(श्री स्वामी विशुद्धानंदजी महाराज)
भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता की श्रेष्ठता सब कोई स्वीकार करते हैं। इससे कोई विद्वान इनकार नहीं करता कि भारतवर्ष के वेद ही संसार के सर्वप्रथम ग्रंथ हैं और उन्हीं से देश विदेशों में ज्ञान रवि का प्रकाश पहुँचा था। उस समय भारत आध्यात्मिक ज्ञान में ही अग्रगण्य नहीं था वरन् विज्ञान में भी उसने उस समय की परिस्थितियों के अनुसार उल्लेखनीय प्रगति की थी। सब प्रकार की कलाओं और विद्याओं का यहाँ प्रचार था। संगीत, चित्रकला, मूर्ति निर्माण, गृह-निर्माण, चिकित्सा-शास्त्री, युद्ध-शास्त्र आदि सभी विषयों में वह उस समय के देशों में बहुत अधिक उन्नत था। अथवा यों कह सकते हैं कि इन सब विद्याओं और ज्ञान का प्रथम आविर्भाव इसी भूमि से हुआ और यहीं से वे संसार के विभिन्न भागों में फैलीं।
पर इन सब बातों के होते हुये कुछ समय पश्चात् यहाँ के समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न हुई और उसके फल से उसे अनेक बार विदेशियों द्वारा पद दलित होना पड़ा। भारत का बहुत प्राचीन प्रामाणिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है पर महाभारतकाल के पश्चात् की घटनाओं को हम बहुत अंशों में जानते हैं। महाभारत के समय से कुछ पहले ही देश में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का उदय हो गया था और उस महासमर के मूल में अन्य कारणों के साथ यह मनोवृत्ति विशेष रूप से काम कर रही थी। उस समय की घटनाओं में से कवि कल्पनाओं को दूर कर देने पर स्पष्ट जान पड़ता है कि महाभारत के युद्ध से कुछ ही पूर्व जरासंध और कंस ने अन्य सब छोटे राजाओं को पराजित करके काफी बड़े साम्राज्य स्थापित करने की चेष्टा की थी। अन्त में दुर्योधन भी उसी लक्ष्य को लेकर सामने आया। संभव था कि यह साम्राज्यवाद उस समय अपनी जड़ जमा लेता पर उसका विरोध कृष्ण जैसे महामानव ने किया और जन-पक्ष का समर्थन करने वाली समस्त शक्तियों को संगठित करके उस समय उसकी महत्वाकाँक्षी योजनाओं को चकनाचूर कर दिया।
इस प्रकार महाभारत के युद्ध ने साम्राज्यवाद के नग्न और अत्याचारी स्वरूप को तो रोक दिया, पर उसके बाद भी देश में विभिन्न परस्पर विरोधी हितों के वर्गों का जन्म हो गया। इसके परिणाम स्वरूप लोग सामाजिक ऐक्य के भाव को भूलने लगे और जनता का मूलभूत संगठन नष्ट हो गया। जब इस प्रकार देश की शक्ति का ह्रास हो गया और अन्य जातियों ने उसे निर्बल अवस्था में देखा तो वे उस पर आक्रमण का इरादा करने लगे। सिकन्दर का आक्रमण एक ऐसी ही घटना थी और उसने सबकी आँखें खोलकर दिखला दिया कि अब इस देश की आध्यात्मिक सम्पत्ति नष्ट हो चुकी है और यहाँ के उच्च श्रेणी के व्यक्ति भी आत्मा की बजाय भौतिक शरीर को ही प्रधानता देने लगे हैं। इस अवसर पर भारतीय सीमावर्ती अधिकाँश नरेशों ने न केवल सिकन्दर के सामने स्वेच्छा से आत्मसमर्पण कर दिया वरन् उसे आगे बढ़ने में सब प्रकार की सहायता और सुविधाएँ भी प्रदान की। उसके बाद और भी अनेकों जातियाँ क्रमशः आक्रमणकारी के रूप में आती रहीं और अन्त में मुसलमानों ने देश को स्थायी रूप से गुलामी की बेड़ियाँ पहिना दीं। इन मुसलमान आक्रमणकारियों को जिस प्रकार एक प्रमुख हिन्दू नरेश—जय चन्द से सहायता और प्रोत्साहन मिला उससे तो इसमें संदेह की तिल−भर भी गुंजाइश नहीं रही कि अब हिन्दू प्राचीन ऋषि−मुनियों की आत्मदान की शिक्षा को सर्वथा भुलाकर साँसारिक सुखोपभोग और इन्द्रियों के पूर्ण रूप से गुलाम बन गये हैं क्योंकि जब तक कोई व्यक्ति अपने अन्तर में गुलाम नहीं बन जायगा तब तक उसे कोई बाहरी शक्ति गुलाम नहीं बना सकती।
मुसलमानों के शासनकाल में यहाँ के छोटे बड़े सभी लोगों को ये कष्ट, दुर्गतियाँ और अपमान सहन करने पड़े जो किसी विदेशी शासन के स्वाभाविक परिणाम होते हैं। इससे जनता की चेतना फिर जागृत होने लगी। कबीर, नानक, तुलसीदास आदि संतों और राणाप्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह आदि जातीय वीरों ने देश को सही रास्ता दिखलाने का प्रयत्न किया। इसके बाद अंगरेजी राज्य में भी राजा राममोहनराय, स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द आदि ने लोगों को भारतीय संस्कृति के सत्यस्वरूप का उपदेश दिया। श्री तिलक, अरविन्द,गाँधी आदि ने जनता की राजनैतिक चेतना को जगाया। इन सब प्रयत्नों के फल से भारतीय राष्ट्र दुर्दशा और गुलामी की भावनाओं के गर्द गुबर को झाड़कर उठ खड़ा हुआ और उठते ही उसने अपना जन्म सिद्ध अधिकार स्वराज्य प्राप्त कर लिया।
