साँस्कृतिक पुनरुत्थान की तीर्थ यात्रा

October 1958

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इस मार्ग में बढ़ाया हुआ प्रत्येक कदम पुण्य का होगा।

किसी राष्ट्र में उसके जन समाज का नागरिकों का मानसिक स्तर उच्च आदर्शों से प्रेरित हो, यही उसके महान् होने का एक मात्र चिन्ह है। जहाँ के लोग पतित मनोवृत्ति के होते हैं वहाँ घर-घर में दुष्कर्मों की घटनाएं घटती हैं, जन-जन का मन अनैतिकता के आकर्षक प्रलोभनों में फँसता है और बुराइयों की, पापों की, अनाचारों की वहाँ बाढ़ आ जाती है। व्यक्तियों के व्यक्तिगत विचारों और कार्यों का नाम ही राष्ट्रीय चरित्र है। जहाँ बुराइयाँ बढ़ती हैं, बुरे लोग बढ़ते हैं उस राष्ट्र का इतिहास कलंकित हो जाता है। जहाँ सच्चरित्र, परोपकारी, आदर्शवादी व्यक्ति बढ़ते हैं, वहाँ उन महापुरुषों जैसे श्रेष्ठ कार्यों की शृंखला बन जाती है और उसी आधार पर कोई देश संसार में अपना मस्तक ऊँचा करने की स्थिति प्राप्त करता है।

भारतवर्ष सदा से विश्व का मुकुटमणि, एवं जगद्गुरु, विश्व नेता रहा है। इसका कारण वहाँ की आर्थिक समृद्धि, शारीरिक शक्ति , सशस्त्र सेना, विद्या बुद्धि एवं वैज्ञानिक उन्नति नहीं-वरन् “आदर्शवादिता” ही रही है। उच्च आदर्शों से रहित समाज चाहे वह भौतिक उन्नति के कितने ही ऊंचे शिखर पर पहुँच जाय, कितनी ही सुविधा सामग्री जुटाले फिर भी वह न तो प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है न किसी को प्रकाश दे सकता है, न आन्तरिक सुख शाँति कायम रख सकता है। महानता और आदर्शवादिता एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। जहाँ की जनता का मानसिक स्तर उच्च आदर्शों से अनुप्रेरित रहेगा वहाँ ही महानता के उदाहरण उपस्थित करने वाली घटनाएं तथा परिस्थितियाँ निरन्तर दृष्टिगोचर होती रहेंगी।

भारत किसी जमाने में देव भूमि कहलाती थी। यहाँ के 33 करोड़ निवासी, तैंतीस कोटि देवता के नाम से संसार में प्रसिद्ध थे और पूजा सम्मान प्राप्त करते थे। भूसुरों की, पृथ्वी के देवताओं की उद्गम स्थली यह भारत भूमि ही थी। समय के कुचक्र ने हमें कहाँ से कहाँ ला पटका। आज तो देव कर्मी भूसुरों, ब्राह्मणों आदर्शवादियों के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं। चारों ओर हीन विचारों और घटिया कार्यों के गंदे उदाहरण ही देखने को मिल रहे हैं।

इस विपन्न स्थिति को बदलने-ऋषि युग को, देव काल को पुनः वापिस लाने के लिए जो प्रयत्न चल रहे हैं, उनमें अखण्ड ज्योति परिवार को आगे बढ़ कर हिस्सा लेना है। युग युगान्तरों से संचित देवता और ऋषियों की थाती आदर्शवादिता को मटियामेट होने से बचाने के लिए हमें कुछ त्याग और बलिदान करना पड़े तो उसके लिए भी तैयार रहना होगा। युग निर्माण की इस महत्वपूर्ण घड़ी में अखण्ड ज्योति परिवार निष्क्रिय दर्शक की तरह बैठा नहीं रह सकता।

