गायत्री-परिवार एक ऐतिहासिक संगठन

October 1958

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जिसके एक लाख सदस्य युग-निर्माण के लिए अग्रसर हो रहे हैं।

गायत्री-परिवारों की लगभग दो हजार शाखाएं जैसे-जैसे युग निर्माण एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के अपने कर्तव्य को अनुभव करती जा रही हैं वैसे ही वैसे उनमें उत्साह स्फूर्ति और कर्तव्य परायणता की भावना जागृत हो रही है। यह जागृति यदि उचित रूप से विकसित होती रही तो उसके सत्परिणाम ऐतिहासिक होंगे। भारत के इतिहासकार गायत्री-परिवार के एक लाख सदस्यों द्वारा किये हुए महान कार्यों को भूल न सकेंगे।

अब तक विचारशील लोगों की दृष्टि में पूजा-पाठ वाले लोगों का स्थान निकम्मे, आलसी, ठग, परावलम्बी, स्वार्थी एवं निराशावादी श्रेणी में गिना जाता रहा है।

गायत्री-परिवार की शाखाओं में धर्म सेवा के लिए भारी उत्साह उत्पन्न हो रहा है। गायत्री उपासना के फलस्वरूप साधकों में जो सद्बुद्धि उत्पन्न हुई है, उसका उपयोग वे परमार्थ मार्ग में कर रहे हैं। स्वार्थी लोग जन्त्र मन्त्र की उधेड़बुन में इसलिए लगते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से भौतिक लाभ हों, पर जिन पर माता का सच्चा अनुग्रह हो जाता है वे व्यक्तिगत सुख सुविधा पर विशेष ध्यान न देकर परमार्थ में अपना जीवन लगाने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। गायत्री-परिवार के अधिकाँश साधकों को माता की सच्ची कृपा प्राप्त हुई है और वे धर्म सेवा के मार्ग पर एक दूसरे से आगे बढ़कर निकलने की बाजी लगाये हुए हैं।

इस महायज्ञ की सफलता के लिए कई परिजनों ने अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी इतना समय, श्रम एवं सद्भाव लगाया है जिसे देखते हुए सतयुग के तपस्वियों की याद आ जाती है। लगता है कि किसी जमाने के ऋषि मुनि इस युग के अनुरूप साधारण शरीरों में जन्म धारण किये हुए हैं, पर उनकी भावनाएं उसी प्राचीन युग जैसी हैं। इस प्रकार की आत्माओं का एक स्वाभाविक संगठन गायत्री परिवार के रूप में बनता जा रहा है।

यों आज अनेकों सभा सोसाइटियाँ मौजूद हैं और वे अपने रंग बिरंगे कार्यक्रम समय-समय पर प्रदर्शित करके जनता को आकर्षित करती रहती हैं। पर उनके भीतर सच्चा जीवट नाम मात्र को ही होता है। गायत्री परिवार देखने में एक संस्था जैसी वस्तु है पर वस्तुतः इसका भीतरी रूप बिलकुल वैसा ही है जैसा किसी कौटुम्बिक, घरेलू सुव्यवस्थित परिवार का होता है। परिवार के परिजन जहाँ युग निर्माण के महान मिशन को पूरा करने के लिए कदम-कदम मिलाकर कूच करने वाले सैनिकों की तरह साथ-साथ आगे बढ़ रहे हैं, साथ ही आपस में आत्मीयता, सुहृदयता, एकता, के तत्वों को विकसित करते हुए इस पृथकता के, व्यक्तिवाद के, स्वार्थपरता के युग में एकता, सामूहिकता एवं निःस्वार्थता के आदर्शों को क्रियान्वित करने के लिए भी आतुर हो रहे हैं।

