आँतरिक जीवन की अवहेलना

October 1958

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(श्री विष्णुदत्त खन्ना, दिल्ली)

आजकल यह चर्चा है कि मानवता क्षीण होती जा रही है और स्वार्थ बढ़ रहा है। कोई किसी की नहीं सुनता! ज्ञान का कोई सम्मान नहीं, अज्ञान रूपी अन्धकार बढ़ रहा है। मानव दुख, रोग आदि वृत्तियों के दल-दल में फँसा हुआ है। उससे निकलने की चेष्टा तक भी नहीं करता। चिन्ता ही मानव को प्रिय है और अधोगति की ओर प्रस्थान है।

प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? इसका कारण हमारी सबसे बड़ी भूल है कि हम इस पंच भौतिक शरीर को ही अपना जीवन समझ बैठे हैं। इसकी पुष्टि के लिये ही सब साधन एकत्रित किये जाते हैं। किन्तु यह शरीर हमारा जीवन नहीं। यह तो एक जड़ वस्तु है जो पाँच भूतों से बनी है। जड़ वस्तु प्रायः निष्प्रभ और अन्धकारमय होती है और जड़ वस्तु को जीवन मानना जड़ ही बनाता है। जड़ बनना अन्धकार की ओर अग्रसर होना है। यही मानव की बड़ी भारी भूल है जिसके कारण वह अनर्थ करता है अत्याचार करता है। स्वार्थ रूपी दल-दल में फँसकर अज्ञान रूपी अन्धकार में भटकता हुआ उस जीवन-ज्योति को जो चिन्मय भगवान की प्रकाशदायिनी हमारे अन्तःकरण में स्थित है-नहीं देख पाता।

विचारणीय बात यह है कि यदि यही पंच भौतिक शरीर में जो अन्तर है वह कदापि न होता। एक शव न अपने लिये कुछ विचार सकता है न कुछ कर्म कर सकता है और न ही दुःख सुख का अनुभव करता है। यदि उसे कुछ दिन के लिये रख दिया जाये तो वह गल सड़ जाता है। शव में न कोई आशा रहती है न निराशा, न उसे भूख लगती है न प्यास। परन्तु वही पंच भौतिक शरीर जब जीवन रूपी ज्योति से सम्पन्न रहता है, तब उसका आवरण मृत शरीर से भिन्न होता है। केवल इतने से ही यदि हम विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि मानव जीवन यह शरीर नहीं किन्तु कुछ और है, जो चिन्मय है, चैतन्य है तथा विवेकपूर्ण है। वह जीवन ही हमारे अन्तःकरण में ज्योति बनकर इस पंच भौतिक शरीर का प्रेरक तथा चालक बना हुआ है। यह शरीर जो कुछ भी करता है उस चिन्मय ज्योति की प्रेरणा से ही करता है। यदि वह ज्योति न हो तो कोई भी कार्य करने में यह शरीर समर्थ नहीं होता।

यह पंच भौतिक शरीर तो केवल एक यन्त्र है जिसका आधार एक सूक्ष्म शरीर है और उस सूक्ष्म शरीर का आधार एक चिन्मय ज्योति है जो भगवान की मानव को एक अद्भुत तथा अनुपम देन है। यदि हम इस छोटे से तत्व को जान लें तथा पहचान लें तो हमारा जीवन काँतिमय बन जाये। अन्धकार प्रकाश में बदल जाये। स्वार्थ रूपी दलदल से हम सहज में ही निकल जायें।

जैसे मिट्टी गारे से बना मकान, उसमें रहने वाला और उसमें जो प्रकाशमय ज्योति, भिन्न-भिन्न हैं वैसे ही यह पंच भौतिक शरीर भी सूक्ष्म शरीर की क्रियाओं का क्षेत्र है और सूक्ष्म शरीर वह यन्त्र है जिससे इस क्षेत्र में क्रिया होती है और क्षेत्रज्ञ भगवान का वह दिव्य प्रकाश है जो मानव की नानाविधि लीलाओं का मूल आधार है।

जब हम इस भौतिक शरीर की पुष्टि के लिये सब साधन करते हैं जिससे कि यह क्षीण न होने पाये, तब हमारे लिये यह तो अत्यावश्यक है कि हम उस सूक्ष्म शरीर, जो इस भौतिक शरीर में काम कर रहा है—की पुष्टि की ओर भी ध्यान दें। यदि हमारा सूक्ष्म शरीर क्षीण हो जाता है तो हमारा भौतिक शरीर भी क्रियाहीन हो जाता है और हम अन्धकार में तथा स्वार्थ रूपी दलदल में फँस जाते हैं। अतः यह हमारे लिए अत्यावश्यक है कि जहाँ हम भौतिक शरीर की पुष्टि के लिए सब साधन एकत्रित करते हैं वहाँ इस सूक्ष्म शरीर की ओर भी विशेष ध्यान देते रहें।

कैसी विचित्र बात है कि हमें भौतिक शरीर के लिए जो साधन एकत्रित करने पड़ते हैं उनकी क्रियाएं अधोतम होती हैं। किन्तु इस सूक्ष्म शरीर की पुष्टि के साधन न तो पाँच भूतों में मिलते हैं और न ही इसके लिए किसी ऐसी क्रिया की आवश्यकता है जिसका सम्बन्ध संसार से हो। यह तो बाह्य जीवन से भिन्न जीवन है। इसका आहार भी सूक्ष्म ही है। आत्मा की पुष्टि तथा सूक्ष्म शरीर की पुष्टि केवल आत्मचिन्तन, विचार-विशुद्धि, भावनाओं की पवित्रता तथा भगवन्नाम के रस से ही होती है। इन साधनों की प्राप्ति के लिए न किसी धन की आवश्यकता है न किसी विशेष कर्म की। यदि आवश्यकता है तो केवल अपने ध्यान को अंतर्गत करने की, आत्म निरीक्षण की और अपने मन में भगवन्नाम की कामना उत्पन्न करने की।

यह उपर्युक्त साधन तभी प्राप्त होते हैं जब उस परम पिता सच्चिदानन्द भगवान् से सद्प्रेरणा मिलती रहे और सद्प्रेरणा को प्राप्त करने का अत्युत्तम और सुगम साधन है भगवान् की प्रेरक शक्ति माँ गायत्री की शरण लेना। हर मानव यदि यह समझ ले कि जितने साधन मैंने इस भौतिक शरीर की पुष्टि के लिये एकत्रित किये हैं यदि एक साधन-अर्थात् गायत्री माता की शरण—अपने आन्तरिक शरीर के लिये भी कर लूँ तो भगवती माँ उस परम पिता परमात्मा की प्रेरणा शक्ति मानव को स्वयमेव अन्धकार से निकाल देती है। निस्वार्थ कर देती है। जिससे आँतरिक जीवन स्वयमेव पुष्टि पाने लगता है और यह भौतिक शरीर तथा बाह्य जीवन (साँसारिक व्यावहारिक) भी पुष्टि पाते हैं।

यदि यह आन्तरिक जीवन क्षीण हो जाये तो बाह्य जीवन की पुष्टि किसी काम नहीं आती, जैसे किसी घर में कोई जीव न रहे तो वह घर टूट-फूट जाता है तथा बेकार हो जाता है। यह हमारी दूसरी भूल है जिसे हमें समझना है और हम भगवान से यही याचना करते हैं कि भगवान् की कृपा से मानव को सुबुद्धि प्राप्त हो और वह अपने आन्तरिक जीवन को पहचानकर उत्तम गति का भागी बने।


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