वर्ण भेद का आधार कर्म पर रखना अनिवार्य है।

October 1958

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(“एक समाज हितैषी”)

[वर्ण-भेद हिन्दू-जाति का सबसे बड़ा आधार है। हिन्दुओं में जैसी जात-पात की प्रथा दिखलाई पड़ती है वैसी संसार के किसी अन्य देश के निवासियों में नहीं है। यह जाति-प्रथा किसी भी कारण से कभी उत्पन्न हुई होगी और सम्भवतः उस समय यह समाज के लिये लाभकारी भी रही हो, पर वर्तमान समय में इसका रूप बहुत विकृत हो गया है और यह समाज की प्रगति में एक रोड़ा सिद्ध हो रही है। इस जात-पात की मनोवृत्ति ने हिन्दू समाज को बहुसंख्यक छोटे-बड़े टुकड़ों में बाँट दिया है, जिसके फल से हिन्दू जाति निर्बल बन गई और पारस्परिक फूट का भाव उत्पन्न हो गया। इसी फूट के कारण विदेशियों को भारतवर्ष पर आक्रमण करने और इस देश को दासत्व की शृंखलाओं में बाँधने का अवसर मिल सका था। प्रस्तुत लेख में भारतवर्ष के एक प्रमुख विद्वान ने जाति प्रथा की जो आलोचना की है वह कठोर होने पर भी अधिकाँश में सत्य है। हिन्दू जाति के शुभाकाँक्षियों का कर्तव्य है कि वे इन विचारों पर भलीभाँति मनन करें और इस घातक जाति-प्रथा को, जिसके कारण जन्म से ही किसी व्यक्ति को पतित और अयोग्य मान लिया जाता है, समाप्त करने या इसमें आवश्यकीय परिवर्तन करने को कटिबद्ध हो जायें। अन्यथा इस जाति को अभी और भी बुरे दिन देखने पड़ेंगे।]

हिन्दुओं के आचार शास्त्र पर वर्णभेद का प्रभाव बहुत खेद जनक हुआ है। वर्ण भेद ने सार्वजनिक भाव को मार डाला है। वर्ण भेद ने सार्वजनिक वदान्यता के भाव को भी नष्ट कर दिया है। वर्णभेद ने लोक मत को असम्भव बना दिया है। एक हिन्दू ‘जनता’ का अर्थ अपना वर्ण ही समझता है। उसका उत्तरदायित्व उसके स्वयं के ही वर्ण के प्रति माना जाता है। उसकी भक्ति अपने ही वर्ण तक परिमित है। वर्णभेद ने सद्गुणों को दबा दिया और सदाचार को जकड़ दिया है। सत्पात्र के लिये कोई सहानुभूति नहीं रही। गुणी के गुणों को कोई प्रशंसा नहीं। किसी को कष्ट में देखकर उसकी सहायता का भाव नहीं उत्पन्न होता। दान होता जरूर है, परन्तु वह अपने ही वर्ण से आरम्भ होकर अपने ही वर्ण तक समाप्त हो जाता है। सहानुभूति है, परन्तु दूसरे वर्णों के लोगों के लिये नहीं। क्या कोई हिन्दू वर्ण और जाति का ख्याल छोड़कर किसी बड़े और अच्छे मनुष्य को अपना नेता स्वीकार करेगा और उसके पीछे चलेगा? (महात्मा गाँधी को छोड़ दीजिये!) इसका उत्तर यही है कि हिन्दू उसी नेता के पीछे चलेगा, जो उसकी अपनी जाति का हो। एक ब्राह्मण तभी नेता के पीछे चलेगा जब कि वह ब्राह्मण हो। इसी प्रकार कायस्थ कायस्थ और बनिया बनिये को नेता मानेगा। अपनी जात-पाँत को छोड़ कर मनुष्य के सद्गुणों की कद्र करने की प्रवृत्ति हिन्दू-समाज ने खो दी है। सद्गुण की कद्र होती है, परन्तु केवल उस समय, जब कि गुणी उसका अपना जाति-बन्धु हो। हिन्दुओं की समस्त आचार नीति, जातीय नीति (ट्राइबल मोरेलिटी) हो गई है। मेरा जाति-भाई हो, चाहे वह ठीक कहता हो या गलत, मेरा जाति बन्धु हो चाहे अच्छा हो या बुरा। यह भावना पुण्य का पक्ष लेने या पाप का विरोध करने वाली नहीं कही जा सकती। यहाँ तो सिर्फ जाति का पक्ष लेने की बात है। क्या इस तरह हिन्दुओं ने अपने वर्णों और उपवर्णों के हितार्थ अपने देश के विरुद्ध विश्वासघात नहीं किया है?