अखण्ड ज्योति के गत अंक में (1) “युग निर्माण का मंगलाचरण” (2) तप साधना द्वारा दिव्य शक्ति का अवतरण (3) महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद- इन तीन लेखों में यह बताया गया है कि गायत्री-परिवार का आगामी सार्वजनिक कार्यक्रम उद्देश्य लक्ष, विचार तथा अरमान क्या हैं? यह कोरी आकाँक्षाएं तथा अभिलाषाएं ही नहीं है-इन्हें शेखचिल्ली के सपने ही नहीं समझना चाहिए। एक लाख व्रतधारी धर्म सेवकों की अन्तरात्माओं में जो हिलोरें उठ रहीं हैं उन्हें देखते हुए इस लक्ष तक पहुँच सकना कुछ भी कठिन नहीं है। इतना विशाल लक्ष और इतना नया-केवल दो वर्ष का बाल-संगठन-इन दोनों की तुलना करने पर यह सब ऐसा लगता है मानों छोटे मुँह बड़ी बातें की जा रही हों। समय ही बतावेगा कि वस्तुस्थिति ऐसी ही बन चुकी है जिस पर आज नहीं तो कल सुसंस्कृत भारत के भावी नागरिक गर्व अनुभव कर सकेंगे।

जिस संगठनों में स्वार्थपरायण, स्वार्थ बुद्धि से एकत्रित हुए लोगों का जमघट रहता है वह क्षणिक उत्साह में कुछ दिनों चमकते हैं। जब तक उन व्यक्तियों की स्वार्थ सिद्धि होती है, तब तक वे उसमें सम्मिलित रहते हैं पर कुछ ही दिनों में छोटे से कारण उपस्थित हो जाने पर बालू के महल की तरह उसका पतन होते देर नहीं लगती। पर जिन संगठनों की जड़ में पूर्ण सचाई, निःस्वार्थता, ईमानदारी, आत्मीयता एवं एक दूसरे के लिये मर मिटने की साध होती है, वे चाहें छोटे, कम पढ़े, निर्धन लोगों के ही संगठन क्यों नहीं हों, वे फलते-फूलते हैं दिन-दिन मजबूत होते जाते हैं और अपने संगठित प्रयत्न के प्रेम भरे वट वृक्ष की छाया में बैठ कर स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव करते हैं। ऐसे संगठन आसानी से छिन्न-भिन्न नहीं होते।

गायत्री-परिवार में जिस उच्च श्रेणी की आत्माएं एकत्रित हो रही हैं, उसे देखते हुये इस संगठन के संचालकों तक को भारी आश्चर्य होता है और लगता है कि किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिये भगवान का एक पूर्व आयोजित विधान बना बनाया मौजूद था। केवल उसके विधिवत उद्घाटन करने की व्यवस्था मात्र ही अब की गई है।

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति को इस संगठन का एक शंखनाद, मंगलाचरण एवं शिलान्यास कहा जा सकता है। जिस प्रकार प्राचीन काल में अश्वमेध यज्ञों के द्वारा असंगठित स्वेच्छाकारी राज्यों को एक बड़ी केन्द्रीय राज सत्ता के अंतर्गत संगठित किया जाता था, उसी प्रकार इस महायज्ञ का कार्यक्रम देकर धर्म सेवा के लिये उत्कंठित आत्माओं को सारे देश में से ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक संगठित सूत्र में पिरो दिया गया है। महायज्ञ का इतना विशाल कार्यक्रम बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के निर्धन साधकों के बलबूते पर सफल बनाने की कड़ी परीक्षा के रूप में उपस्थित किया गया है। प्राचीन काल में कभी-कभी कोई गुरु अपने विशिष्ट शिष्यों की निष्ठा को परखने एवं बढ़ाने के लिये उन्हें गुरु दक्षिणा के रूप में कोई कठिन काम पूरा करने का आदेश देते थे। उस आदेश की पूर्ति के लिये किस शिष्य ने कितना प्रयत्न, कितना त्याग किया, उस आधार पर उनकी पात्रता कुपात्रता का पता लगाया जाता था। यह पात्रता ही अन्त में गुरु-कृपा या भगवान की कृपा के रूप में उन्हें सत्परिणामों के समीप पहुँचाती थी।

