ज्ञान और कर्म का समन्वय ही मोक्ष-मार्ग है।

October 1958

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(श्री नारायण स्वामी)

(अभ्युदय का अर्थ है लोकोन्नति और निःश्रेयस कहते हैं परलोकोन्नति अथवा मोक्ष या ईश्वर प्राप्ति को। वर्तमान समय में अनेक लोग इन दोनों को परस्पर विरोधी समझते हैं। वे ऐसा ख्याल करते हैं कि जो व्यक्ति साँसारिक दृष्टि से सफल होगा वह पारलौकिक या आध्यात्मिक निगाह से महत्वहीन होगा। और जो व्यक्ति परलोक का ध्यान रखने वाला होगा अर्थात् ईश्वर के निकट पहुँचेगा वह इस संसार के विषयों से दूर रहेगा। इस विचार धारा का ही यह परिणाम हुआ कि देश में एक बड़ी संख्या लँगोटी लगाने वाले साधुओं की उत्पन्न हो गई। ये लोग प्रकट में संसार के प्रपंच और बन्धन से छुटकारा पाने के लिये लौकिकता का त्याग करते हैं, पर वास्तव में संसार के लिये स्वयं भार-स्वरूप बन जाते हैं। ये लोग अपने को धार्मिक समझते हैं और अन्य लोग भी उनको संसार त्यागी महात्मा, विरक्त कहते हैं, पर वास्तव में वे दोनों ओर से निकम्मे हो जाते हैं।)

उपर्युक्त भ्रमपूर्ण विचार अवनति कालीन मध्य काल के कितने ही ज्ञान और भक्ति आदि का वितण्डावाद खड़ा करने वाले सम्प्रदायों ने फैलाये हैं। अन्यथा वैदिक समय में भारतीय समाज में सर्वथा भिन्न प्रकार का आदर्श था। वेद में कहा गया है—

विद्याँ चाविद्याँ च यस्तद्वेदोभयँ सह। अविद्यया मृत्युँ तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥

(यजुर्वेद 40। 14)

अर्थात् विद्या (ज्ञान) और अविद्या (ज्ञानेतरकर्म) दोनों को जो साथ-साथ काम में लाता है, अर्थात् न ज्ञान की उपेक्षा करता है न कर्म की, वह कर्म के द्वारा मृत्यु को पार करके ज्ञान द्वारा अमरता को प्राप्त करता है।”

यहाँ वेद ने स्पष्ट और असंदिग्ध शब्दों में बतलाया है कि मनुष्य को धर्म ज्ञान उपलब्ध करके उसके अनुकूल कर्म करना है। वेद ने इस ज्ञान और कर्म का उद्देश्य मृत्यु के सबसे बड़े बन्धन को पार करना बतलाया है। छोटे-छोटे बन्धनों को पार करना हुआ ही मनुष्य बड़े बन्धनों को पार किया करता है। इसलिए लोक की उन्नति के लिये मनुष्य ज्ञान और कर्म को इस प्रकार काम में लावे जिससे लोक के छोटे-मोटे बन्धन शिथिल होते रहें। ऐसा होने पर ही लोकोन्नति, परलोकोन्नति का साधन बना करती है, और मनुष्य इन छोटे-छोटे बन्धनों को दूर करते हुये इस योग्य हो जाता है कि बड़े से बड़े मौत के बन्धन को भी दूर कर सके। और ऐसा हो जाने पर वह अपने परलोक को भी उन्नत बना लिया करता है। यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिये कि मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति मनुष्य को दो बातें प्राप्त कराया करती है—1. मौत के बन्धन से छुटकारा और। 2. आनन्द। इनमें से पहली बात निर्गुण और दूसरी बात सगुण उपासना का फल हुआ करती है। जब मनुष्य ईश्वर अजर है, अमर है, अभय है, इत्यादि, तो इससे उसके भीतर भी निर्गुणता आती है, और वह भी, निमित्त से ही क्यों न हो, अजर, अमर, अभय हो जाया करता है। और जब वह ईश्वर की सगुणता का चिन्तन करता है, कि ईश्वर सच्चिदानन्द है, न्यायकारी है, दयालु है, इत्यादि—तो उसके भीतर नैमित्तिक रीति से ही क्यों न हो, सच्चिदानन्द आदि गुणों का संयोग-सम्बन्धवत समावेश हो जाया करता है। और इस प्रकार मनुष्य को मोक्ष के दोनों पहलू प्राप्त हो जाते हैं। यह तो जीवनोद्देश्य का स्थूल ढाँचा हुआ। यह ढाँचा किन साधनों से बना करता है, अब उस पर कुछ विचार करना चाहिये।

