वर्तमान नाशलीला का नियंत्रण आध्यात्मिक शक्ति से होगा।

October 1958

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(श्री अम्बालाल पुराणी)

वर्तमान समय में जगत में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदर्शों का संघर्ष इतना अधिक बढ़ गया है कि उसके फलस्वरूप वातावरण अत्यन्त अशान्त हो गया है और अनेक बार तो मानव समाज का ही नाश होने के लक्षण दिखलाई पड़ने लगते हैं। इस कारण मानव हितैषी विद्वान् इन कठिनाइयों की आलोचना कर रहे हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि और हमको नाश के बजाय प्रकृति के पथ पर चलना है तो मानव-समाज का पुनर्संगठन या नव निर्माण करना अनिवार्य है। जब तक ऐसा न किया जायगा तब तक नई-नई कठिनाइयाँ सामने आती ही जायेंगी। इसलिए आवश्यकता है कि मानव-समाज का विधान जड़ मूल से बदल दिया जाय।

विकास सिद्धान्त की आलोचना से यह विदित होता है कि चैतन्य शक्ति अथवा चेतना जब जीवन के आदि स्वरूपों में होती हुई मानव रूप में प्रकट होती है, तो उसकी अपूर्ण अभिव्यक्ति में भी क्रमशः पूर्णता का आविर्भाव होने की शक्यता बढ़ती जाती है। पर मानव रूप में प्रकट होने से पहिले चेतना अपेक्षाकृत कम विकसित थी। मानव में प्रकट होने के पहले चेतना पाशव (पशु के रूप में) थी और उससे भी पहले यह जड़ता में समायी हुई लगभग अचेतन थी। परंतु जड़ मालूम पड़ने वाले पदार्थों में भी प्राण अप्रकट रूप से विद्यमान रहता है और समय आने पर उसी में से प्रकट हो जाता है। इसी प्रकार पशुओं में प्राण-शक्ति के साथ मनस्तत्व (मन की शक्ति) विचारने की शक्ति अप्रकट रूप से विद्यमान रहती है और समय आने पर उसी में से आविर्भूत होती है। इस क्रम को देखते हुये उत्क्रान्ति के सिद्धान्तानुसार यह आवश्यक जान पड़ता है कि समय आने पर मनुष्य में पाये जाने वाले मनस्तत्व में से अप्रकट रूप में बसी हुई मानसातीत विज्ञानमय चेतना प्रकट हो। चेतना मानवता में ही बँधे रहने को बाधित नहीं हैं। इसके स्वाभाविक विकास में ही मानवता से ऊपर उठने की संभावना निहित है। इसका अर्थ यह भी है कि इस सृष्टि में मनुष्य को ही सबसे उत्तम और अन्तिम प्राणी नहीं समझ लेना चाहिये, भविष्य में मनुष्य इससे अधिक उन्नति करके उन शक्तियों को प्राप्त कर सकता है, जो अभी उसमें नहीं है और जिनके फलस्वरूप आजकल के मनुष्य और भविष्य के उस प्राणी में उतना ही अंतर होगा जितना आज हम मनुष्य और पशु में देख रहे हैं।

यदि इस प्रकार मानवता से ऊर्ध्वारोहण करने की शक्यता को स्वीकार न किया जाय तो इसका मतलब यह होगा कि मानव शाश्वत काल तक अपूर्ण रहने के लिये बाध्य है। तब तो युग-युगान्तर से पूर्णता और दिव्यता के जो स्वप्न देखे जा रहे हैं, वे शेखचिल्ली के मनसूबे मात्र रह जायेंगे। मनोमय चेतना की साधना द्वारा जितना विकास साधा जा सकता है, उसे आज मानव पूरा कर चुका है। अतः अब उसके आगे कोल्हू के बैल की तरह गोल-गोल चक्कर लगाने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जायगा। पर ऐसी बात प्राकृतिक नियमों के विपरित है।

यह मानसातीत करण केवल कल्पना की बात नहीं है। प्राणियों के विकास-क्रम में देखा जाता है कि जब तक प्राण में से मानसिक शक्ति का विकास आरम्भ नहीं हुआ होता है तभी कहीं-कहीं मानसिक शक्तियों का अस्तित्व दिखाई पड़ने लगता है, मानो वह भविष्य में होने वाले विकास की सूचना देने आया हो। इसी प्रकार मानसिक चेतना के साथ-साथ ही हजारों वर्षों से हमें मानसातीत (मानसिक शक्ति के ऊपर की) शक्ति का कुछ न कुछ परिचय मिलता आया है। पर हाँ, अभी तक उसका कार्य अनियमित, थोड़ा-थोड़ा और एक दृष्टि से अपवाद स्वरूप दिखाई दिया है। मानव जाति के धर्म प्रवर्तकों, ऋषियों, द्रष्टाओं, कवियों, कला विधायकों तथा कर्मवीरों में यह अप्रस्फुटित तत्व समय-समय पर किसी न किसी रूप में कार्य करता दिखाई दे जाता है।