आज महायज्ञ की पूर्णाहुति के विशाल कार्यक्रम ने गायत्री-परिवार के परिजनों को कड़ी परीक्षा की कसौटी पर चढ़ा दिया है। प्रसन्नता की बात है कि खोटे सिक्के, नकली गहने, बहुत कम निकले हैं, अधिकाँश ने अपने को खरा सोना साबित किया है। निकट भविष्य में जब इस युग के अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का इतिहास लिखा जायगा तब सारा संसार देखेगा कि इतना छोटा लगने वाला संगठन भीतर ही भीतर कितना मजबूत था, उसमें कितनी तीव्र भावना एवं निष्ठा भरी हुई थी, धर्म सेवा के लिये एक दूसरे से आगे बढ़ने की किस प्रकार होड़ लगी, और किसी-2 ने कितनी विषम परिस्थितियों में रहते हुये कितने बड़े-बड़े साहसपूर्ण तप त्याग के उदाहरण उपस्थित किये।

परिवार के लक्ष और संगठन को सफल बनाने के लिये कई आत्माएं ऊँचे पर्दों को, अच्छी आजीविका को, आराम की जिन्दगी को ठोकर मार कर अपने आपको अपने स्त्री बच्चों को राष्ट्र माता के लिये अर्पण करने जा रहे हैं। ये गृहस्थ में रहते हुये भी साधुओं के समान अपरिग्रही रहेंगे और रूखी सूखी रोटी, फटा टूटा कपड़ा पहन कर किसी प्रकार के वेतन आदि की स्वप्न में भी इच्छा किये बिना, राष्ट्र में सद्ज्ञान की ज्योति के लिए अपने को तिल-तिल करके जलाने के लिये तैयार होंगे।

पिछले विशद् गायत्री महायज्ञ में 27 व्यक्तियों ने नरमेध-आत्मदान-किया था। वे सभी ऐसे थे जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं थीं, और किसी व्यापार सर्विस आदि की प्रलोभनमयी परिस्थितियों में नहीं थे। इस बार के दुस्साहस उनसे बढ़ चढ़ कर हैं। अच्छी आमदनी की सम्मान पूर्ण, निश्चित आजीविकाओं को लात मार कर अपना ही नहीं, अपने स्त्री बच्चों को भी साधु जीवन बिताने के लिये, अब की अपेक्षा अनेक गुना परिश्रम करने के लिए तत्पर होना सचमुच ही इस घोर स्वार्थपरता और खुदगर्जी के जमाने में बहुत कठिन है। पर यह असम्भव भी संभव होने जा रहा है। इन्हें देखकर परिवार के वे लोग जो बाल बच्चों की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो चुके हैं, पर माया मोह की फाँसी से छूट कर सार्वजनिक धर्म सेवा के लिये आगे कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते, अवश्य ही प्रेरणा प्राप्त करेंगे। ऐसे साधु बाबा जी जो काम से जी चुराने की मानसिक दुर्बलता के कारण लाल पीले कपड़े में अपनी काहिली को छिपाये इधर से उधर मटर गश्ती करते और रोटी हराम करते फिरते हैं, भी शर्म कर सकते हैं और धर्म की नाव पार करने में कुछ सहारा देने को तैयार हो सकते हैं।

