धर्म के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता

October 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(स्वामी विवेकानन्दजी)

जिस संसार का अनुभव हम अपनी इन्द्रियों द्वारा करते हैं और जिसका बोध हमको युक्ति और बुद्धि के बल से भी होता है, उसके अतिरिक्त यह समस्त विश्व मनुष्य के लिए अनन्त, अज्ञेय और चिर अज्ञात है। इसलिए जो कुछ ज्ञान हमको धर्म के नाम से प्राप्त है उसका तत्व इस जगत में ही ढूँढ़ना होता है। जिन सब विषयों पर विचार करने से धर्म लाभ होता है, वे सब इस जगत की ही घटनाएं हैं। किन्तु धर्म स्वरूपतः अतीन्द्रिय अर्थात् आँख, कान आदि इन्द्रियों से अगोचर भूमि की वस्तु है। धर्म सब प्रकार की युक्तियों से भी बाहर है, इसलिए वह बुद्धि के अधिकार की वस्तु भी नहीं हो सकती। धर्म दिव्य दर्शन स्वरूप है। वह मनुष्य के मन में ईश्वरीय अलौकिक प्रभाव स्वरूप है। धर्म के द्वारा ही हमको अक्षय का ज्ञान होता है। हमारा विश्वास है कि मनुष्य समाज के आरम्भ से ही मनुष्य के मन में इस धर्म-तत्व की ढूँढ़-खोज चल रही है। जगत के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं आया, जब मनुष्य की युक्ति और मनुष्य की बुद्धि ने इस जगत के पार की वस्तु के लिए अनुसन्धान न किया हो—उसके लिए प्राणपण से यत्न न किया हो।

हमारे छोटे से ब्रह्माण्ड में—इस मनुष्य के मन में—हम देख पाते हैं कि एक विचार पैदा हुआ। वह विचार कहाँ से उत्पन्न हुआ, यह हम नहीं जानते और जब वह लुप्त हुआ, तब वह कहाँ गया यह भी हम नहीं जानते। बहिर्जगत और अंतर्जगत मानो एक ही मार्ग पर चल रहे हैं। एक प्रकार की अवस्था के भीतर से दोनों को ही मानो चलना पड़ रहा है, दोनों ही मानो एक ही सुर में बज रहे हैं।

धर्म मनुष्य के भीतर से ही उत्पन्न होता है, वह बाहर की किसी वस्तु से उत्पन्न नहीं होता। हमारा विश्वास है कि धर्म की चिन्ता मनुष्य में प्राकृतिक है, वह मनुष्य के स्वभाव के साथ इस प्रकार मिली हुई है कि जब तक मनुष्य देह, मन को त्याग नहीं देता तब तक वह चिन्ता से भी मुक्त नहीं हो सकता और तब तक उसके लिए धर्म-त्याग असम्भव है। जितने दिन मनुष्य में विचार-शक्ति रहेगी, उतने दिन यह यत्न भी चलेगा और उतने दिन किसी न किसी आकार में वह स्थिर रहेगा ही। इसीलिए हमें जगत में नाना प्रकार के धर्म दिखाई देते हैं। यह सत्य है धर्म की आलोचना करते समय हम अनेक बार भ्रम में पड़ जाते हैं, पर जैसे कुछ लोग इसे एक कल्पनामात्र कहते हैं, वह कथन ठीक नहीं है। धर्म के विभिन्न दिखलाई पड़ने वाले स्वरूपों के भीतर भी एक सामञ्जस्य पाया जाता है।

