शासन-मुक्त ही आदर्श समाज है।

October 1958

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(श्री धीरेन्द्र मजूमदार)

महात्मा गाँधी के मतानुसार अहिंसा केवल परम धर्म ही नहीं है, वह नित्य धर्म भी है। वास्तव में उनकी अहिंसा साधक के लिये नित्य-धर्म ही नहीं है, वरन् वह व्यक्ति और समाज के लिये विशेष धर्म और आपद धर्म भी है। उदाहरणार्थ अगर कभी समाज को किसी अन्याय के प्रतिकार में विद्रोह भी करना पड़े, या दुनिया में कहीं कभी धर्म-युद्ध अनिवार्य हो जाय, तो वह प्रतिकार और युद्ध भी अहिंसात्मक ही होना चाहिये। उनकी राय में किसी भी हालत में समाज में हिंसा को मान्यता नहीं मिलनी चाहिये। अगर ऐसा अहिंसक समाज बनाना है, तो मानव हृदय से हिंसा का सम्पूर्ण निराकरण आवश्यक है।

अब प्रश्न यह है कि यह कैसे संभव हो सकता है? आज तो मनुष्य के हृदय में नित्य हिंसा उत्पन्न होती रहती है। ऐसी परिस्थिति में समाज से शिक्षा और दीक्षा के द्वारा तथा अहिंसात्मक प्रयोगों द्वारा हिंसा को मिटाने की कितनी भी कोशिश की जाय, पर जनता तदनुकूल आचरण नहीं कर सकती। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि जिन संस्थाओं या पद्धतियों के कारण हिंसा की उत्पत्ति हुआ करती है उन्हीं को मिटा दिया जाय। अब यह बहुत स्पष्ट हो चुका है कि मनुष्य के हृदय में हिंसा का प्रकोप विशेषतः दो कारणों से, अर्थात् शासन और शोषण के कारण ही हुआ करता है। शासन का आधार दंड-शक्ति है। समस्त मानव-समाज की मान्यता उसे प्राप्त होने पर भी शासन की शक्ति हिंसात्मक ही होती है। हिंसा का आघात मनुष्य पर निरन्तर होता है। स्वभावतः आघात से प्रतिघात पैदा होता है। इस प्रकार शासन संस्था के फलस्वरूप मानव-हृदय में हिंसा-प्रतिहिंसा का प्रतिघात अदृश्य रूप से सदा चलता है। इस परिस्थिति के कायम रहते हिंसा का निराकरण कैसे होगा? स्पष्ट है कि अहिंसक-समाज की स्थापना के लिये शासन से मुक्ति पाना अनिवार्य है।

अहिंसात्मक समाज की बात पर कुछ लोग यह एतराज करते हैं कि क्या शासन-मुक्त हो जाने पर सर्व साधारण में उद्दण्डता और उच्छृंखलता नहीं फैलेगी? यह प्रश्न इसलिए उठता है कि लोग समझते हैं कि समाज की परिस्थिति आज जैसी है वैसी ही बनी रहेगी और यह शासन-मुक्त भी हो जायगा। लेकिन ऐसा हो ही नहीं सकता। सर्वोदय-क्राँति सर्जनात्मक क्राँति है। वह केवल शासन पर ही आघात नहीं वरन् शासन की आवश्यकता का ही निराकरण करती है। अहिंसक प्रक्रिया में समाज का संगठन ही इस ढंग से करना होगा, जिससे शासन अनावश्यक हो जाय। पहले योरोप के अराजकतावादी इस बात को नहीं समझते थे, इसलिए वे शासन पर प्रत्यक्ष आघात करने की बात करते थे। आज जब हम शासन-मुक्ति की बात करते हैं तो लोग उन्हीं बातों को याद करके घबरा जाते हैं।

इतिहास के तीन युग

यह घबराहट केवल ‘अराजकता’ शब्द के कारण नहीं, बल्कि आजकल प्रचलित ‘शासनहीन’ शब्द के कारण भी है। अतः यह आवश्यक है कि ‘शासनहीन समाज’ और ‘शासन-मुक्त-समाज’ की भिन्नता को समझ लिया जाय। इसे समझने के लिये मानव-इतिहास के तीन-युगों की कल्पना की जा सकती है—