राष्ट्र के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए—सबसे पहला जो कार्य करना है वह लोगों की भावनाओं, मान्यताओं, विश्वासों, आकाँक्षाओं को बदलना है। जब तक मनुष्य का आन्तरिक स्तल घटिया किस्म के हीन विचारों से भरा रहेगा, जब तक लोगों की इच्छाएं ऐश करने या धनी बनने तक सीमित रहेंगी तब तक उनके मस्तिष्क तथा शरीर के कल-पुर्जे उन कार्यों को करने में सर्वथा असमर्थ रहेंगे जिन्हें किये बिना महा पुरुष बनना संभव नहीं हो सकता। जो कुछ भी भले बुरे कार्य मनुष्य करता है, उसके अन्तस्तल में जमी हुई भावनाएं ही होती हैं, उन्हीं की प्रेरणा से जीवन का कार्य तंत्र संचलित होता है। इसलिए यदि हम अपने समाज को धर्म और कर्तव्यों का, सद्विचारों और सत्कर्मों का, सुख और शाँति का केन्द्र देखना चाहते हैं तो हमें मनुष्य के अन्तस्तल में जमी हुई मान्यताओं और आकाँक्षाओं में हेरफेर करना होगा। इसके अतिरिक्त युग निर्माण का और कोई मार्ग नहीं है।

बुराइयों को रोकने के लिये कानूनों से, प्रस्तावों से, विरोधों से तभी कुछ सफलता मिलने की आशा की जा सकती है, जब लोगों में इन का महत्व समझने की श्रद्धा उत्पन्न की जाय। यदि मनुष्य बेशर्म, उद्दंड और स्वेच्छाचारी हो जाय तो कानूनों की, विरोधों की परवा न करके भी अपना दुराचार जारी रखने का कोई मार्ग आसानी से निकाल सकता है। बुराइयों से बचने और अच्छाइयों को अपनाने का मर्म स्थल एक ही है—’आन्तरिक सद्भावना’ इसी को आस्तिकता, धार्मिकता, मानवता, नैतिकता या आदर्शवादिता के नाम से पुकारते हैं। युग निर्माण के लिए हमें इसी तत्व को विकसित करना होगा।

गत अंक में (1)आप भी इस ज्ञान यज्ञ में सम्मिलित हूजिए (2)धर्म प्रचार—सर्वश्रेष्ठ पुण्य कार्य है (3)ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्मभोज, शीर्षक तीन लेखों में यह बताया जा चुका है कि सद्भावना प्रसार के महा अभियान को किस प्रकार देशव्यापी बनाया जायगा, किस प्रकार उसे जन आन्दोलन का रूप दिया जायगा। उस योजना के मूल में एक ही तथ्य है कि हममें से प्रत्येक को अपनी परिस्थितियों और सीमाओं में गुजारा करते हुए भी धर्मप्रचार के लिए कुछ समय, श्रम और सहयोग देने के लिए तत्पर होना चाहिए।

हमारे घरों में ‘गायत्री ज्ञान-मन्दिर’ स्थापित होने चाहिएं। अज्ञान और दुर्भाव के असुरों से लड़ने के लिए यह ज्ञान-मन्दिर ही हमारे किले एवं मोर्चे हो सकते हैं। यह मोर्चा हर घर में खड़ा किया जाना चाहिए। यह आर्थिक दृष्टि से कोई इतना कठिन कार्य नहीं है जिसे गरीब से गरीब आदमी भी न कर सके। एक मुट्ठी अन्न या एक दो पैसा रोज, ज्ञान यज्ञ के लिए, ब्रह्मदान के लिए खर्च करते रहना किसी भी सद् गृहस्थ के लिए कोई असहनीय बोझ नहीं है। इतनी हानि तो घर के चूहे रोज कर देते हैं। घर में गायत्री माता का चित्र एक सुन्दर चौकी पर सुसज्जित रूप से स्थापित करके वहाँ घर के लोगों को नित्य थोड़ी बहुत गायत्री उपासना की आदत डालना भले ही एक छोटा कार्य लगे, पर इसका प्रभाव घर के वातावरण पर पड़ कर रहेगा। परिवार के सदस्यों की मनोभूमि को सुसंस्कारी बनाने के लिए यह एक ठोस मनोवैज्ञानिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक उपचार है। जिन घरों में इस बहाने कुछ पूजा प्रक्रिया चल पड़ेगी वहाँ विश्वासपूर्वक समझिए, धार्मिक और नैतिक वातावरण की अवश्य ही वृद्धि होगी। यह उपासना क्रम जहाँ चल पड़ेगा वहाँ इस कार्य के लिए घिरा हुआ स्थान या लगाया हुआ समय कभी भी निष्फल या घाटे का कार्य सिद्ध न होगा। इस तथ्य पर यदि विश्वास न हो तो कुछ दिनों प्रयोग या परीक्षण के रूप में यह क्रम चला कर देखा जा सकता है। यह व्यर्थ सिद्ध हो तो पूजा की चौकी उठा कर रख देने में कोई बड़ा जोखिम नहीं है।

जहाँ यह पूजा गृह स्थापित हों वहाँ भगवान को भोग प्रसाद लगाने के रूप में इस गायत्री ज्ञान-मन्दिर को चलाने के रूप में कुछ थोड़ा-सा खर्च करने में भी किसी आस्तिक भावना के व्यक्ति को अधिक संकोच या अड़चन का अनुभव न होना चाहिए। चौकी पर स्थापित देव पूजा का पूजन रोली, अक्षत, नैवेद्य, धूप, दीप से हो जाता है। यह सब वस्तुएं घर में होती ही हैं। एक खर्च जो इस पूजा गृह के साथ निश्चित रूप से जोड़ा जाना चाहिए वह यह है कि गायत्री मन्दिर का ज्ञान-मन्दिर भी बनाने के लिए वहाँ कम से कम दो पैसे रोज का सत्साहित्य संग्रह किया जाता रहे। इस प्रकार उस पूजा चौकी के समीप ही एक छोटा सा पुस्तकालय का पौधा भी लगाया जाय जो इस दो पैसा के खाद पानी से नित्य सींचा जाय। यह नन्हा सा अंकुर यदि निरन्तर सींचा जाता रहे तो एक दिन यह महा विशाल वट वृक्ष बन सकता है।

इस वर्ष ज्ञान मन्दिर सैट की अत्यन्त ही सुन्दर सुसज्जित, सस्ती 52 पुस्तकें चार-2 आना लागत मूल्य पर तैयार की गई हैं। हर साल इसी प्रकार 52 पुस्तकें इस पुस्तकालय में बढ़ती रहें तो 10-20 साल में इस ज्ञान-मन्दिर में हजारों ऐसी पुस्तकों की सम्पत्ति जमा हो सकती है जो घर के लोगों के तथा पास पड़ोस के अन्य लोगों के जीवन में क्रान्ति उपस्थित कर दे। जिस आदर्शवाद की स्थापना आज आवश्यक है उसी समयोपयोगी विचारधारा से परिपूर्ण यह पुस्तक सीरीज निकलती रहेंगी।

जिन घरों में यह ज्ञान मन्दिर स्थापित हैं, उनका कर्तव्य होगा कि अपने घर के लोगों को ही नहीं पास पड़ोस के 10-20 व्यक्तियों को भी यह पुस्तकें पढ़ने का चस्का लगावें। उनके यहाँ यह पुस्तकें देने जावें, उनमें लिखे हुए विषयों की प्रशंसा करके पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें और फिर वापिस लेने भी उनके घर जावें। इस प्रकार प्रयत्न करने से कुछ ही दिनों में इस सत्साहित्य के पढ़ने का चस्का उन्हें लग जायगा और स्वयं आकर इन पुस्तकों को माँगकर ले और दे जाया करेंगे। यह अभिरुचि बढ़ेगी तो उन पास पड़ोस के जिन लोगों को पढ़ने का चस्का लगाया गया था वे स्वयं भी अपने यहाँ गायत्री ज्ञान-मन्दिर स्थापित करेंगे और यह धर्म-प्रचार की शृंखला इसी क्रम से बढ़ते-बढ़ते देश-व्यापी हो जायगी।

