श्रद्धा, धैर्य साहस, विवेक और विश्वास से ही इन पर विजय हो सकेगी।
संसार में जिन अनेक प्रकार के दुखों से प्राणी दुख पाते हैं उन सब का मूल कारण कुबुद्धि, दुर्भावना और दुष्कृति है। मनःक्षेत्र में कुविचार और क्रिया क्षेत्र में कुकर्म कराने वाले इस दुखदायी, अधर्म मूलक तत्व को असुरता कहते हैं। सुख-शांतिदायक दैवी तत्व और दुख दारिद्र उत्पादक आसुरी तत्व दोनों ही सृष्टि में अनादि काल से मौजूद हैं। जब दैवी तत्व प्रकृति के अन्तराल में बढ़े हुए होते हैं तब समस्त मनुष्य जाति– सम्पूर्ण सृष्टि सुख-शान्ति उन्नति और आनन्द का आस्वादन करती है और जब असुरता बढ़ जाती है तो आज की भाँति सब कोई दैविक, दैहिक भौतिक त्रासों के कारण भारी परेशानी और पीड़ा-कष्ट भोगते हैं।
असुरता को नष्ट करने वाली दिव्य प्रक्रियाओं का नाम यज्ञ है। यों सभी लोकहित कर, धर्म पूर्ण कार्य यज्ञ है पर उन सबमें अग्निहोत्र का—हवन का—स्थान सर्वोपरि है। अपना नष्ट होना कोई भी पसन्द नहीं करता, असुरता को भी पसन्द नहीं। वह अपने प्रतिरोधी आयोजनों को असफल बनाने का प्रयत्न करती है। विश्वामित्र ऋषि के यज्ञों को ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि असुर ऐसे ही विघ्न उत्पन्न करते थे जिनसे दुखी होकर उन्हें राजा दशरथ के पास उनके पुत्र माँगने जाना पड़ा था।
असुरों का मायावी होना प्रसिद्ध है। माया, छल, प्रपञ्च, चालाकी, कूटनीति, भ्रान्ति षडयंत्र रचना की उनकी नीति प्रमुख है। उसी के आधार पर वे अपने से असंख्य गुने बलवान देवताओं को परास्त कर देते हैं। देवता सीधे, भोले, सरल, सत्यवादी, सौम्य, मर्यादा के अन्दर रहने वाले, अहिंसक और क्षमाशील होते हैं। असुर इन विशेषताओं से अनुचित लाभ उठाकर अपनी रक्षा सहज ही कर लेते हैं और देवताओं के विरुद्ध कोई ऐसा छल, प्रपञ्च, जालसाजी और धूर्तता भरा षड़यन्त्र करते हैं, जिससे बेखबर होने के कारण देवता बेचारे फँस जाते हैं और उनके प्रपंच पाश में बँधकर त्रास सहते हैं। यों अन्त में विजयी सदा देवता ही होते हैं क्योंकि उनका आधार सत्य है। असुर हारते हैं क्योंकि उनकी शक्ति केवल मात्र असत्य, छल, प्रपंच, अनीति और माया पर अवलंबित है। पर पहली बाजी में तत्काल लाभ असुरों को ही मिलता है। माया भरे प्रपञ्च पहली बाजी में बहुधा जीतते हैं। यही कठिनाई ऋषियों और देवताओं की पराजय का कारण बनती है। इन परिस्थितियों से पार पाने में जब सौम्यता असफल रही है तब बहुधा अवतारों के रूप में कोई योद्धा अवतारित होकर काँटे से काँटा निकालने की नीति लेकर असुरता पर विजय प्राप्त करने आगे आया है। राम, कृष्ण, दुर्गा, परशुराम, नृसिंह, कच्छ, मच्छ, वाराह आदि के अवतार इन्हीं प्रयोजनों के लिए हुए हैं।
ताण्डव ब्राह्मण की कथा है कि एक बार असुर चुपचाप अन्न में घुस गये ताकि उन्हें देवता खालें और वे उनके शरीर और मन में प्रवेश करके अपना आधिपत्य जमा लें। इन्द्र ने इस चाल को पकड़ा और असुरों को अन्त में मार भगाया। राजा परीक्षित के मुकुट में चढ़कर उससे लोमश ऋषि के गले में साँप डलवाना, कैकई और मन्थरा की जिह्वा पर बैठ कर उससे कुछ का कुछ कहलवाना, इन्हीं अदृश्य शक्तियों का कार्य था।
गायत्री परिवार का यज्ञ आन्दोलन परम पवित्र सतोगुणी, विश्व कल्याण कारिणी, शास्त्रोक्त एवं इस युग की अत्यन्त उच्च कोटि की आध्यात्मिक शक्तियों की प्रेरणा द्वारा संचालित होने तथा व्यवहारतः किसी व्यक्ति या वर्ग के लिए किसी प्रकार की स्वार्थपरता की गुंजाइश न रहने के कारण इस स्थिति में है कि उस पर उंगली उठाने का दुस्साहस कर सकता कठिन है। इस महा अभियान का सूत्र संचालन करते हुए ऐसे प्रत्येक पहलू को भली प्रकार शुद्ध रखने का प्रबन्ध कर लिया गया है जिन पर उंगली उठा करती हैं। किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत स्वार्थ, आर्थिक गड़बड़ी, शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन, कोई राजनैतिक या दलगत स्वार्थ जैसी सम्भावनाओं से इस कार्यक्रम को कोसों दूर रखा गया है। ताकि इस महान् प्रक्रिया की नींव मजबूत रहे और ठोस आधार पर कुछ गम्भीर कार्य किया जा सके।