आज ब्राह्मण परम्परा, ऋषि परम्परा का लोप होता जा रहा है। अपने चरित्र और ज्ञान द्वारा जन साधारण का मानसिक स्तर मानवीय गुणों से परिपूर्ण बनाने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठाए रहने वाले आत्मत्यागी साधु ब्राह्मण आज ढूँढ़े नहीं मिलते। भारत भूमि को देव भूमि बनाने की महान प्रक्रिया का एक मात्र आधार यहाँ की यही विशेषता थी। इस विशेषता का नष्ट हो जाना-भूसुरों का-सच्चे साधु ब्राह्मणों का-अभाव हो जाना हमारी महान आध्यात्मिक सम्पत्ति के नष्ट हो जाने का एक मात्र कारण है। इस अभाव की पूर्ति करने का दृढ़ संकल्प, गायत्री-परिवार के सुसंगठित रूप में उपस्थित हुआ है। लगता यही है कि युग की पुकार पर जैसे हजारों लाखों नर-नारी बौद्ध धर्म के भिक्षु भिक्षुणी बनकर भौतिकता और विलासिता के गर्त में डूबी हुई जनता को उबारने के लिए अपने सुख सौभाग्य को लात मार कर सेवा में संलग्न हुए थे, वैसी ही पुनरावृत्ति अब फिर होने जा रही है। राजनैतिक गुलामी के बन्धनों की बेड़ियाँ काटने के लिए यदि युग की पुकार हजारों लाखों व्यक्तियों को गोली, जेल और तबाही को गले लगाने के लिए प्रस्तुत कर सकती है तो कोई कारण नहीं कि मानवता, नैतिकता, आस्तिकता और साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए युग की पुकार सुनने वाले कुछ आत्म-दानी व्रतधारी आगे कदम बढ़ाने को तैयार न हों। यह युग-यात्रा आरम्भ हो चुकी है, कदम मिलाकर लोग बढ़ रहे हैं और आगे तीव्र गति से सहस्रों धर्म सेवक इस चतुरंगिणी सेना में सम्मिलित होकर रहेंगे। इस प्रकार भारत की अन्तरात्मा की पुकार प्राचीन काल जैसा ऋषि युग अवतरित करने की आकाँक्षा में परिणित होकर रहेगी। लगता है यह सपने साकार होने की घड़ी अब निकट ही आ पहुँची है।

गायत्री परिवार द्वारा लोक हित के, युग निर्माण के अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये जा रहे है। इसका परिचय गत अंक में ‘पूर्णाहुति के बाद’ लेख में दिया जा चुका है। साथ ही परिवार की अंतरंग गतिविधियों को अत्यन्त उच्चकोटि के आदर्शों से अभिप्रेत रखने की महत्वपूर्ण व्यवस्था बनाई गई है। इस संस्थान में दो तरह के सदस्य हैं - जो अभी नये ही भर्ती हुये हैं, उन्हें (1) उपासना और (2) स्वाध्याय का चस्का लगाया जा रहा है। वे उपासना और स्वाध्याय के आवश्यक धर्म कर्तव्यों को न छोड़ने पायें इसके लिये विशिष्ट सदस्य बार-बार प्रेरणा देते रहते हैं। दूसरी श्रेणी में वरिष्ठ सक्रिय सदस्य हैं। उनको अपनी नियमित (1) उपासना तथा (2) स्वाध्याय करने के अतिरिक्त जन-सेवा के दो कार्य भी करने होते हैं 1-ब्रह्मदान 2-धर्मफेरी। उनके मस्तिष्क में यह विचार गहराई तक जमाये जाते हैं कि प्रत्येक सच्चे धर्म सेवक का यह एक आवश्यक कर्तव्य है कि भले ही स्वयं एक रोटी खा भूखा सो जावे पर एक मुट्ठी अन्न या एक दो पैसा रोज संसार में सद्ज्ञान फैलाने के लिये—ज्ञान यज्ञ के लिये—दान अवश्य करे। दूसरी बात जो इन वरिष्ठ श्रेणी की अन्तरात्मा में जमाई जाती है वह यह है कि जिस प्रकार नित्य कुछ न कुछ दान ब्रह्मदान के लिये करना आवश्यक है उसी प्रकार थोड़ा बहुत समय भी धर्म प्रचार में लगाया जाना चाहिये। घर बैठे बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते रहने से, योजनाएं बनाते रहने से कुछ काम चलने वाला नहीं है। धर्म प्रचार के लिए परिश्रम की, प्रदक्षिणा की, धर्मफेरी की सच्ची तीर्थ यात्रा आवश्यक है। लोगों के घरों पर जाकर उन्हें धर्म प्रेरणा देने में जिसे शर्म, झिझक, हेठी, तौहीन का अनुभव नहीं होता वरन् प्रसन्नता अनुभव होती है। वही सच्चा धर्म सेवक है।