देखने में यह एक बहुत ही मामूली सी योजना मालूम पड़ती है। पर इसके मूल में लोगों के अन्तःकरणों और मानसिक स्तरों को बदल डालने की पूरी-2 सम्भावना छिपी हुई है। जिन व्यक्तियों के द्वारा, जिन भावनाओं से ओत-प्रोत होकर, जिस आत्मिक स्थिति में यह पुस्तकें लिखी जाएंगी। उसके अनुसार उनमें वह आग होगी जिसके संस्पर्श में आने पर पाठकों के अन्तःकरणों में हलचल मचे बिना न रहेगी। युग निर्माण की दिशा में अग्रसर होने के लिए उनके कदम बढ़े बिना रुक न सकेंगे। अब तक गायत्री संस्था के इन विचारों ने जो काम किया है उसे देखते हुए आगे के लिए भी बहुत कुछ आशा की जा सकती है। छोटे से अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों की अन्तरात्माओं के इन विचारों की प्रेरणा से जो स्फूर्ति पैदा हुई है वह देशव्यापी एक प्रचण्ड संगठन के रूप में, जिसकी दो हजार शाखाएं तथा एक लाख सदस्य हैं-उपस्थित हैं। इस संगठन के द्वारा जो कार्य हो रहा है या जो होने जा रहा है उसका मूल्याँकन आज नहीं हो सकता, उसका महत्व तो आगे की पीढ़ियाँ ही समझेंगी। फिर भी यह एक प्रकट रहस्य है कि जलते हुए अन्तःकरण में से निकली हुई आग, जिनमें कुछ भी सजीवता है उन अन्तःकरणों में गर्मी पैदा किये बिना रह नहीं सकती। जनता का आत्मिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए यह साहित्य कुछ ठोस काम करेगा। गायत्री ज्ञान मन्दिर एक प्रशंसनीय दीपक की भाँति अपने में इस तेल को भर कर जलाये तो वे स्वयं भी प्रकाशित होंगे और दूसरों को भी प्रकाशवान करेंगे।

स्वाध्याय और सत्संग यह दो कार्य विचार निर्माण के लिए आवश्यक हैं। युग निर्माण के लिए जनता को स्वाध्याय का सामान बड़े परिमाण में उपलब्ध करना पड़ेगा। यह कार्य हम लोग ज्ञान-मन्दिरों के माध्यम से बड़ी सरलता पूर्वक कर सकते हैं। देश में यदि एक लाख ज्ञान-मन्दिर स्थापित हो जायें तो उनके प्रकाश से सारी भारत भूमि आलोकित हो सकती है। अपनी अर्थ व्यवस्था के अनुसार वितरण के परिपत्र भी प्रसाद रूप में यह ज्ञान-मन्दिर हर महीने अपने क्षेत्र में बाँट सकते हैं। विचारोत्तेजक परिपत्र भी बिना मूल्य बाँटने के लिए यह ज्ञान-मन्दिर अपने यहाँ यथा शक्ति मँगाया करेंगे और हजार, दो हजार व्यक्तियों तक उन्हें भी वे पहुँचाया करेंगे। उस स्वाध्याय की देश व्यापी वह व्यवस्था यह ज्ञान-मन्दिर आसानी से कर सकते हैं जिसकी युग निर्माण के लिए आज नितान्त आवश्यकता है।

स्वाध्याय के बाद सत्संग की प्रक्रिया भी चालू रखनी है। गायत्री परिवारों की शाखाएँ यथा सम्भव साप्ताहिक पाक्षिक या मासिक सत्संग चला रही हैं। अब इस ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। परस्पर मिल जुलकर वाणी द्वारा जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार विनिमय करे, यह समाज के उत्थान के लिए एक आवश्यक कार्य है। पर्व और त्यौहारों पर जन समूह को इकट्ठा करके उन्हें उन पर्व त्यौहारों में छिपे हुए संदेशों को समझाना एक अच्छा सत्संग हो सकता है। नवरात्रियों में, सामूहिक यज्ञानुष्ठानों में धार्मिक अभिरुचि की जनता खूब भाग लेती है। रामायण गीता पाठ आदि के कार्यक्रमों को इन आयोजनों में जहाँ जोड़ने की आवश्यकता पड़े वहाँ उन्हें भी जोड़ा जा सकता है।

