(श्री दौलतराम कटरहा, दमोह)
जो लोग ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते वे प्रार्थना भी नहीं करते, और उनके अनुसार प्रार्थना में समय बिताना बिल्कुल निष्फल है। कुछ अंशों में उनका कहना ठीक भी है क्योंकि प्रार्थना सर्व शक्तिमान नहीं है। मैं यदि जीभ का चटोरा हूँ तो प्रार्थना करने मात्र से ही कि हे परम पिता, मेरी जीव पर मेरा काबू हो जाए, मुझे अपनी जीभ पर ईशत्व प्राप्त नहीं होगा। पंचेन्द्रियों के विषयों के पीछे यदि मन दौड़ता है और मन यदि उन इन्द्रियों के वश में है तो निश्चय ही प्रार्थना करने मात्र से ही कोई दृष्टिगत लाभ नहीं होगा। अपने मन को काबू में लाने के लिए तो हमें अपनी ही इच्छा शक्ति या संकल्प शक्ति का प्रयोग करना होगा- इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर बुद्ध-मतावलंबी प्रार्थना में विश्वास नहीं करते। भगवान बुद्ध का वचन कि-
अत्ता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया- अर्थात् आत्मा स्वयं ही अपना स्वामी है? उससे बढ़कर दूसरा स्वामी और कौन है अतएव प्रार्थना किसकी करें और क्यों करें?- अतएव जहाँ तक पंचेन्द्रियों को वश में करने का सवाल है वहाँ ईश-प्रार्थना से थोड़ा बहुत आत्मा-बल मिलता भले ही दिखे पर उतना लाभ नहीं होता जितना कि अपनी आत्म-शक्ति पर भरोसा रखकर हर मौके पर अपनी संकल्प-शक्ति का प्रयोग करने से होता है? इतना होने पर भी प्रार्थना की अपनी विशेषता है। उससे वह कार्य हो सकता है जो संकल्प-शक्ति से नहीं हो सकता। प्रार्थना और संकल्प-शक्ति का अलग-अलग कार्य-क्षेत्र है और प्रत्येक अपने-अपने क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली है।
प्रार्थना कार्य है हमारी भावनाओं को समुन्नत सुसंस्कृत बनाना। हम अपनी ललित भावनाओं को ईश्वर के सामने निवेदित करते हैं, फिर प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर हमें आप ऐसा-ऐसा बनाइये। हम आपकी कृपा से अनासक्त बनें, निष्काम कार्य कर्त्ता बनें, निर्मम और वैराग्य संपन्न बनें, हमें आप अपनी अनन्य-भक्ति प्रदान कीजिये आदि आदि। तो इस प्रकार की प्रार्थना से हमारे जीवन का लक्ष्य दृढ़ होता है, उस पर हमारी अवस्था बढ़ती जाती है, और हमें दिग्-भ्रम नहीं होने पाता। इस प्रकार की प्रार्थना से निश्चयात्मिका बुद्धि-कार्या कार्य विषयक व्यवसायात्मिका बुद्धि सबल होती है और हमारी प्रज्ञा धीरे-धीरे स्थिर होती जाती है।
समस्त संशयों का धीरे-धीरे समाधान होता जाता है और भावी जीवन का कार्य-क्रम भी अपने ही आप सुस्पष्ट हो जाता है। यह सब जो कुछ होता है प्रार्थना से होता है। संकल्प-शक्ति के क्षेत्र के बाहर की यह बात है।
