क्या हम फिर जन्म न लेंगे?

July 1959

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(डॉ. चमनलाल गौतम)

मृत्यु और पुनर्जन्म संसार की दो बहुत बड़ी समस्याएँ हैं। वैसे तो साधारण व्यक्ति आजकल कमाने-खाने को ही सब से अधिक महत्व देते हैं, पर उनका यह विचार विशेष बुद्धिमत्ता का नहीं कहा जा सकता। इस संसार का विस्तार और इसकी अवधि जितनी हमको दिखलाई पड़ती है, वह यद्यपि वास्तविकता से बहुत कम होती है तो भी यदि हम अपने जीवन के भोगों की उससे भी तुलना करें तो वे पर्वत के सामने एक राई के बराबर भी नहीं ठहरते। संसार में जो अपार सामग्री भरी पड़ी है, जो नई-नई चीजें निकलती आती हैं उनको देखते हुये एक साधारण व्यक्ति को प्राप्त होने वाली भोग सामग्री कुत्ते के सामने फेंके गये टुकड़े से अधिक महत्व नहीं रखती। इसी प्रकार यह संसार पिछले हजारों लाखों वर्ष से इसी प्रकार धूमधाम से चलता आया है और आगे भी संभावना है। ऐसी दशा में अपने पचास सौ वर्ष के जीवन में हम उसके जितने अंश को जान सकते हैं और उपभोग कर सकते हैं वह भी नगण्य ही है। ऐसी तुच्छ चीजों को सब से अधिक महत्व देने और मृत्यु तथा पुनर्जन्म जैसी अनिवार्य और स्थायी बातों के सम्बन्ध में अज्ञान में पड़े रहने को अगर बुद्धिहीनता के नाम से पुकारा जाय तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है क्योंकि यदि हम मृत्यु और पुनर्जन्म के रहस्य को समझ लें और हमको यह विश्वास हो जाय कि हमारा यह जीवन एक पानी का सा बुलबुला नहीं है वरन् भूतकाल और भविष्य काल के अन्य जन्मों से सम्बन्धित एक अविच्छिन्न धारा है, तो हमारे विचारों और जीवन में बड़ा भारी परिवर्तन हो सकता है और हम अपने को शाश्वत सुख का अधिकारी समझ कर तदनुकूल आचरण कर सकते हैं।

परलोक-जीवन की समस्या को समझने के लिये अपने स्वरूप का कुछ ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि मरने के बाद भी हमारा कुछ अंश बचा रहता है, इसलिये साधारणतया लोग अपनी प्रकृति को दो भागों में विभक्त करते हैं—एक वह शरीर जो नाशवान है और दूसरा जीव अथवा आत्मा जिसका नाश नहीं होता। पर ध्यान देकर देखने से प्रतीत होता है कि जीव और आत्मा हमारे दो भिन्न-भिन्न स्वरूपों को प्रकट करते हैं। इसलिये हमें अपनी प्रकृति को तीन भागों में विभक्त करना चाहिये, जिनको हम देह देही और विदेह अथवा आत्मा, जीवात्मा और देहात्मक जीव कह सकते हैं। वास्तव में इस त्रिगुणात्मक भाव पर ही इस समस्त सृष्टि का व्यापार निर्भर है। साक्षात ब्रह्म भी जब सृष्टि के आदि में सगुण रूप धारण करते हैं तो सत् चित् आनन्द, अथवा ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन स्वरूपों में प्रकट होते हैं। इस त्रिगुणात्मक भाव का आभास सृष्टि के प्रत्येक अंग में पाया जा सकता है।

अब तक तो यह शरीर और आत्मा का विभाजन प्राचीन शास्त्रों तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों में ही पाया जाता था, पर अब कुछ समय से यह वैज्ञानिक अनुसंधान का भी एक विषय बन गया है। पहले विज्ञान के लिए जड़वाद माना जाता था और उसमें भौतिक पदार्थों और शक्तियों के सिवा अन्य किसी विषय की विवेचना देखने में नहीं आती थी। पर जब वे इस भौतिक क्षेत्र की जाँच समाप्त करके उसके अन्तिम छोर पर पहुँच गये तो उन्हें आगे भी विश्व के अनेक रहस्य जान पड़े जो उनके भौतिक क्षेत्र में नहीं आये थे। कुछ आगे बढ़ने पर उनको मनुष्य के मस्तिष्क में कुछ स्थायी भाव प्रतीत हुआ और वे जाँच करने पर निष्कर्ष पर पहुँचे कि मृत्यु के बाद भी मानव-जीवन का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है। एक बार मृत्यु के बाद जीवन की अमरता स्वीकार कर लेने पर, पुनर्जन्म को तो बाध्य होकर मानना ही पड़ेगा। सत्य के प्रति आँख मूँद कर हठपूर्वक कोई सदा कैसे बैठा रह सकता है?