1-शासन हीनता यानी उच्छृंखलता का युग

2-शासन-युक्त-समाज का युग

3-शासन-मुक्त यानी स्वावलम्बन का युग

सबसे पहले शासन-हीनता का युग आता है। उसमें उच्छृंखलता रहती है। उसके बाद शासन हीन समाज को व्यवस्थित करने के लिये शासन-पद्धति का आविष्कार होता है और उसके संघटन का अर्थात् शासन युक्त समाज का युग आता है।

हम जब शासनहीन समाज की बात करते हैं तब मानव इतिहास के आदिम-युग में लौट जाने की बात करते हैं। लेकिन शासन-मुक्त समाज में हम स्वतन्त्र जनशक्ति का संघटन कर शासन-पद्धति की आवश्यकता को विघटित करना तथा स्वयं प्रेरित स्वावलम्बी समाज का अधिष्ठान करना चाहते हैं।

इसमें स्वतंत्र जनशक्ति की प्रेरणा से एक निश्चित प्रकार के समाज के सृजन की कल्पना है, न कि जो मौजूद है उसके विघटन मात्र की। यही कारण है कि हम यह नहीं कहते हैं कि अमुक प्रकार की परिस्थिति के कारण राज्य अपने आप सूख करके मर जायगा, बल्कि हम यह कहते हैं कि जन-शक्ति अपने संघटन और सक्रिय चेष्टा द्वारा शासन के नागपाश से अपने को मुक्त कर लेगी।

वास्तव में शासन से पूर्णतः मुक्ति की स्थिति तो एक आदर्श है। मनुष्य को उसकी प्राप्ति तभी होगी, जब वह विकास की आदर्श अवस्था को पहुँच जायगा। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति अन्तिम स्थिति होगी। यही कारण है कि गाँधी जी कहते थे कि आदर्श स्थिति रेखागणित की परिभाषा के बिन्दु जैसी है। उसकी कल्पना की जा सकती है, लेकिन आकृति दिखाई नहीं देती। अतः जो प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला समाज होगा, उसका आधार-बिन्दु तो सम्पूर्ण शासन-मुक्ति का आदर्श होगा, फिर भी प्रत्यक्ष आकृति में उसका स्वरूप शासन-निरपेक्ष समाज का होगा। अर्थात् शासन का कुछ अवशेष तो उस समाज में रह जायगा, लेकिन मनुष्य के नित्य जीवन में उसका असर नहीं रहेगा। दैनिक समस्याओं के समाधान, नित्य आवश्यकताओं की पूर्ति तथा आन्तरिक व्यवस्था के लिये शासन की अपेक्षा नहीं रहेगी। समाज के संतुलन के लिये इतना अवशिष्ट शासन आवश्यक भी है। समाज की इकाइयाँ चाहे जितनी स्वयं पूर्ण क्यों न हों, उन्हें एक सूत्र में पिरोने के लिये उस महीन धागे की आवश्यकता रहेगी। अवशिष्ट शासन वह महीन धागा होगा, लेकिन धागे से अधिक उसका काम नहीं होगा। फूलों की वह माला सुन्दर मानी जाती है जिसमें धागा दिखाई नहीं देता। उसी तरह जिस समाज के जीवन में शासन के अस्तित्व का भान नहीं होता, वह शासन-निरपेक्ष समाज है।

शासन मुक्त समाज की भूमिका

ऐसे शासन-मुक्त या शासन-रहित समाज की कल्पना गाँधी जी से पहले अराजकतावादियों और मार्क्सवादियों ने भी की थी। मार्क्स की कल्पना के अनुसार अब भी कम्युनिस्ट लोग शासन-हीन तथा श्रेणी-हीन समाज का नारा बुलन्द करते रहते हैं। यही कारण है कि जब गाँधीवादी और सर्वोदय के अनुयायी शासन-मुक्ति की बात करते हैं तो कितने ही लोगों को यह भ्रम होता है कि कहीं यह कम्युनिस्टों का ही तो विचार नहीं है।

