सामाजिक न्याय की स्थापना और हमारा भविष्य

October 1958

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(श्री सत्यभक्त)

वर्तमान समय में संसार के अधिकाँश देशों में पूँजीपतियों की प्रधानता है। वह राजनैतिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से राष्ट्र का कर्ता-धर्ता बना हुआ है। संभव है कि भारत का औद्योगिक विकास चरम सीमा तक न पहुँच सकने के कारण हम इस तथ्य की सचाई को अनुभव न कर सकते हों, पर संसार के आधुनिक राष्ट्रों, जैसे इंग्लैंड, अमरीका, जर्मनी, जापान, फ्राँस, इटली आदि में थोड़े बहुत अन्तर के साथ यही अवस्था देखने में आ रही है। इन सब देशों में पूँजीपति वर्ग उद्योग-धंधों का संचालन भी करता है और राष्ट्र पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में शासन भी करता है। अपनी आर्थिक शक्ति द्वारा पूँजीपति राष्ट्र की व्यवस्थापक और कार्यकारिणी सभाओं के सदस्यों को कर्तव्यच्युत कर देते हैं, न्यायालयों में अपनी इच्छानुसार जज नियुक्त कराते हैं, परिषदों और कमेटियों पर प्रभाव डालते हैं और शासन कर्त्ताओं को मनोनीत करते हैं। और इन सबसे बढ़कर उल्लेखनीय बात यह कि वे देश के समाचारपत्रों पर भी अधिकार रखते हैं और उनके द्वारा लोगों के दिमागों में विकृत विचार भर कर उनको प्रचलित प्रणाली का अनुयायी बना लेते हैं। दूसरी ओर व्यावसायिक क्षेत्र में वे श्रमजीवियों को इसलिए दबाकर रख सकते हैं चूँकि वे शासन पर अधिकार रखते हैं, अपने हित के अनुकूल कानूनों को पास कराते हैं और अपने पक्ष के समर्थन के लिये उनकी वैसी ही व्याख्या कराते हैं।

इन सभी राष्ट्रों की सरकारों पर एक श्रेणी विशेष का अधिकार रहता है। यह आवश्यक नहीं कि पूँजीपति स्वयं शासन और व्यवस्थापक सभाओं के सदस्य बनें। वे अपने पक्ष का समर्थन करने वाले राजनीतिज्ञों को ही शासन सभा में भिजवाते हैं और अगर थोड़े बहुत अन्य विचारों के लोग भी चुन लिये गये तो तरह-तरह के आर्थिक दबाव से उनको भी अपने अनुकूल बना लेते हैं। इन्हीं शासन सभाओं की सहायता से पूँजीपति श्रमजीवियों द्वारा उत्पन्न की हुई अरबों-खरबों की सम्पत्ति को हड़प लेते हैं। राजकीय कानून इस भयंकर लूट को न्यायानुसार बतलाते हैं। इसके विपरीत पूँजीपतियों की जायदाद की रक्षा के लिये कोने-कोने में सिपाही खड़ा रहता है। अगर कोई श्रमजीवी जबर्दस्ती या चुरा कर इस अपहरण की हुई सम्पत्ति का एक बहुत छोटा-सा अंश भी लेने की चेष्टा करे तो उसे अपराधी कहा जाता है, उसका पशुओं की भाँति पीछा किया जाता है और उसे पकड़ कर सींखचों के भीतर डाल दिया जाता है।

इससे प्रकट होता है कि जो श्रेणी समाज में प्रधान होगी वह अवश्य ही राष्ट्र के शासन यंत्र पर अपना अधिकार जमायेगी। अगर शासन-सत्ता उसके हाथ से निकल जायगी तो उसका प्रधानत्व भी नष्ट हो जायगा। प्राचीन काल में भी प्रत्येक स्वामी-वर्ग राष्ट्र के शासन को अपने अधिकार में रखकर ही समाज में प्रधान पद प्राप्त कर सका था और उस पद की रक्षा कर सका था। प्रत्येक उठता हुआ क्राँतिकारी वर्ग शासन यंत्र पर अधिकार करके ही पुरानी प्रधान श्रेणी को छिन्न-भिन्न कर सकता है। पूँजीपति वर्ग ने मध्य कालीन सामन्त वर्ग (राजा और जागीरदार आदि) की सत्ता को नष्ट करने के लिये पहले सशस्त्र विद्रोह करके शासन यंत्र पर ही अधिकार किया था।

इसलिए वर्तमान समय का क्राँतिवादी दल भी पूँजीपतियों के हाथ से सत्ता लेकर ही उन पर विजय प्राप्त कर सकता है। प्राचीन काल के क्राँतिकारियों के सम्मुख शासन सत्ता पर अधिकार करने का एक ही तरीका था अर्थात् अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध करना। पर वर्तमान समय का क्राँतिवादी ‘वोट’ द्वारा भी बहुत कुछ सफलता प्राप्त कर सकता है।

पर यह ‘वोट’ का मार्ग पूरी तरह कारगर नहीं माना जा सकता। पूँजीपति अपनी अपार सम्पत्ति के प्रभाव से ‘वोट-प्रथा’ का बहुत कुछ दुरुपयोग कर सकते हैं और करते हैं। वे बहुसंख्यक श्रमजीवियों को ‘वोट’ के अधिकार से ही वंचित करा देते हैं और जो विरोधी पक्ष वाले चुन लिये जायें उन पर मुकदमे चलाकर और तरह-तरह की जालसाजी करके उनको सदस्यता से खारिज करा सकते हैं। इसी प्रकार अनेक तरह के छल-बल से वे शासन सभाओं में अन्यायपूर्वक अपना बहुमत बनाने में समर्थ हो जाते हैं।

