अथवा हीनता को दूर करने के लिए व्यक्ति पहले अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार करे और कहाँ तक पहुँचना है इसका निर्णय करे। इसके लिए सर्वप्रथम एक छोटा सा लक्ष्य निश्चित करना चाहिए। जिस तरह मैट्रिक पास करने के लिए पहली, दूसरी, क्रमशः दस कक्षाओं को पास करना पड़ता है, उसी तरह छोटे-छोटे लक्ष्य निर्णय करना चाहिए। उस छोटे से लक्ष्य पर अपने चित्त को केन्द्रित करके सफलता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जब वह लक्ष्य पूरा हो जाय तो अपने उसी पथ पर दूसरा लक्ष्य निर्धारित कर उसके लिए भी इसी तरह प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह ज्यों-ज्यों सफलता मिलती जाय अभ्यास करने वाले व्यक्ति को अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना चाहिए।

मानसिक बल का सम्पादन करने अथवा विकसित करने के लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पहले पहल बड़े कार्य को लक्ष्य बनाकर उससे नहीं उलझना चाहिए। क्योंकि शक्ति के अल्प होने के कारण बड़े कार्य में सफलता नहीं मिलती और प्रारम्भ में ही निराशा प्राप्त होती है। मानसिक बल बढ़ना तो दूर रहा उल्टा हताश होना पड़ेगा। अतः सर्वप्रथम सरल मार्ग का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। इस तरह से आखिरी मंजिल तक पहुँचा जा सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles