योग का वास्तविक स्वरूप और वर्तमान अवस्था

October 1958

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(“एक प्रतिष्ठा त्यागी सन्त”)

गीता में योग को कर्म की कुशलता कहा गया है। जिस उपाय से कर्म (इष्ट) सहज सुन्दर स्वाभाविक रूप से सिद्ध हो सके और साथ ही वह बन्धन का कारण न हो उसी का नाम योग है—”योगः कर्म सुकौशलम्”। प्राचीनकाल में ऋषिकुमार यज्ञ के लिए कुश बटोर कर लाने को जाया करते थे। उसमें तीन श्रेणी के बालक होते थे। एक श्रेणी के बालक उखाड़ भी लाते और उनका हाथ भी न कटता। दूसरी श्रेणी के कुश उखाड़ते समय अपना हाथ काट लेते थे और तीसरी श्रेणी के बालक हाथ कटने के भय से अपने अन्य साथियों से माँगकर काम चला लेते। “कुशं लाति इति कुशलः”—कुश ले भी आते हैं और अपना हाथ भी नहीं काटते अर्थात् जो संसार के सब काम भी करते हैं पर उसकी माया में बद्ध नहीं होते वे ही कुशल हैं। उनके इस भाव को ही कौशल या योग कहते हैं। इस कुश एकत्र करने की प्रणाली को संसार के कर्म-काण्ड के प्रतीक के रूप में लिया जा सकता है। जो लोग संसार में अनासक्त, निर्लिप्त रहकर, फलाकाँक्षा रहित हो, संसार के सब कर्म सम्पादित कर सकते हैं, वे ही योगी हैं। जो लोग संसार में कर्म करते हुए, संसार की चोटों से घायल हो जाते हैं वे संसारी हैं और जो संसार को दुख, कष्ट, बन्धन का कारण समझकर संसार से दूर रहते हैं और दूसरों के कर्मफल के ऊपर निर्भर करते हैं वे भिक्षुक या संन्यासी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। कहना न होगा कि यहाँ पर गीतोक्त संन्यासी की बात न कहकर साधारण वेशधारी संन्यासियों का ही जिक्र किया गया है।

‘योग‘ शब्द का दुरुपयोग

“कर्म की निपुणता योग है” इस भाव से ‘योग‘ शब्द कितने प्रकार से देश और भाव-राज्य के पतन के साथ नीचे गिर गया है और कितने विकृत अर्थ में इसका प्रयोग होने लगा है, यह भी यहाँ पर विचारणीय है। वर्तमान समय में ऐंद्रजालिक कौशल (जादू आदि) भी योग का अंग समझा जाने लगा है। मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि की ओर ही आजकल के योगियों का विशेष ध्यान रहता है। किसी प्रकार की कोई अस्वाभाविक क्रिया दिखाने वालों को ही आजकल सब लोग योगी समझ लेते हैं, उनकी भक्ति करते हैं और ठगाते हैं। ताबीज, कवच आदि के द्वारा जो लोगों के कर्मफल को खण्डन करने का ढोंग करते हैं, जो बन्ध्या को पुत्र प्राप्ति की दवा देते हैं और रोगियों का रोग बिना चिकित्सा के ही दूर करने की बात करते हैं, वे भी आजकल योगी कहे जाते हैं और पूजित होते हैं। प्राचीनकाल में जिनके हाथ ऊंचे रहकर भगवत्-कार्य करने में ही लगे रहते थे वे ही ऊर्द्धबाहु होते थे। आजकल जो लोग भगवदुद्देश्य की अवहेलना करके, प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके दोनों हाथों को निरन्तर ऊपर उठाकर सुखा डालते हैं, वे ही ऊर्द्धबाहु योगी माने जाते है! प्राचीन समय में योगी धारणा, ध्यान, समाधि में इतने तन्मय हो जाया करते थे कि शरीर की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था, उनके बालों की जटाएं बँध जातीं, शरीर पर धूल, मिट्टी आदि आकर जम जाती। आजकल उसकी जगह बड़ के दूध इत्यादि से ताबड़तोड़ जटा बना ली जाती हैं और शरीर में मिट्टी, राख आदि मलकर योगी का स्वाँग बना लिया जाता है और भोले लोग भी यह देखकर वशीभूत हो जाते हैं। बड़े-बड़े शहरों में जब घर के मालिक आफिस या बाजार चले जाते हैं तब जाने कितने पाखण्डी धूर्त योगी की पोशाक गेरुआ वस्त्र, आदि धारणकर, गृहस्थों के घर में जाकर, भोली स्त्रियों पर अपना प्रभाव जमाकर, छल, बल, कौशल से, कितने प्रकार से धन ठगते हैं उस बात का खयाल आने से मर्माहत होना पड़ता है। आजकल ऐसे धूर्त योगियों की संख्या और प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई है कि इनके कारण वास्तविक योगियों ने लोकालय और प्रसिद्ध तीर्थों आदि से दूर जाकर रहना आरम्भ कर दिया है और गृहस्थ नकली योगियों द्वारा ठगे जा रहे हैं। भीतर से भगवत्प्राप्ति जनित ब्रह्मानन्द के नशे में विभोर न होकर आज के बने हुए योगी मदिरा, गाँजा, भाँग आदि नशीली चीजों को साधना का अंग कहकर उनका प्रचार करते है। यहाँ तक कि देवाधिदेव महादेव के हाथों में भी उन्होंने संकोच छोड़कर अब सिद्धियों के बदले भाँग का लोटा और गाँजे की चिलम दे दी है!