मानव ने अभी तक पूर्णता प्राप्त करने और आध्यात्मिक उन्नति के लिये अनेक प्रकार के प्रयत्न किये हैं। इसी उद्देश्य से बहुत से धर्मों और साधना प्रणालियों को जन्म दिया गया है। परंतु अभी तक सामान्य रूप में मनुष्य बाहरी क्रियाओं द्वारा आन्तरिक प्रगति की चेष्टा करता है। बहुत से देशों में तो धर्म या समाज की ओर से आन्तरिक जीवन के विकास की चेष्टाओं को अवैध ठहराया गया है। परंतु बाह्य जीवन को अनेक प्रकार से जकड़ने वाले भारतवर्ष में इस सम्बन्ध में सदा स्वतंत्रता रही है। इसके फलस्वरूप भारत ने इस राह में असाधारण उन्नति की है। आज यहाँ अनेक प्रकार की साधन-प्रणालियाँ मौजूद हैं और आध्यात्मिक जीवन की हर प्रकार की शक्यताओं को आजमाने के प्रयोग हो रहे हैं। उदाहरणार्थ योग-विज्ञान की खोज करने वालों ने ही ऐसी अनेक साधनायें निकाली हैं जिनसे मनुष्य मनोमय कोश से ऊपर उठकर विज्ञान मय और उससे ऊपर के कोशों तक पहुँच जाता है। पर इन विधियों और साधनाओं को थोड़े ही समय के भीतर बन्धन युक्त, जड़ता की पोषक और रूढ़िवादी बना दिया जाता है, वे प्राणहीन और शुष्क बन जाती हैं। तब केवल थोड़े से संसार से विरागी जन ही उनका अवलम्बन कर पाते हैं और समस्त मानव समाज के लिये वे निरर्थक ही बनी रहती हैं। आवश्यकता है कि यह सत्य सर्वदेशीय और सर्व कालीन हो। यह आवश्यक है कि जो सिद्धान्त एक बार केवल भारतीय चीज समझे जाते थे और जो भारतीय धर्मों द्वारा प्रसारित हुये थे, वे समस्त मानव जाति की वस्तु बन जायें। ऐसा होने पर ही वह मानव संस्कृति के लिये मार्गदर्शक ज्योति का काम दे सकते हैं। इसी लिये इन प्रणालियों को देश-काल की उपाधियों, विधियों तथा रूढ़ियों से मुक्त करने की आवश्यकता है। जरूरत तो इस बात की है कि साधना के भौतिक तत्वों का सर्व सामान्य मानस-शास्त्र अथवा चेतन शास्त्र की दृष्टि से निरूपण किया जाय।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, थियोसोफिकल सोसाइटी आदि ने पर्याप्त प्रयत्न किया है। इन दिनों श्री अरविन्द ने इस सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन करके योग- साधन की ऐसी प्रणाली निश्चित की है जिसका उद्देश्य थोड़े से साधुओं और विरक्तों को मुक्ति मार्ग दिखलाना नहीं वरन् समस्त मानव समाज की कायापलट कर देना है। इसका एक मुख्य सिद्धान्त यह है आध्यात्मिक तत्व को मनुष्य के समग्र जीवन के नियामक या संचालक के रूप में स्वीकार किया जाय। इस बात में तो कोई सन्देह नहीं कि अब वह समय आ पहुँचा है कि समस्त मानव-संस्कृति का समन्वय किया जाय और आध्यात्मिक तत्वों के आधार पर ही मानव-समाज का संचालन हो, क्योंकि जड़वाद (भौतिकवाद के सर्वनाशकारी परिणाम तो हमारी आँखों के सामने उपस्थित ही हैं। प्रकृति का रूपांतर करना ही जब उद्देश्य हो तो यह बात विशेष महत्व की माननी चाहिये कि अरविन्द की योग-साधना में प्रकृति को स्वीकार किया गया है। आज ऐसी बहुत सी प्रणालियाँ प्रचलित हैं जिनमें प्रकृति को स्वीकार तो किया गया है पर अंतिम उद्देश्य उसका त्याग ही बतलाया गया है। परन्तु श्री अरविन्द की प्रणाली में प्रगति के परिणाम स्वरूप जीवन को स्वीकार करना होगा, हाँ, यह जीवन आज के जीवन से भिन्न होगा, वह आज की अविद्या पर आधारित प्रकृति के बजाय विद्या पर आधारित प्रकृति के अनुकूल जीवन होगा। यह रूपांतर भगवती महाशक्ति की ही कृपा से साधा जा सकता है।

परंतु अविद्या प्रकृति के वशीभूत मानव का विद्या शक्ति अर्थात् परा शक्ति के आविर्भाव में रूपांतरित होना कोई सहज काम नहीं है, जो थोड़ा बहुत हेर-फेर कर लेने से ही पूरा हो जाय। यह काम केवल सर्व धर्म सहिष्णुता प्राप्त कर लेने से अथवा सभी धर्मों में प्रभु का साक्षात्कार कर लेने से भी नहीं चल सकता। इसके लिये तो मनोमय चेतना से ऊपर की ओर अधिक समर्थ नवीन करण को विकसित करना होगा। इस विषय में जगत प्रसिद्ध लेखक बर्नार्ड शा का यह कथन ठीक ही है कि “मनुष्य जैसा इस समय है यदि वैसा ही बना रहे तो वह वर्तमान समय की अपेक्षा अधिक उन्नति नहीं कर सकता।”