साधना

योग दर्शन में वर्णित “तंजपस्तदर्थ भावनम्” की शिक्षा के अनुसार मनुष्य को ईश्वर के गुणवाचक नामों का जप करके अपने भीतर उनमें से अनेक गुणों का समावेश करना चाहिये, जिससे वह कम से कम इतना शक्ति सम्पन्न अवश्य हो जाय कि अपने अंदर से अहंकार को निकाल सके। अहंकार की उत्पत्ति से जगत में व्यष्टित्व (व्यक्ति वाद) की वृद्धि होती है। मनुष्य के भीतर भी अहंकार आ जाने से मेरे और तेरे मन का भाव (ममता) पैदा हो जाता है। इस ममता की उत्पत्ति का फल यह होता है कि ज्यों ज्यों यह बढ़ती है, मनुष्य ईश्वर से दूर होता जाता है। यह सत्य है कि जगत अहंकार से उत्पन्न होता है और अहंकार से ही उसकी स्थिति भी बनी रहती है। परन्तु जब मनुष्य ईश्वर की ओर चलने का इरादा करता है तो उसके लिये आवश्यक हो जाता है कि अहंकार से अपना पीछा छुड़ावे। अहंकार से पीछा छुड़ाने का उपाय अपने को भुला देने में ही निहित है। अपने को किस प्रकार भुलावे? इसके लिये प्रेम और भक्ति का आश्रय लेने की आवश्यकता है। जब मनुष्य ईश्वर को अपने प्रियतम के रूप में देखकर उसके प्रेम-उत्कृष्ट प्रेम की चरम सीमा में अपने को पहुँचा देता है, तब वह प्रभु-प्रेम में इतना लीन हो जाता है कि उसे अपनी सुध-बुध भी नहीं रहती। इस दरजे पर पहुँच जाने पर अहंकार, ममता या मेरे-तेरे मन के भाव उसे व्यथित नहीं कर सकते। इसी अवस्था के लिये कवियों ने लिखा है—

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँय। प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाय॥

अथवा—

बेखुदी छा जाय ऐसी दिल से मिट जाये खुदी। उनके मिलने का तरीका अपने खो जाने में हैं॥

इस अवस्था पर पहुँच जाने पर यह नहीं हो सकता कि उपासक अथवा प्रेमी की सत्ता न रहती हो। वह रहती अवश्य है, परन्तु प्रियतम में लवलीन हो जाने से उसे हर जगह वही दिखाई देता है—”जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है।” योग-दर्शन की परिभाषा में इसी को चित्त वृत्तियों का निरोध कहा जाता है। तात्पर्य इसका यह है कि चित्त की वृत्तियाँ बहिर्मुखी है, और बाहर सारी माया अहंकार की ही हुआ करती है। इसलिए उन वृत्तियों के निरोध करने का अर्थ यह हुआ कि चित्त का सम्बन्ध अहंकार से शेष न रहा। इस सम्बन्ध के शेष न रहने से आत्मा का सम्बन्ध भी चित्त से टूट-सा जाता है। इस सम्बन्ध के टूट जाने से आत्मा अपने भीतर काम करने लगता है और यही अवस्था है जिसमें आत्म-साक्षात्कार या परमात्म-साक्षात्कार हुआ करता है। यही अवस्था है जिसे स्वाद चखने की अवस्था से उपमा दिया करते हैं। यहाँ जो स्वाद आता है उसे कोई जबान से कह नहीं सकता। उपनिषदों में इसी के लिये कहा गया है—

न शक्यते वर्णयितुँ गिरा तदा स्वयं तदन्तः करणेन गृत्यते॥


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