उपासना और स्वाध्याय के अतिरिक्त ब्रह्मदान और धर्मफेरी के कर्तव्य को भी पालन करने वाले वरिष्ठ सक्रिय धर्म सेवकों की अब एक विशेष श्रेणी बनाई जा रही है जो “उपाध्याय” के नाम से पुकारी जायगी। प्राचीन काल में धर्म शिक्षक लोग ही उपाध्याय कहलाते थे। “उपाध्याय” गोत्र इसी श्रेणी के लोगों का प्रतीक है। पर अब तो इस गोत्र वाले भी नाम मात्र के ही उपाध्याय हैं। धर्म प्रचार का कर्तव्य छोड़ बैठे। गायत्री परिवार की यह विशिष्ट श्रेणी सचमुच के ‘उपाध्याय’ के कर्तव्य पालन का व्रत धारण करेगी। हर उपाध्याय के घर पर उसका एक व्यक्तिगत ‘गायत्री ज्ञान मन्दिर’ होगा। इस छोटे से संस्थान का वह स्वयं ही संस्थापक संचालक, संरक्षक, प्रधान, मन्त्री तथा कार्यकर्ता होगा। उसका परम पवित्र कर्त्तव्य होगा कि अपने घर के इस देव मन्दिर के पास ज्ञान की—सत्साहित्य की—अधिकाधिक सम्पत्ति जमा करें। ज्ञान की देवी गायत्री को रेशमी वस्त्रों और सुनहरी आभूषणों से नहीं—सद्ग्रन्थों से, सत्साहित्य से सजाया जाता है। अपना ज्ञान मन्दिर इस दृष्टि से खूब सम्पत्तिवान् एवं सुसज्जित हो इसके लिये हर उपाध्याय अपना पेट काटकर भी कुछ त्याग निरन्तर करता रहेगा। काम इतने से ही पूरा न होगा वरन् उसे यह साहित्य पढ़ाने के लिये—इस ओर से उदासीन लोगों को चस्का लगाने के लिये—उनके घरों पर जाना पड़ेगा। खुशामद करके अपनी पुस्तकें लोगों को पढ़ने देने और उनसे वापिस लाने के लिये जाना होगा। इस कार्य के लिए कुछ समय लगाना—पैदल चलना—एक श्रेष्ठ धर्मफेरी तीर्थ यात्रा वह समझेगा।

इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान मन्दिर व्यक्तिगत एवं छोटा संस्थान होते हुये भी ज्ञान प्रसार का—धर्म प्रसार का—एक अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र होगा। इस ज्ञान दीप की किरणें अपने आस-पास के क्षेत्र में धार्मिकता का प्रकाश फैलाकर अनेक आत्माओं के अन्तस्तल में जीवन ज्योति प्रकाशित करने का ठोस काम करेंगी। उपाध्यायों और हजारों ज्ञान मन्दिरों के जलाये हुए ज्ञान दीप इस अमावस्या की अंधेरी रात में भी दीपावली की झिलमिल आभा पैदा करेंगे और कोटि-कोटि अन्तःकरणों में—’तमसो मा ज्योतिर्गमय,’ ‘असतोमा सद्गमय,’ ‘मृत्योर्मामृतंगमय’ की दिव्य किरणें बिखर पड़ेंगी।

तीसरी उच्च श्रेणी के आत्मदानी वे लोग होंगे, जो अपने आपको सर्वतोभावेन धर्म सेवा के लिए समर्पित कर देंगे, अपनी व्यक्तिगत वासना और तृष्णाओं को तिलाँजलि देकर शरीर और मन से हर घड़ी धर्म सेवा की बात ही सोचेंगे। व्यक्ति गत महत्वाकाँक्षा चाहे वह धन जमा करने की, विलास करने की हो या सूक्ष्म जगत में ऋद्धि सिद्धि की हो या कारण क्षेत्र में स्वर्ग मुक्ति की हो, तीनों को ही, वासनाओं और कामनाओं को छोड़कर गीता के अनासक्त कर्मयोगी की तरह धर्मसेवा के लिये अपने आपको भगवान के समर्पण करना होगा। ऐसे लोगों के जीवन निर्वाह की जिम्मेदारी जनता वहन करेगी—तपोभूमि उठायेगी।

