हिन्दू धर्म की उदारता और महानता

October 1958

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(श्री कृष्णानन्द)

संसार में मुख्यतः दो प्रकार के धर्म हैं। एक कर्मप्रधान दूसरे विश्वासप्रधान। हिन्दूधर्म कर्म-प्रधान हैं, अहिन्दूधर्म विश्वास-प्रधान हैं। जैन, बौद्ध, सिक्ख ये तीनों हिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं। इस्लाम, ईसाई, यहूदी ये तीनों अहिन्दू धर्म के अंतर्गत हैं।

मैंने जहाँ तक विचार किया है हिन्दू-धर्म में सब से बढ़कर यही उदारता है कि सबको निज विश्वासानुसार पूजा और उपासना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है परन्तु सदाचार व सद्व्यवहार का बन्धन है। हिन्दूधर्म लोगों को निज विश्वासानुसार ईश्वर व देवी-देवताओं को मानने व पूजने की और यदि विश्वास न हो तो न मानने व न पूजने की पूर्ण स्वतन्त्रता देता है। अहिन्दू-धर्म में ऐसी स्वतन्त्रता नहीं है। अहिन्दू-धर्म (पैगम्बरी मजहब) मनु अपने अनुयायियों को किसी विशेष व्यक्ति और विशेष पुस्तक पर विश्वास लाने के लिए बाध्य या विवश करता है। उसे निज विश्वासानुसार देवता को मानने व उपासना करने की स्वतन्त्रता नहीं है।

हमारे कई भाई शंका करेंगे कि हिन्दूधर्म में निज विश्वासानुसार देवताओं को मानने व पूजने की स्वतन्त्रता है, यह कौन सी खूबी है? इससे तो “एक निराकार सर्वव्यापक ईश्वर का मानना” ही उत्तम और हितकर है। इसके उत्तर में निवेदन है कि यह सिद्धान्त अति उत्तम है परन्तु मनुष्यों का मन अद्भुत प्रकार का है। मनोविज्ञान की दृष्टि से “भिन्नरुचिर्हि लोकः” प्रसिद्ध है। पूजा-उपासना के सम्बन्ध में ही यही बात चरितार्थ होती है। आप प्रत्यक्ष देखिये, संसार में सैकड़ों प्रकार के मत या सम्प्रदाय हैं और पूजा व उपासना की पद्धति हजारों प्रकार की प्रचलित हैं। मुख्य-मुख्य सब मतों में बड़े-बड़े विद्वान् मौजूद हैं। परन्तु उनका मन अपनी ही भावना के अनुकूल देवता को मानने व पूजने में सन्तुष्ट रहता है। उनको दूसरे मनुष्य की रुचि के अनुसार पूजा या उपासना करने में तनिक भी तुष्टि या प्रसन्नता नहीं होती। ईश्वर का स्वरूप कैसा है, इस विषय में भिन्न-भिन्न मत के विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार या सिद्धान्त हैं। जब कि ईश्वर को मानने वाले बड़े-बड़े फिलॉसफर भी ईश्वर के विषय में मतभेद रखते हैं तब संसार के सब लोगों से ईश्वर के सम्बन्ध में एक ही सिद्धान्त को मानने की आशा रखना व्यर्थ है और प्रत्यक्ष देखिये बहुत से विद्वान् ईश्वरास्तित्व को अस्वीकार करने में ही अति प्रसन्न और परम सन्तुष्ट रहते हैं। इस प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि हिन्दूधर्म जो पूजा व उपासना के विषय में पूर्ण स्वतन्त्रता देता है वह बड़ा ही उत्तम, उदात्त और श्रेयस्कर है। हिन्दूधर्म का यह सिद्धान्त सर्वोपयोगी और सार्वभौम है।