वर्तमान समय का सबसे प्रधान प्रश्न यह है कि यदि अज्ञेय अज्ञात की बात को ठीक भी मान लिया जाय तो भी उसका तत्व जानने की आवश्यकता ही क्या है? हम जो कुछ जान रहे हैं-देख रहे हैं, उसी से संतुष्ट क्यों न रहें? अगर हम खाना, पीना, सोना ही करें और साथ ही समाज के कल्याण का कुछ कार्य करते रहें और अज्ञात और अज्ञेय को यों ही छोड़ दें, तो इसमें क्या हर्ज है? इस प्रकार का मनोभाव आज सर्वत्र देखने में आता है। बड़े-बड़े विश्व विद्यालयों के आचार्यों से लेकर बिना सिर-पैर की बात करने वाले लड़कों तक के मुँह से ऐसी बातें जानने में आती हैं। जगत का उपकार करो यही धर्म है—जगत से अतीत—जगत से बाहर की सत्ता की समस्या को लेकर अस्थिर होने से कोई लाभ नहीं। यह विचार आजकल इतना अधिक प्रबल हो गया है कि लोगों ने इसे स्वतःसिद्ध सत्य मान लिया है।

पर हम उस जगदतीत सत्ता के विरुद्ध कितना भी विरक्तता का भाव प्रकट क्यों न करें उसके तत्व का अनुसन्धान किए बिना हमारा अस्तित्व ही नहीं रह सकता, हम जीवित भी नहीं रह सकते। इसका कारण यह है कि वर्तमान में जो जगत हमको दिखाई पड़ रहा है वह व्यक्त-जगत उसी अव्यक्त का एक अंश मात्र है। यह पंचेन्द्रिय के द्वारा अनुभूत जगत मानो उसी अनन्त आध्यात्मिक जगत का एक क्षुद्र अंश स्वरूप है, जो हमारी इन्द्रिय अनुभूति की भूमि पर आ पड़ा है। इसलिए उस अतीत जगत को बिना जाने किस प्रकार उसके इस क्षुद्र अंश की व्याख्या हो सकती है, इसे जाना जा सकता है-समझा जा सकता है? कहा जाता है कि सुकरात एक दिन एथेन्स में वक्तृता दे रहे थे, ऐसे समय उनसे एक ब्राह्मण की भेंट हुई, जो भारत से यूनान में पहुँच गए थे। सुकरात ने कहा—”मनुष्य को जानना ही मनुष्य जाति का सर्वोच्च कर्त्तव्य है—मनुष्य ही मनुष्य के लिए सर्वोच्च आलोचना की, विचार करने की वस्तु है।” यह सुनकर ब्राह्मण ने तुरन्त उत्तर दिया-”ईश्वर को जब तक आप नहीं जान लेते हैं, तब तक मनुष्य को किस प्रकार जान सकते हैं?” यही ईश्वर अथवा अनन्त अज्ञात तत्व ही सब प्रकार की समस्याओं का एकमात्र व्याख्या स्वरूप है। चाहे जिस वस्तु की बात लीजिए-सम्पूर्ण भौतिक जगत की बात लीजिए-अथवा भौतिक विषयों में रसायन, पदार्थ विद्या, गणित-ज्योतिष या प्राणी तत्व विद्या की बात लीजिए-उसकी विशेष रूप से आलोचना कीजिए तो आप क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म, अति सूक्ष्म पदार्थों की तरफ अग्रसर होते जायेंगे और अन्त में आप ऐसे स्थान में पहुँचेंगे जहाँ इन भौतिक—जड़ पदार्थों को छोड़कर अभौतिक या अजड़ में आना पड़ेगा। सभी विद्याओं में स्थूल क्रमशः सूक्ष्म में मिल जाता है, विज्ञान की खोज दर्शन-शास्त्र में परिवर्तित हो जाती है।

इस प्रकार मनुष्य को विवश होकर जगदतीत सत्ता की आलोचना में उतरना होता है। यदि हम उसे जान न पायें तो जीवन मरुभूमि बन जायगा, मानव-जीवन वृथा होगा। यह बात केवल कहने में ही अच्छी लगती है कि वर्तमान में जो देख रहे हो वह सब लेकर ही तृप्त रहो। गाय, कुत्ते और अन्यान्य पशुगण इसी प्रकार वर्तमान के द्वारा ही संतुष्ट रहते हैं और इसी कारण वे पशु बने हैं। इसलिए यदि मनुष्य भी केवल वर्तमान (सामने दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं)को लेकर ही संतुष्ट रहे और जगदतीत सत्ता का अनुसन्धान करना एक दम छोड़ दे, तो मानव-जाति को फिर से पशु की भूमि में—पशु की स्थिति में आना होगा। धर्म-जगदतीत सत्ता का अनुसन्धान ही—मनुष्य और पशु में अन्तर पैदा करता है।