गायत्री जयन्ती (जेष्ठ सुदी 10) हम सबका बड़ा त्यौहार है। उस दिन दीपावली मनाने के साथ-साथ कुछ विशेष शिक्षण सत्संग, भाषण, प्रवचन किये जा सकते हैं। अपनी अपनी सुविधानुसार वार्षिकोत्सवों की परम्परा भी शाखाएँ तथा ज्ञान-मन्दिर चला सकते हैं। उनमें भी प्रवचनों की प्रधानता रहे। क्षेत्रीय या प्राँतीय शिक्षण शिविर किये जा सकते हैं। महिलाओं के लिए, बालकों के लिए किन्हीं विशेष वर्गों के लिए समय-समय पर विशेष शिक्षण शिविर लगाये जाने चाहिएं। इस प्रकार स्वाध्याय के साथ-साथ सत्संगों की शृंखला को भी पूरी तत्परतापूर्वक चलाया जाय।

कार्यक्रम सचमुच ही अत्यन्त ठोस है। अपने आलस्य और अनुत्साह को देखते हुए हम सोच सकते हैं कि यह बहुत कठिन है। कैसे सफल होगा? कौन इसमें सहयोग करेगा? पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। जन मानस में युग की पुकार अपना काम स्वयं कर रही है, हमें तो केवल उसकी व्यवस्था मात्र करनी है। कुछ समय पूर्व जनता में राजनैतिक स्वाधीनता की भावना तीव्र संवेदना के साथ जनमानस में काम कर रही थी। काँग्रेस के नेताओं ने उसे संगठित कर देने का कार्य किया और वह भावना स्वाधीनता संग्राम के रूप में फूट पड़ी। वह आग तभी शान्त हुई जब राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली गई। आज दूसरी नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की सम्भावना ज्वालामुखी पहाड़ में दबी हुई अग्नि की तरह जन मानस में भीतर ही भीतर धधक रही है। हम लोगों को केवल वह रास्ता बनाना है जिसमें होकर उस अग्नि की लपटें बाहर निकलने लगें। आज की बढ़ी हुई अनैतिकता से स्वार्थपरता से, आपा-धापी से, हर कोई दुखी है। आज की सामाजिक स्थिति भारी अनुदारता, संकीर्णता, मूढ़ता और रूढ़ियों से बुरी तरह दूषित हो रही है। हर कोई इसमें परिवर्तन चाहता है। हमें तो केवल बिगुल मात्र बजाना है। जनता की आकाँक्षाओं की प्रचण्ड शक्ति आगे का अपना रास्ता आप बनालेगी। स्वाध्याय और सत्संग द्वारा हम जन जागृति की चण्डी का आह्वान करेंगे तो युग-निर्माण का स्वप्न आज नहीं तो कल पूरा होकर रहेगा।

साँस्कृतिक पुनरुत्थान के हिमालय की पुनीत तीर्थ यात्रा में अपने साथ चलने के लिए हम अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक परिजन को आह्वान करते हैं। इस मार्ग पर बढ़ाया हुआ प्रत्येक कदम पुण्यमय होगा। अनेक कठिनाइयों, व्यस्तताओं से घिरा हुआ व्यक्ति भी इस यात्रा में बहुत दूर तक हमारे साथ-साथ चल सकता है। कम से कम ‘गायत्री-ज्ञान मन्दिरों’ की स्थापना तो हममें से हर एक अपने घर पर कर ही सकता है। इस युग के अभूतपूर्व—जीवन में फिर कभी आने की जिस अवसर की संभावना नहीं—ऐसे गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति के अवसर पर प्रत्येक परिजन कुछ श्रद्धाँजलि चढ़ाना चाहेगा। इन श्रद्धाँजलियों में सदा स्मरण रखे जाने योग्य यही बात हो सकती है कि अपने घर पर गायत्री ज्ञान मन्दिर की स्थापना की जाय और उससे संबंधित स्वाध्याय और सत्संग के कार्यक्रमों के लिए यथाशक्ति कुछ न कुछ करते रहने का व्रत लिया जाय।


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