पर विदेशी शासन के बन्धनों से मुक्ति मिल जाने पर भी भारत ने अभी अपनी प्राचीन संस्कृति की तरफ ध्यान नहीं दिया है। अभी तक देश के अधिकाँश व्यक्तियों पर वर्तमानकाल की योरोपियन और अमेरिकन सभ्यता का रंग ही चढ़ा हुआ है जिसका चरम लक्ष्य अधिक से अधिक सुख सुविधा के साधन प्राप्त करना है। एक दूसरा वर्ग और है जो सामाजिक न्याय के नाम पर समाजवाद या न्याय के नाम पर समाजवाद या साम्यवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। पर लक्ष्य इसका भी अधिकाँश में भौतिक है और इसका सबसे अधिक जोर समतामूलक अर्थ व्यवस्था पर है। इसमें संदेह नहीं कि इसका आधार पूँजीवाद की अपेक्षा बहुत कुछ न्यायमूलक है, पर अभी इसने मनुष्य के शरीर और मन पर ही ध्यान दिया है, आत्मा के विचार से अभी वह दूर है। पर जब तक आत्मा का विचार नहीं किया जायगा तब तक मनुष्य में विश्व बन्धुत्व की भावना का उदय नहीं हो सकता और उसके बिना वास्तविक सुख शाँति की आशा भी नहीं की जा सकती। इन कारणों से हमारे देश की जैसी अवस्था हो रही है उसका विवेचन करते हुये एक विवेकशील विद्वान ने कहा है :—
“जगदुद्धारक महापुरुष आये और चले गये, समाज सुधारक और तत्वज्ञ बड़े-बड़े ग्रंथ लिख गये, राजतंत्र से लेकर अराजकतावाद तक और सैनिक अधिनायकवाद से लेकर जनतन्त्रात्मक समाजवाद तक बड़े-बड़े प्रयोग किये जा चुके पर संसार का ढर्रा जो कल था वही आज भी है और संभवतः निकट भविष्य में यही बना रहेगा। ऋषि का वचन है-”आत्मा को नीचे मत गिरने दो, अपने आत्मा को अपने द्वारा ही ऊँचा उठाओ। आत्मा आनन्दामृत से सिक्त है, उसे जानो और वही बनो।” पर स्वार्थ सुख की भूख और प्यास से ही मनुष्य का मन जब आकुल है तब आत्मा की इस गंभीर वाणी को कौन सुनता है? यह असंख्य सिर वाली स्वार्थपरता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समा रही है। वर्णगत, सम्प्रदायगत और जातिगत कुसंस्कार मनुष्य की इसी स्वार्थपरता की सन्तान हैं। एक धर्म सम्प्रदाय दूसरे से द्वेष करता है। क्यों? इसीलिये कि प्रत्येक धर्म यह समझता है कि ईश्वर स्वर्ग और सद्गुणों पर उसी का ठेका है। एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से द्वेष करता है। क्यों? इसी लिये कि कोई प्रान्त अन्य प्रान्त के साँस्कृतिक सौंदर्य को देखना नहीं चाहता। एक भाषा दूसरी भाषा का तिरस्कार करती है, क्योंकि उसके गुणों को स्वीकार करने में वह अपनी हेठी समझती है। आध्यात्मिक चेतना से ही इन कुसंस्कारों को हटाया जा सकता है। सामाजिक जीवन में एकता और सुसंगति तभी होती है जब हृदय मिलकर एक हों। यह हृत्तत्व के उद्घाटन और आत्म चैतन्य की अनुभूति से ही हो सकता है। राष्ट्र के जीवन का मानव मात्र में निवास करने वाले भगवान के साथ योग होना चाहिये। मनुष्य, मनुष्य के भीतर के भगवद् तत्व को पहिचाने। इसको आध्यात्मिक समाजवाद कह सकते हैं।”
कहने के लिये अब भी हमारे देश में आध्यात्मिकता का दावा करने वालों की कमी नहीं है। पर उनमें से अधिकाँश तो केवल कानूनी अथवा झूठा घमंड करने वाले हैं। थोड़े से व्यक्तिगत रूप से कुछ आध्यात्मिक नियमों का पालन कर लेते हैं। पर आध्यात्मिकता को समष्टि रूप से अनुभव और पालन करने वाली जनता का यहाँ अभी अभाव है। इसके कारण समाज ऐक्यभाव और शक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता। जिस दिन हम आध्यात्मिकता का वास्तविक आशय समझ कर छोटे-मोटे भेदों की उपेक्षा करना और समाज के सब सदस्यों को एक ही शरीर के विभिन्न अंगों की भाँति समझना आरम्भ कर देंगे उसी दिन हमारी सामाजिक दुर्बलता का अन्त हो जायगा और हम संसार के उद्धार तथा उत्थान में पूरा योग दे सकेंगे।