प्रार्थना का कार्य भावों को प्रेरणा देना है। तो यदि हम अपने अपराधों को क्षमा करने के लिए ईश्वर-प्रार्थना करें तो इससे शायद हीनता की भावना मिटने के अतिरिक्त और कुछ न होगा। प्रत्युत ऐसी अनुचित प्रार्थना से हानि की ही अधिक आशंका है। हमारे शहर में सद्विचारों वाले एक अध्यापक रहते हैं। दैव योग से कुछ वर्ष हुए कि उनका एक सोलह सत्रह वर्ष का लड़का मर गया तब से वे नास्तिक बन गये और ईश्वर पर से उनका विश्वास हट गया। अतएव यदि हम किसी वस्तु को पाने की कामना करते हैं, अपने अपराधों को क्षमा कराने के उद्देश्य से प्रार्थना करते हैं तो इससे लाभ की अपेक्षा हानि की ही अधिक संभावना है। प्रारब्ध कर्म का भोग तो हमें भोगना ही पड़ेगा। प्रार्थना से वह टल नहीं सकता, अतएव उसे माँगने की प्रार्थना बिल्कुल गलत है। इसलिए हमें प्रार्थना के कार्य क्षेत्र से पूर्णतया अवगत होना चाहिये। प्रारब्ध कर्म (प्रारम्भ हो गए कर्म) का भोग टालने की अपेक्षा यदि हम यह प्रार्थना करें कि प्रभो! हमें अपने कर्म के फल को भोगने की शक्ति दे, तो कहीं अधिक अच्छा है।
पंचेन्द्रियों को काबू में लाने के लिए जो प्रार्थना की जाती है उससे उतनी मात्रा में ही लाभ होता है जितनी मात्रा में कि उस प्रार्थना में आत्म-संकेत विद्यमान रहता है और आत्म-संकेत मात्र से भी कोई विशेष लाभ नहीं होता क्योंकि यदि आत्म-संकेत मात्र इतना प्रबल अस्त्र होता तो हम में से हजारों पूर्ण जितेन्द्रिय अति शीघ्र बन जाते। आत्म-संकेत द्वारा जो कुछ भी थोड़ा बहुत लाभ होता है वह आत्मसंकेत में किए गए एकाग्रता के प्रयोग का ही फल है। अतएव पंचेन्द्रियों को काबू में लाने के लिये जो प्रार्थना की जाती है और उससे जो कुछ आत्मबल मिलता हुआ प्रतीत होता है वह वस्तुतः एकाग्रता के प्रयोग से मिलता है- कोरी प्रार्थना से नहीं। अतएव अपनी इन्द्रियों पर काबू पाने के हेतु प्रार्थना करना बेकार है- इस हेतु तो अपनी संकल्प-शक्ति का प्रयोग ही अभीष्ट है॥
जिस प्रकार इन्द्रियों को वश में लाने के हेतु प्रार्थना करना अधिक लाभदायक नहीं है उसी प्रकार मान-अपमान सुख-दुख आदि सहने की शक्ति प्राप्त करने के हेतु भी प्रार्थना करना अधिक लाभदायक नहीं है। हम जब प्रार्थना करते हैं कि दुःसह पुरुष वचन सुनकर भी उसकी अग्नि में हम न जलें, अवज्ञा पूर्ण किए गए कार्यों से हम उद्विग्न न हों, निंदा सुनकर हम दुःखी न हों, हर प्रकार की बाधा, उपद्रव, अपराध और परेशानी को शाँत चित्त से हम सुनें, हम में कभी झुँझलाहट या खीझ पैदा न हो तो इस प्रकार की प्रार्थना से हम एक मनोभावना का निर्माण करते हैं और अपने आपको कुछ आत्म-संकेत भी देते हैं पर इस प्रकार की प्रार्थना से अधिक फल मिलने वाला नहीं है। अभीष्ट फल हमें प्राप्त होगा मन को शाँत और विक्षेपहीन करने के प्रयत्नों द्वारा और यह होगा एकाग्रता का अभ्यास करने से- ध्यान से। अतएव हमें प्रार्थना से क्या फल होगा और क्या फल नहीं होगा यह अच्छी तरह जानकर ही उचित प्रार्थना करना सीखना चाहिये अन्यथा लक्ष्य की शीघ्र प्राप्ति न होगी, हम भटकते ही रहेंगे और हमारी प्रार्थना और प्रयत्न विफल होंगे।