गत कुछ वर्षों का संस्था को एक बड़ा कटु अनुभव है। वह यह कि कामचोर, हरामखोर, शारीरिक परिश्रम में अपना अपमान समझने वाले, विद्या पढ़ने और मानसिक श्रम से दूर भागने वाले, साथ ही अनुदारता संकीर्णता और जिम्मेदारी लापरवाही आदि दुर्गुणों से भरे हुये साधु बाबाजी प्रकृति के लोग आत्मदानी बनकर मुफ्त की रोटी तोड़ने के लिये आ घुसते हैं। रोटी खाने और समय काटने तक ही उनकी इच्छा नहीं रहती वरन् और भी अनेक प्रकार के नैतिक-अनैतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। इन लोगों को जब रोका जाता है या हटाया जाता है तो इतने दिन के प्राप्त हुए लाभों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके चुपचाप चले जाना तो दूर उलटे अपने मिशन की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाने को ही उतारू हो जाते हैं। ऐसे लोगों के सम्बन्ध में अब आगे बहुत सावधानी बरती जायगी। बहुत सोच समझ कर, बहुत ठोक बजाकर, ही किसी का आत्मदान स्वीकार किया जायगा। कठोर परख रखते हुये भी संस्था को सच्चे आत्मदानी मिलेंगे, भले ही वे थोड़े हों पर जो मिलेंगे वे सच्चे मिलेंगे और ठोस काम करेंगे। इस उच्च श्रेणी के सदस्यों की आज बड़ी कमी है। माता इसे भी पूरा करेगी। जब इतनी कमियाँ पूरी हो गई, होती जा रही हैं तो गायत्री संस्था आत्म दानियों की प्यास के कारण तृषातुर न मरने पावेगी। कोई देवता अपना जीवन अमृत टपका कर युग की इस प्यास को भी तृप्त करने के लिए निकल ही आवेंगे। युग निर्माण की खेती को उपजाने के लिए अपने आपको गला देने के लिए तत्पर आत्मदानियों का बीज चाहिए। इस बीज के बिना यह ऋषि भूमि ऊसर ही पड़ी रहे ऐसी बात नहीं है। दधीचि की आत्मा कहीं आकाश में घूम रही होगी तो किन्हीं जागृत आत्माओं में अपनी प्रेरणा अवश्य भर देगी। 56 लाख स्वर्ग मुक्ति के ठेकेदार भिखमंगों में से भी 56 व्यक्ति धर्म सेवा के लिए निकल सकने की आशा की जा सकती है।

राष्ट्र के अन्तरात्मा का कायाकल्प करना जितना आवश्यक है, उतना कठिन भी है। इससे निहित स्वार्थों को चोट पहुँचती है। जिनकी अनैतिक, अनुचित स्वार्थपरता को चोट पहुँचती है, वे तिलमिलाते हैं और इस महा अभियान को जैसे भी बने वैसे नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। अब कानूनी स्थिति, राजसत्ता का विकास ऐसा हो गया है कि प्राचीन काल के असुरों की तरह अपने बाहुबल के आधार पर किसी का शिर काट लेना तो सरल नहीं रहा है पर दूसरे हथियार उनके लिए मौजूद हैं। वे हैं जनता में मतिभ्रम पैदा करके उस आन्दोलन या संस्था के प्रति लोगों में अश्रद्धा या असहयोग के भाव पैदा कर देना। इस हथियार से किसी भी श्रेष्ठ आन्दोलन को बिना तलवार के भी आसानी से मारा जा सकता है। निहित स्वार्थ वाले लोग इस प्रकार के हथियार इस संस्था के जन्म काल से ही चलाते रहे हैं। पर प्रसन्नता इतनी ही है कि परिवार के हर सदस्य ने यह समझ लिया है कि नैतिक और धार्मिक क्राँति करने वालों को, युग निर्माण की महान् प्रक्रिया पूर्ण करने वालों को, ऐसे विरोधों, और लाँछनों को आघातों को सहना ही होगा। अब यह संगठन इस स्वाभाविक प्रतिक्रिया को समझ गया है और विरोधियों के बुरे से बुरे दुष्प्रचार को विफल कर देने लायक अपना मनोबल संग्रह कर चुका है। जैसे जैसे हमारा अभियान बढ़ेगा वैसे ही वैसे निहित स्वार्थों का विरोध भी तीव्र होगा। इस आँधी तूफान से यह नन्हा-सा आन्दोलन भूमिसात् न हो जाय इसके लिए अन्य प्रयत्नों के साथ हमें इस ओर भी पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा।