मूल हिन्दूधर्म उपासना भेद के कारण किसी को पापी या नरकगामी नहीं मानता, किन्तु उसी को पापी मानता है जो सदाचार व सद्व्यवहार से रहित हो! इसके विपरित अहिन्दू धर्म (पैगम्बरी मजहब) निज विश्वासानुसार देवी-देवता को मानने या पूजने की स्वतन्त्रता नहीं देता। वह तो व्यक्ति-विशेष व पुस्तक विशेष पर विश्वास लाने को ही धर्म और स्वर्गप्रद मानता है। अहिन्दूधर्म कहता है कि जो मनुष्य अमुक पैगम्बर व अमुक पुस्तक पर ईमान नहीं लावेगा वह ज्ञानी व सदाचारी व परोपकारी होने पर भी पापी और नरकगामी है। मूल हिन्दूधर्म कहता है कि भिन्न देवोपासना या उपासना विधि की भिन्नता के कारण किसी को पापी कहना या मानना अनुचित है। हिन्दूधर्म में धर्मात्मा वही है जो अपने विश्वासानुसार पूजा व उपासना करता हुआ (और यदि ईश्वर या किसी देवता पर विश्वास न रखता हो तो भजन-पूजन न करता हुआ) सदाचार व सद्व्यवहार में स्थिर रहे और पापी वही है जो दुराचार व दुर्व्यवहार में लगा रहे? कोई मनुष्य देवताओं का भजन-पूजन या ईश्वराराधन करता हो परन्तु दुष्कर्मों में लिप्त हो तो हिन्दू धर्म उसे पापी ही कहता और मानता है। हिन्दू धर्म में अद्वैश्वरवादी, बहुदेववादी, मूर्तिपूजक और मूर्ति पूजा न करने वाले इन सबके लिए पूरा स्थान और पूर्ण सम्मान है। ऐसी उदारता किसी भी पैगम्बरी मजहब में नहीं है। जिस दिन ऐसी उदारता उसमें आ जायगी उसी दिन वह मजहब सार्वभौम धर्म के योग्य होगा।

हिन्दू धर्म सदाचार व सद्व्यवहार पर जोर देता है और विश्वास लाने न लाने के सम्बन्ध में बाध्य या विवश नहीं करता। अहिन्दू धर्म सदाचार व सद्व्यवहार पर जोर नहीं देता किन्तु विश्वास लाने के लिए बाध्य या विवश करता है। वह धर्मात्मा और स्वर्गगामी उसी को मानता है जो विशेष व्यक्ति और विशेष पुस्तक पर ईमान रखता हो, फिर वह चाहे कैसा ही कर्म करे। कोई मनुष्य कितना ही ज्ञानी, सदाचारी और परोपकारी हो, यदि वह विशेष व्यक्ति और विशेष पुस्तक पर विश्वास नहीं रखता तो वे लोग उसे पापी व नरकगामी मानते हैं। हिन्दू धर्म और अहिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्तों में यही भारी भेद है। यह ऐसी गहरी खाई है जो कभी पट नहीं सकती अर्थात् हिन्दू धर्म और अहिन्दू धर्म दोनों का मेल कभी नहीं हो सकता। ये दोनों धर्म गंगा और यमुना के समान एक कभी नहीं हो सकते। हिन्दू धर्म में उपासना काण्ड में जो स्वतन्त्रता है वह मानों स्वतन्त्र विचार करने का स्पष्ट आदेश है। अहिन्दू धर्म में जो उपासना-कर्म में स्वतंत्रता नहीं है वह मानो स्वतन्त्र विचार करने का निषेध है। साराँश यह कि हिन्दू धर्म स्वतन्त्र विचारों का पक्षपाती और समर्थक है तथा अहिन्दू धर्म स्वतन्त्र विचारों का विरोधी और बाधक है। विद्वान व दूरदर्शी लोग भली भाँति जानते हैं कि साँसारिक उन्नति और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए स्वतन्त्र विचारों की कितनी बड़ी आवश्यकता रहती है। इस दृष्टि से देखिये कि संसार के लिए हिन्दू धर्म अधिक उपयोगी है अथवा सेमिटिक (पैगम्बरी) मजहब? इस पर भी ध्यान दीजिए कि संसार में शुभ कर्मों के द्वारा अधिक सुख व शान्ति फैल सकती है अथवा किसी दूत व पुस्तक पर विश्वास लाने मात्र से? भली भाँति विचारने से सिद्ध है कि किसी पर ईमान लाने के बाद भी साँसारिक सुख व शाँति के शुभ कर्मों की आवश्यकता ज्यों की त्यों बनी रहती है। अतः पैगम्बरी मतों के सिद्धान्त की अपेक्षा हिन्दू धर्म के सिद्धान्त की उत्तमता और उपयोगिता में कोई सन्देह नहीं।


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