हिन्दू-धर्म कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्धाँत का सामान्य रूप से सर्वत्र प्रचार है। इन विषयों पर विचार करने वाले लोगों की संख्या तो अधिक नहीं पर एक रूढ़ि के रूप में प्रायः सभी लोग इन सिद्धाँतों को मानते हैं। पर चूँकि धीरे-धीरे उनका विश्वास अत्यन्त ही भ्रमपूर्ण और विकृत हो गया है, इसलिये वे उससे किसी प्रकार का लाभ नहीं उठाते। इस समय यदि जाँच की जाय तो ज्यादातर लोग इन बातों के स्वरूप को कुछ भी न समझ कर इन्हें एक प्रकार के भय के रूप में मानते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ चालाक लोग उनकी इस भावना का लाभ उठाते हैं और पापों से छूटने की अनेक विधियाँ बतलाकर आप निःस्वार्थ सिद्ध बनते हैं। अनेक लोग हत्या, चोरी, डाका, व्यभिचार, नशाखोरी आदि सब प्रकार के कुकृत्य करते रहते हैं और साथ में थोड़ा बहुत दान-दक्षिणा देकर यह समझ लेते हैं कि हमारे पापों का प्रायश्चित हो गया और अब परलोक में हमको इनका दण्ड नहीं भोगना पड़ेगा। इस तरह के भ्रमपूर्ण विश्वास का न तो कोई महत्त्व होता है और न उससे कोई लाभ उठाया जा सकता है। इस सिद्धान्त की वास्तविकता के विषय में एक विद्वान ने अच्छा प्रकाश डाला है। वह कहता है—

“साधारण तौर से हम समझते हैं कि मरने के बाद मनुष्य कर्मानुसार स्वर्ग तथा नरक में जाता है और फिर कुछ दिनों तक सुख अथवा दुःख भोग कर पृथ्वी पर दूसरे जन्म धारण कर लेता है। पर किस क्रम से वह परलोक जीवन बिताता है इसका हमें कुछ स्पष्ट ज्ञान नहीं होता और न हम यह समझते हैं कि स्वर्ग और नर्क से क्या तात्पर्य है? ये लोक कहाँ है? इसी प्रकार हम इस बात को भी स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि मरने के बाद जब यह शरीर छूट जाता है तो किस स्वरूप में मनुष्य कहाँ रहता है?

मरने के बाद के जीवन को समझने के लिये मनुष्यों को नीचे के तीन श्लोकों का कुछ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। हमारे निवास स्थान—भूलोक के दो विभाग हैं, स्थूल और सूक्ष्म। भुवःलोक के भी तीन विभाग हैं जिनमें एक को नर्क कहते हैं। इस भुवःलोक को कामलोक भी कहते हैं, क्योंकि इसी लोक के तत्वों के जरिये इच्छाओं, वासनाओं अथवा भावनाओं के कार्य होते हैं। स्वलोक के भी स्थूल, सूक्ष्म दो विभाग हैं। इस लोक को मानसिक लोक भी कहते हैं, क्योंकि इसी लोक के द्रव्यों के जरिये विचारों के कार्य होते हैं।

अब एक विषय विचार करने का यह है कि मृत्यु का समय मनुष्य के लिये बड़े महत्व का होता है। भगवान कहते हैं कि मरने के समय जिसका जैसा भाव होता है, वह वैसी ही गति को प्राप्त करता है, यथा—

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। त तमेवेति कौन्तेय सदा सद्भाव भावितः॥

—भगवद्गीता 8-9

अर्थात् “हे अर्जुन! अन्त समय में जो जिसका स्मरण करता हुआ इस शरीर का त्याग करता है, उसी भाव से सदा भावित होने के कारण वह उसके पास पहुँच जाता है।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावम् याति नास्त्यत्र संशयः॥

“अर्थात् अन्त समय में जो मुझको ही स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग करता है, वह मुझको प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है।”

इन महावाक्यों से भली भाँति पता चलता है कि मृत्यु की घड़ी कितने भारी महत्व की होती है? यह ख्याल करना कि हम चाहे जैसा जीवन बितावें अन्त समय में भगवान का खूब नाम लेंगे तो मुक्त हो जायेंगे, बहुत बड़ी गलती है। यदि हमको सदा भगवान का नाम लेने का अभ्यास नहीं रहेगा तो अन्त समय में हमारा ऐसा भगवत् नाम लेने का भाव ही न होगा। इसलिये परलोक तथा पुनर्जन्म के रहस्य को जानना और तदनुकूल सद् आचरण की प्रतिज्ञा लेना ही मनुष्य के लिये कल्याण मार्ग है।


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