ज्वालामुखी प्रयोग हिमालय में शीतल हो (kavita)

October 1958

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(श्री शिवसिंह ‘सरोज’)

बन्द करो विस्फोट, अनल का असहनशील दहन है।

प्रलयंकारी प्रयोग, शस्त्र संतप्त त्रस्त त्रिभुवन है॥

अंगारों को उड़ा परखते हो पौरुष प्रति-भट का,

प्रगति पथी, प्रतिशोध तुम्हारा विस्फोट विषघट का!

दान दिया विज्ञानवान ने विषम-विधान विकट का,

शंकाकुल संसार समर, संहार और संकट का॥

धूमकेतुओं का कौतुक यह धरा-ध्वंस की लीला,

शोणित-शोध क्रोध-कुत्सा का अट्टास गर्वीला।

यह रुधिराक्त प्रयोग प्रलय का परमाणविक परीक्षण,

बन्द करो निर्द्वंद्व मन्दगति ज्वलनशील अनुशीलन॥

उड़ा रहे अंगार क्षार-क्षय धुँआधार भ्रम-तम है,

दहती है बारूद दहकती लपटें, घुटता दम है।

पड़ती राख आँख में मुख में सम्मुख रुख आँधी का,

धूलिसात् आदर्श, मलिन मन गौतम का, गाँधी का॥

भंजहु चाप राम! सीता की निष्ठा डोल रही है,

जनक-पुरी आसुरी शक्ति को तप से तोल रही है।

जोड़ो फिर विश्वास, भरोसा भरो भयातुर भव में,

तोड़ो धनुष ध्वंस का, राघव! कौतूहल लाघव में॥

जय हो, जिसने सबसे पहले रोके हाथ रुधिर के,

धरी म्यान में खड़ग शत्रु के शस्त्र-व्यूह से घिर के।

जिसने अपनी चौड़ी छाती दे दी संगीनों को,

जय हो, जिसने रक्त-दान दे दुलराया दीनों को॥

जहाँ मनुज के मानसरोवर से सुर-सरिता छलकी,

जय-जयकार कर रही धरती यह ‘भारत’ भूतल की।

बोधि-वृक्ष की शीतल छाया मुद्रा मौन अभय की,

दुनिया को दे रही दुहाई शाँति-पूर्ण निश्चय की॥

यह वह देश जहाँ यदि कोई शाँति भंग करता है,

नहीं तीर से केवल तीखी चितवन से मरता है।

सौंपी इसको शस्त्र छत्र यह सबके सिर धरता है,

यहाँ सुमन का शर भी शंकर की समाधि हरता है॥

दे दो अस्त्र, ऊर्ध्व मस्तक हो और उदार हृदय हो,

आयुध तजो निरायुध जन का जीवन निःसंशय हो।

अस्त्र-शस्त्र हों शाँत और आक्रान्त व्यक्ति निर्भय हो,

ज्वालामुखी प्रयोग हिमालय में शीतल हो लय हो॥


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