इसलिए, श्रमजीवियों की सफलता का मार्ग दूसरा ही है। ये यह तो जानते ही हैं कि शासन-यंत्र पर पूँजीपतियों का अधिकार इसलिए है कि वे आर्थिक दृष्टि से सबसे अधिक शक्तिशाली हैं। इसलिए श्रमजीवी उनको शासन में से हटाना चाहें तो यह तभी संभव होगा जब कि वे आर्थिक दृष्टि से पूँजीपतियों से अधिक शक्ति शाली बन जायें। श्रमजीवी यह भी जानते हैं कि पूँजीपति जो धन कमाते हैं वह मजदूरों को नौकर रखकर ही प्राप्त करते हैं। इसलिए अगर श्रमजीवी अपने को ऐसा संगठित कर लें कि जब चाहे एक साथ पूँजीपतियों का काम बन्द करके उनकी अर्थव्यवस्था को पंगु कर दें तो वे अवश्य ही उनको हरा सकते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसी स्थिति आने पर पूँजीपति अपनी सेना की शक्ति से श्रमजीवियों को दबाकर अपनी शासन-सत्ता स्थिर रख सकेंगे। आजकल के अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति को देखते हुये यह असम्भव तो नहीं है, तो भी सरकार के पास इतने सिपाही होना कठिन है जो प्रत्येक फैक्टरी और कारखाने में मौजूद रह कर मजदूरों को काम करने को विवश कर सकें। फिर ऐसा होने से सेना चारों तरफ बिखर जायगी। और उसकी संगठन शक्ति अधिकाँश में खत्म हो जायगी। इस दृष्टि से पूर्ण रूप से संगठित श्रमजीवी वर्ग व्यावसायिक और राजनीतिक क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित कर सके यह असम्भव नहीं है।

जब सेना की शक्ति का इस प्रकार अन्त हो जायगा अथवा वह स्वयं श्रमजीवियों का ही पक्ष ग्रहण कर लेगी तब श्रमजीवियों के चुने हुये प्रतिनिधि शासन-सत्ता की बागडोर अपने हाथ में सँभाल लेंगे और नई औद्योगिक सरकार का कार्य-संचालन करने लगेंगे। पर इस प्रकार के शासन की आवश्यकता भी थोड़े ही समय के लिये होगी। क्योंकि यदि कोई बाहरी शक्ति विघ्न उपस्थित न करे तो कुछ ही वर्षों में समाज स्वयं नवीन उत्पादन प्रणाली के अनुसार चलने लगेगा और सब प्रकार की पैदावार पूँजीपतियों का भण्डार भरने के बजाय समस्त काम करने वाली जनता के उपयोग में आने लगेगी।

पर यह तस्वीर का एक ही पहलू है। मजदूरों के दबाव को कम करने के लिये पूँजीपति स्वयं चालित (ऑटोमेटिक) मशीनों की वृद्धि कर रहे हैं, जिससे थोड़े ही कार्य-कुशल व्यक्ति कारखाने में सामग्री बना सकें। पर समस्या इतने से ही हल नहीं हो सकती। सामान बन जाने पर सबसे बड़ा प्रश्न यह होगा कि उस माल को कहाँ बेचा जाय? पूँजीवादी प्रणाली के अनुसार कारखाने के स्वामी को जो लाभ होता है उसे वह कारखाने को बड़ा करने अथवा किसी अन्य स्थान में, जहाँ आवश्यकता जान पड़े, नया कारखाना खोलने में लगाता है। ऐसा करने से उसका नफा और बढ़ जाता है। अंत में स्वभावतः ऐसा समय आता है कि जब बनने वाले माल का परिमाण इतना बढ़ जाता है कि उसका कहीं पर खप सकना असम्भव होता है। ऐसी परिस्थिति आ जाने पर दो ही मार्ग रह जाते हैं। या तो अतिरिक्त माल को एक बड़ी सेना से रख कर खर्च कर दिया जाय और उसी सेना से क्राँतिकारी श्रमजीवियों को भी दबाकर रखा जाय। अथवा ऐसी सामाजिक प्रणाली की स्थापना की जाय जिसमें समस्त सामग्री को उसे उत्पन्न करने वाले श्रमजीवी ही खर्च कर डालें। इसमें सन्देह नहीं कि संसार के अब तक के विकास-क्रम को देखते हुये यह निश्चय जान पड़ता है कि पूँजीवाद के बाद समाज में श्रमजीवियों की ही प्रधानता और नियंत्रण होगा, पर इस समय जो परिस्थिति हमारे सामने उपस्थिति है उससे यह भी निस्सन्देह है कि पूँजीपति वर्ग शीघ्र ही या सहज में अपने स्थान को न छोड़ेगा। यह भी हो सकता है इस संघर्ष में संसार नाश के किनारे पहुँच जाय और उसके बाद नई दुनिया की रचना हो, जिसमें न पूँजीपति बचें न श्रमजीवी, वरन् समाज स्वयं ही सबके अधिकारों का ध्यान रख कर सामाजिक-न्याय का युग ले आवे।


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