श्री अरविन्द की साधना में मनोमय चेतना से परे की चेतना के कार्य को सम्भव बनाने के लिये विज्ञानमय करण को विकसित करना ही मुख्य है। पर यह भी स्पष्ट है कि इस मानसातीत कारण के मानव में व्यवस्थित होने और नियमित रूप से कार्य करने के लिये यह आवश्यक है कि वर्तमान मानस और चित्तंत्र में मौलिक परिवर्तन किये जायें। उदाहरण के लिये जैसे अभी मानव द्वैत भाव प्रधान है, वहाँ द्वैत भाव हटाकर उसे सदैव अद्वैत की अनुभूति होती रहेगी, अभी वह बहिर्मुख है, नवीन करण के होने पर वह अन्तर्मुख होगा और अन्तर के केन्द्र में बैठ कर वहाँ से अपने सामान्य बाह्य जीवन का संचालन करेगा, आज प्राण की कामनाएं और भावनाएं, द्वन्द्वात्मक अनुभूतियाँ, बुद्धि और तर्क के मानसिक आदर्श मानव-जीवन का नियमन कर रहे हैं, परन्तु नवीन करण होने पर ऐसा न होगा, मनुष्य इन चीजों के अधीन न होगा। बुद्धि की तर्कणा उसकी नियामक न रहेगी, वरन् स्वयं बुद्धि उसके वश में आज्ञाकारी करण के रूप में रहेगी। चेतना की इस पुनर्घटना के पश्चात् मानव के कर्म करने का हेतु कामनाओं को संतुष्ट करना न रहेगा।

मनुष्य के इस नवीन विकास में मनुष्य की चेतना उसके अन्तर में एकाग्र होकर रहेगी। इसका अर्थ यह है कि वह अपनी आत्मा में केन्द्रीभूत होकर रहेगी, अपने आपको पूर्णतया भगवान के सुपुर्द कर देने की अभीप्सा रखेगी और प्रभु-प्राप्ति को ही अपने जीवन का परम पुरुषार्थ मानेगी। प्रभु को प्राप्त कर उन्हीं की प्रेरणा से वह जीवन में कार्य करेगी। जिनमें इस विज्ञानमय करण का विकास होगा वे अपनी आत्मा को व्यक्ति रूप में न देखकर विराट रूप में अनुभव करेंगे। वे देश,काल, धर्म, जाति, संस्कार इत्यादि की मर्यादाओं से भी सर्वथा मुक्त होंगे।

अन्त में यह प्रश्न होता है कि ऐसा संघ- जीवन किन तत्वों का आविष्कार करेगा और उसके परिणाम प्रत्यक्ष रूप में क्या होंगे। इस सम्बन्ध में श्री अरविन्द का कथन है कि (1) इसका आधार ऐक्य पर होगा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति भगवान की चेतना के साथ एकता का अनुभव करेगा और परिणामतः उन्हें परस्पर भी ऐक्य का अनुभव होगा (2) आदान-प्रदान प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग अन्य सबों के लिये करेगा और इस प्रकार जीवन समृद्ध, विशाल और सर्वग्राही बन जायगा। (3) एक ताल, एक स्वर—हर के काम में औरों के काम के साथ संवाद और समवाय होगा, क्योंकि सभी की प्रेरणा का मूल एक ही ऊर्ध्व चेतना में होगा। जैसे संगीत में विविध बाजे और उनके विविध ताल स्वर होने पर भी एकवादिता और संवाद पैदा हो जाता है, उसी प्रकार इस नवजीवन में भी सभी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों के परिणाम स्वरूप संवाद पैदा होगा।

यह सत्य है कि पिछले हजारों वर्षों से अनेक योगी, महात्मा और भक्त, मनुष्यों को ऐसा ही परमात्म-भाव रखने का उपदेश देते रहे हैं और स्वयं उन लोगों ने ऐसा जीवन व्यतीत भी किया है, पर उनकी संख्या बहुत ही कम होने और शेष मनुष्यों के अत्यन्त संकुचित और स्वार्थी विचारों का होने के कारण, मानव जाति पर उनका प्रभाव नहीं पड़ सका। पर उनके प्रयत्नों से धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना समष्टि की ओर आती जा रही है और आज यह संभव दिखाई पड़ रहा है कि कुछ सौ वर्षों के भीतर ही ऐसा समय आ सकता है जब मनुष्य सामान्यतया उस आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकें जो आज विरले महात्मा और संत कहे जाने वाले व्यक्तियों में ही पाई जाती है। ऐसा होने पर संसार का वर्तमान रूप भी बदल जायगा और वह एक नया युग होगा।


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