धर्म बढ़िया खाने पीने में अथवा सुन्दर घरों में रहने में नहीं है। आप अनेक लोगों को यह कहते सुनेंगे—”धर्म के द्वारा क्या उपकार हो सकता है? वह क्या गरीब और भूखे का पेट भर सकता है?” मान लीजिए धर्म किसी की गरीबी या दरिद्रता दूर नहीं कर सकता, तो क्या वह इसी से असत्य सिद्ध हो गया? मान लीजिये आप गणित-ज्योतिष शास्त्र के किसी बड़े सिद्धान्त को प्रमाणित करने का यत्न कर रहे हैं कि एक बालक उसे सुनकर प्रश्न करता है—”इससे क्या मिठाई मिलती है?” आपने उत्तर दिया कि “नहीं, इससे मिठाई नहीं मिलती।” तब बालक कह उठा—”तो यह सिद्धान्त किसी काम का नहीं।” बालक अपनी दृष्टि से—अर्थात् किस वस्तु से कितनी मिठाई मिलती है—इस हिसाब से ही समस्त जगत का निर्णय कर लेते हैं। जो लोग अज्ञान से घिरे होने के कारण बालकों की तरह हैं, उनका विचार भी जगत के सम्बन्ध में बालकों जैसा ही होता है। पर एक छोटी वस्तु की दृष्टि से बड़ी वस्तु का विचार करना कदापि उचित नहीं होता। प्रत्येक विषय का विचार उसकी गुरुता के हिसाब से करना पड़ेगा। अनन्त का विचार अनन्त की गुरुता के हिसाब से करना होगा। धर्म मानव-जीवन का सर्वांश है, केवल वर्तमान नहीं, वह भूत, भविष्यत्, वर्तमान अर्थात् सर्वव्यापी है। अतएव क्षणिक मानव-जीवन के सम्बन्ध में उसके कार्य को देखकर उसका मूल्य स्थिर करना, उसका निर्णय कर देना कदापि न्याय-संगत नहीं है।

अब प्रश्न होता है कि क्या धर्म के द्वारा वास्तव में कोई फल होता है? हाँ होता है, उससे मनुष्य अनन्त जीवन प्राप्त करता है। मनुष्य जो कुछ वर्तमान में है, वह इस धर्म की ही शक्ति से हुआ है और उससे ही वह मनुष्य से देवता बनेगा। धर्म यही करने में समर्थ है। मानव-समाज से धर्म को हटा दीजिए। फिर क्या शेष बचेगा? ऐसा होने पर संसार हिंसक जन्तुओं से घिरा एक घोर जंगल बन जायगा (जैसा आजकल स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा है।) इन्द्रिय-सुख, मनुष्य-जीवन का लक्ष्य नहीं है, ज्ञान ही सब प्राणियों का लक्ष्य है। हम देखते हैं कि पशु इन्द्रिय-सुख में जितनी प्रीति, सुख अनुभव करते हैं, मनुष्य अपनी बुद्धि-शक्ति की परिचालना में उसकी अपेक्षा कहीं अधिक उच्चकोटि का सुख अनुभव कर लेता है और हम यह भी देख सकते हैं, कि बुद्धि और विचार-शक्ति की परिचालना की अपेक्षा भी मनुष्य आध्यात्मिक विषयों से और भी गम्भीर सुख बोध कर लेता है। इसलिए अध्यात्मज्ञान को निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान कहना होगा। यह ज्ञान लाभ होने से ही साथ-साथ आनन्द भी प्राप्त होगा। इस जगत की सब वस्तुएं उस प्रकृत ज्ञान और आनन्द की छाया मात्र हैं—उससे तीन-चार दर्जे नीचे की चीजें हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118