पर बात ठीक इससे उल्टी है। कोई समाज शासन-मुक्त तब तक नहीं हो सकता, जब तक मनुष्य को शासन की आवश्यकता रहेगी। क्योंकि जब तक किसी चीज की आवश्यकता रहती है तब तक मनुष्य उससे मुक्ति पाने की चेष्टा ही नहीं करता। इस आधारभूत सिद्धान्त की दृष्टि से ही कम्यूनिज्म की भूमिका में दोष दिखाई देता है। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये एकाधिकार (डिक्टेटरशिप) की सत्ता हस्तगत करना अनिवार्य मानते हैं, क्योंकि उनकी राय में समाज को किसी नतीजे तक पहुँचाने के लिये शासन की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। इस विचार को देखने से ‘प्रथम ग्रासे माक्षिकापात वाली कहावत याद आती है। अगर शासन-हीन समाज स्थापित करने की क्राँति के लिये प्रथम से ही शासन की अनिवार्यता महसूस होती है, तो शासन के बिना सम्पूर्ण समाज का संचालन हो जायगा ऐसी आशा किस बुनियाद पर की जाती है? समाज की समस्याओं के समाधान के लिये अगर शासन की आवश्यकता है, तो समाज की सुनियन्त्रित व्यवस्था के लिये उसकी आवश्यकता और भी अधिक रहेगी। तो वस्तुतः शासन-हीन समाज तभी हो सकता है, जब स्वतंत्र तथा स्वावलम्बी लोक शक्ति सहकार के आधार पर समाज-व्यवस्था कायम करके समाज से संचालन को ही विघटित कर सके। अर्थात् शासन-संचालित समाज के स्थान पर सहकारी समाज स्थापित हो सके ।

पर कम्युनिस्ट ऐसा करने के बदले प्रतिदिन शासन को अधिकाधिक व्यापक और दृढ़ करते जा रहे हैं। शासितों के हाथ में जब शासन रहेगा तो उसके परिणाम स्वरूप शासन का अन्त हो जायगा। कम्युनिस्ट इसे वैज्ञानिक दृष्टि मानते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ऐसा वैज्ञानिक या दार्शनिक आदर्श आखिरी मंजिल ही हो सकती है, अर्थात् वह रेखागणित की परिभाषा के बिन्दु के समान है। अतएव अगर इस आशा से कि अंत में जाकर समाज शासन शून्य हो जायगा, हम शासन का लगातार अधिक संगठित करते चलें तो यह आशा कभी पूरी नहीं हो सकती। यह कल्पना वास्तविक नहीं होती, स्वप्नवत् ही रहती है।

यही कारण है कि गाँधी जी साध्य और साधन की एकरूपता पर इतना अधिक जोर देते थे। गहराई से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जायगा कि विपरीत साधन द्वारा साध्य की ओर प्रगति असम्भव है। इसलिए शासन-मुक्ति की प्राप्ति के लिये शासन-निरपेक्ष स्वतंत्र जन शक्ति के संगठन द्वारा शासन की आवश्यकता को घटाते जाना ही सर्वोदय का मार्ग है। यही कारण है कि संत विनोबा ने भूमि समस्या का समाधान कानून के द्वारा न करवाके स्वतंत्र लोक शक्ति के भरोसे किया। उनका कहना है कि उनका साधन हिंसा शक्ति का विरोधी, दंड शक्ति से भिन्न, लोक शक्ति है।

इस सर्वोदय की क्राँति की प्रक्रिया से जन-शक्ति संगठन द्वारा शासन-संस्था का विघटन होता जाता है और उसकी प्रगति के साथ-साथ जन-स्वतंत्रता तथा शासन-हीनता की सिद्धि की ओर प्रगति होती रहती है। यह प्रगति जिस हद तक होती है, उस हद तक मानव शासन से मुक्त हो जाता है।


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