गायत्री-परिवार तपस्वी सच्चरित्र, सेवाभावी, आस्तिक, एवं धर्मव्रती लोगों का एक उच्चकोटि का संगठन बनने जा रहा है। सम्मिलित परिवार के रूप में गायत्री-परिवार के सदस्य लोग मिल जुल कर कौटुम्बिक सहकारी समिति जैसे आधार पर बड़े पैमाने पर सम्मिलित आजीविका, सम्मिलित कृषि, सम्मिलित उद्योग धंधे, सम्मिलित विशाल भोजनशाला, सम्मिलित निवास नगर बनाने की, सम्मिलित खेल कूद मनोरंजन, उपासना, हवन, कीर्तन विचार विनिमय, श्रमदान आदि कार्यों की, अपने बच्चों को जीवनोपयोगी शिक्षा देने की, अपने विचार के लोगों में विवाह शादी करने की, योजनाएं बनाई जा रही हैं। हममें से कोई व्यक्ति अपने पीछे अनाथ परिवार छोड़ जाय तो उसके परिवार के भरण पोषण की सम्मिलित जिम्मेदारियाँ रखने का विचार किया जा रहा है। इन आदर्शों और उद्देश्यों पर अनेकों गायत्री-नगर ऋषि-नगर, स्थान-स्थान पर बसें इसकी तैयारियाँ हो रही हैं। यह कार्यक्रम जैसे-2 आगे बढ़ेगा वैसे-2 जन साधारण को एक नया प्रकाश, एक नई प्रेरणा, एक नया वातावरण प्राप्त होगा और उससे प्रभावित होकर लोग अपने व्यक्ति गत जीवन को मानवता के श्रेष्ठ आदर्श से परिपूर्ण बनाने की ओर, आत्म संयम और लोकहित की ओर अग्रसर करेंगे।

युग निर्माण का कार्य कठिन है, पर गायत्री परिवार द्वारा जिस प्रचण्ड शक्ति का उद्भव हो रहा है वह भी दुर्धर्ष है। कठिन कार्य भी मनुष्य ही करते हैं। ऐसे मनुष्य जो कठिन कार्य कर सकें उत्पन्न करना इस संस्था का उद्देश्य है। जिस सर्वशक्तिमान शक्ति की प्रेरणा से यह महान कार्य आरम्भ हुआ है वही इसे सफल भी बनावेंगी यह निश्चित है। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान एक ऐतिहासिक आयोजन है। यह देवपूजा की उपासनात्मक प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं है वरन् इसके द्वारा युग निर्माण का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया जाता है। प्रश्न केवल हमारी पात्रता का है। सत्पात्र ही ईश्वरीय अनुग्रह के सफलता के अधिकारी होते हैं। हम सब अपनी पात्रता बढ़ाने की प्रतिज्ञा करके इस महायज्ञ की पूर्णाहुति में सम्मिलित होने आवें तभी इस यज्ञ की और याज्ञिकों के व्रत की सच्ची सार्थकता है।


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