अब प्रश्न यह है कि जाति-भेद की खराबी को मिटाया कैसे जाय? हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था का सुधार कैसे हो? यह प्रश्न बड़े ही महत्व का है। कुछ लोगों की सम्मति है कि जातिभेद को मिटाने के लिये पहले उपजातियों को मिटाना चाहिये। जिन लोगों का यह विचार है वे यह समझते हैं कि मुख्य जातियों की अपेक्षा उपजातियों के रीति रिवाज और सामाजिक स्थिति में अधिक समानता है। पर उनका यह विचार संपूर्ण भारत की सामाजिक अवस्था का ज्ञान न होने से उत्पन्न हुआ है और इसलिए अधिकाँश में गलत है। उदाहरण के लिये सामाजिक दृष्टि से उत्तरी और मध्य भारत के ब्राह्मण बम्बई और मद्रास के ब्राह्मणों की अपेक्षा नीचे दर्जे के हैं। सच पूछा जाय तो पूर्वोक्त का अधिकाँश भाग तो रसोई करने वालों और पानी भरने वालों का है। पर दक्षिणी ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति काफी ऊँची होती है। इसके विपरीत उत्तर भारत के वैश्य और कायस्थ दक्षिण भारत के ब्राह्मणों के समान उच्च स्थिति का उपभोग करते हैं।

फिर भोजन के विषय में बम्बई तथा मद्रास के ब्राह्मणों में, जो निरामिषभोजी हैं, और काश्मीर तथा बंगाल के ब्राह्मणों में, जो माँसाहारी हैं, कोई सादृश्य नहीं। इसके विपरीत बम्बई तथा मद्रास के ब्राह्मण भोजन की बातों में गुजराती मारवाड़ी बनिये और जैन आदि निरामिषभोजियों से अधिक मिलते हैं। इस प्रकार सामाजिक स्थिति के आधार पर कुछ उपजातियों का मिश्रण संभव माना जा सकता है, पर इससे कोई बड़ा लाभ नहीं हो सकता। उपजातियों के टूटने से मुख्य जातियों की शक्ति और अधिक बढ़ेगी जिससे वे निर्बलों का अधिक अनिष्ट करने लगेंगे।

जाति-भेद को नष्ट करने के लिये दूसरा उपाय अन्तरवर्णीय सहभोजों का प्रचार बतलाया गया है। पर यह भी विशेष कारगर नहीं, क्योंकि अनेक जाति ऐसी हैं जिनमें सहभोज की प्रथा है, पर इससे उनकी उपजातियों का भेदभाव दूर नहीं हो सका। बदलने का वास्तविक उपाय अन्तरवर्णीय या अन्तर्जातीय विवाह है। केवल रक्त का मिश्रण ही स्वजन और मित्र होने का भाव उत्पन्न कर सकता है। जब तक मित्र होने, भाई बन्धु होने का भाव प्रधान नहीं होता, तब तक जाति-भेद द्वारा उत्पन्न किया हुआ पृथकता का भाव, पराया होने का भाव, कभी दूर न होगा। जहाँ समाज पहले ही दूसरे बन्धनों से आपस में खूब ओत-प्रोत हो, वहाँ विवाह जीवन की साधारण सी घटना होती है। परन्तु जहाँ समाज कट कर टुकड़े-टुकड़े हो रहा हो, वहाँ इकट्ठा करने वाली शक्ति के रूप में विवाह एक अनिवार्य आवश्यकता की बात हो जाती है। इसके सिवा और कोई भी बात जाति-भेद को मिटाने का काम नहीं दे सकती।

कितने ही हिन्दू सुधारकों ने उपर्युक्त सचाई को समझ लिया है, तो भी हिन्दुओं की एक बहुत बड़ी संख्या रोटी-बेटी का सम्बन्ध करने को तैयार नहीं होती। इसका क्या कारण है? इसका एक यही उत्तर हो सकता है कि जात-पाँत तोड़ कर रोटी-बेटी का सम्बन्ध करना हिन्दुओं के उन आन्तरिक विश्वासों तथा सिद्धान्तों के विपरीत है जिन्हें हिन्दू पवित्र समझते हैं।


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