(प्रोफेसर मुन्शीरामजी शर्मा ‘सोम’)
सुत्रामाणं पृडितलीं द्यामनेहस सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावं स्वरित्रामनागसो अस्त्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये॥ (अथर्व. 7। 6। 3 ऋ. 8। 63। 10 यजु. 21।6)
आओ, छोड़ विकृत जीवन को चलें प्रकृति की ओर सखे!
दिति की दानवता को त्यागें, चलें अदिति की ओर सखे!
यह बनावटी, बहु विकारमय जीवन कितना दुखदायी,
भवसागर में हमें डुबोता इसने पशुता अपनायी;
इससे बचना है तो आओ पकड़ें दैवी नाव सखे!
स्वाभाविक जीवन अपनावें छोड़ें कृत्रिम भाव सखे!
स्वाभाविकता की यह दैवी नौका हमें बचा लेगी;
अपने विस्तृत फैले अंचल में हमको आश्रय देगी;
इससे ज्ञान-प्रकाश बढ़ेगा, कभी न होगी हानि सखे!
यहाँ पहुँचकर खुल जाएगी सुख की मंगल खानि सखे!
यह अखण्ड, परिपूर्ण, सुभग, पावन पथ पर चलने वाली,
सद्गुण के पतवार लिये है, कभी नहीं रिसने वाली॥
हो जाओ निष्पाप, बना लो स्वाभाविक जीवन प्यारे!
चाहो यदि कल्याण जगत में टूटे भव-बन्धन सारे॥