यथार्थ योग के प्रचार की आवश्यकता

देश और लोगों के मनोभाव के पतन के साथ-ही-साथ सभी बातों में कुछ विकृति आ जाती है। वर्तमान समय में उसमें उचित संशोधन की आवश्यकता है। योगादि साधन-प्रणाली के अन्दर जब बहुत से उत्तम तत्व निहित हैं, उसकी सहायता से जब स्वास्थ्य-प्राप्ति, एकाग्रता शाँति, आनन्द-प्राप्ति, उन्नति-प्राप्ति, भगवद्दर्शन, भगवत्-प्राप्ति जीव का कल्याण-साधन आदि कार्य सहज, सुन्दर और स्वाभाविक रूप से साधित होने की सम्भावना है, तब इस योग-साधन-प्रणाली का संशोधन करने, इसकी उन्नति का उपाय करने, इसकी शिक्षा देने तथा सर्वसाधारण के सामने योग के उदार मत और भाव उच्च आदर्श रखने की विशेष आवश्यकता है। यह सर्वसाधारण को समझा देना होगा कि वास्तविक योग क्या है? वह कितने रूपों में विभक्त है? उसकी साधन-प्रणाली क्या है? किस तरह संसार के जीवों के हित-साधन में-उन्हें आनन्द प्रदान करने में इसका प्रयोग किया जा सकता है। कर्मयोगी किस प्रकार कर्म के रहस्य को समझकर अनासक्त , निष्काम, फलाकाँक्षा से रहित होकर केवल भगवत्प्रीति के लिए कर्म किया करते हैं, यह सुन्दर रूप से समझा देना होगा। ज्ञानयोगी इन्द्रियों को संयत करके, चित्त को शुद्ध और शाँत करके स्वरूप प्रतिष्ठ, आत्मभाव में स्थित होकर किस प्रकार समाधि-योग द्वारा परमात्मा में तन्मय हुए रहते हैं, यह भी समझ लेना होगा।

साधन-राज्य के योग-तत्व का अर्थ यही है कि हमारे भीतर भगवान की अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम और आनन्द निहित है। हमारी कामना, वासना, आसक्ति, हमारी अज्ञानता, हमारे कुसंस्कार, हमारा स्वार्थ, आत्म-सुख की स्पृहा, अहंकार और प्रतिष्ठा का मोह आदि उस भगवत् शक्ति के विकास में बाधा पहुँचाते हैं। अतएव हम जितना ही इन सब बाधाओं से मुक्त, शुद्ध, शाँत, पवित्र होंगे उतने ही भगवत्-भाव हमारे अन्दर प्रकाशित होंगे और हम साधन राज्य में सफलता प्राप्त करेंगे।


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