फिर भी असुरता से सब द्वार बन्द हो जायं और उसे कोई मार्ग न मिले ऐसी बात नहीं है। यज्ञों द्वारा अपने अस्तित्व को खतरे में देखकर क्रुद्ध असुरता कोई हथियार न उठाये ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा कभी हुआ भी नहीं है। अब भी नहीं हो रहा है, आगे भी ऐसा न हुआ न होगा। यज्ञ आन्दोलन की युग परिवर्तन कारी इस महान् योजना को चुपचाप चलने दिया जाय, सफल होने दिया जाय और आसुरी शक्तियाँ उसमें कोई विघ्न, प्रतिरोध अड़चन पैदा न करें यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। यदि विघ्न न आवें, प्रतिरोध न हो तो समझना चाहिए कि अपना कार्यक्रम निकम्मा है, उससे कोई ऐसी शक्ति उत्पन्न नहीं हो रही है जिसकी असुरता को चिन्ता हो। प्रतिरोध की उत्कटता अपने कार्य की वास्तविकता की एक जीती जागती कसौटी है।
पिछले दिनों भारतवर्ष में 108 यज्ञों का जो संकल्प पूर्ण हुआ है, उसके जो समाचार यहाँ आये हैं उनमें जनता की धार्मिक गहरी आस्था और धर्मप्रेमी व्यक्तियों के प्रचंड उत्साह का परिचय पाकर किसी भी धर्म प्रेमी का हृदय आनंद से उल्लसित हुए बिना न रहेगा। पर साथ ही विरोध, अड़चन; विघ्न, प्रतिरोध आदि के समाचार भी कम नहीं आये हैं जो बताते है कि असुरता किन किन छद्म वेशों से आक्रमण का मोर्चा बना रही है। जिनके मन में कुछ अनुकूल स्थिति पाई उनके मनों में असुरता ने ईर्ष्या, द्वेष, जलन, अहंकार, स्वार्थपरता जैसी वृत्तियों को उभार कर उन्हें खुला तो नहीं पर अप्रत्यक्ष विरोधी, अड़चन पैदा करना वाला कानाफूसी करने वाला, असहयोगी बना दिया। उनने लोगों के मनों में उत्साह सहयोग उत्पन्न करने के स्थान पर असहयोग, अश्रद्धा, अनुत्साह, विरोध, भय, भ्रान्ति आदि की स्थिति पैदा करने में कोई कसर न छोड़ी। इस कार्य में वे पंडित जिन्हें प्रचुर दक्षिणा में, अपनी प्रभु सत्ता में कोई कमी पड़ती दीखी वे सबसे आगे रहे। ईर्ष्यालु, अहंकारी, विघ्न संतोषी, निन्दक, छिद्रान्वेषी, उन खलों की जिनकी गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण के प्रारंभ में ही भूरि भूरि वन्दना की है कहीं कमी नहीं। अपने मन की दुर्गन्धि को वे किसी पवित्र से पवित्र वस्तु पर भी उड़ेल सकते हैं।
यों अभी कोई महत्वपूर्ण विरोधात्मक घटना नहीं घटी पर उनकी संभावना अवश्य है। जैसे जैसे देवताओं की यज्ञ शक्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे असुरता भी सक्रिय होगी। बढ़ती हुई विरोधी भीड़ को जब पुलिस हटाना चाहती है तो पहले अश्रुगैस छोड़कर डराती है, फिर भी स्थिति काबू में न आई तो लाठी चार्ज करके घायल करती है और अन्त में कोई उपाय शेष नहीं रहता तो गोली चलाती है। यज्ञ अभियान के क्रमिक विकास में भी यह स्थिति सामने आनी हैं। प्रारंभिक स्थिति में यज्ञ को खाद्य पदार्थ जलाने की बेवकूफी बताने, आयोजन कर्ताओं का कोई स्वार्थ ढूंढ़ने, उन पर झूठे मनगढ़ंत अभियोग लांछन लगा कर अविश्वास, असन्तोष, अनुत्साह, अश्रद्धा, असहयोग पैदा करने, शास्त्र के अनजानों द्वारा शास्त्रीय विरोध की मीनमेख निकालना जैसी बातें सामने आयेंगी। यह अश्रु गैस का प्रयोग है। आन्दोलन की दूसरी विकसित स्थिति में अनेक सम्प्रदाय हमें अपना प्रभाव क्षीण करने वाला शत्रु मानेंगे, नास्तिक इसे आस्तिकता का पुनः बोलबाला होने का खतरा समझेंगे, समाज द्रोही कुकर्मी लोग अपने विरुद्ध एक भारी संकट अनुभव करेंगे, इस प्रकार चारों और से अधिक कटु-कठोर आदि चोट पहुंचाने वाले आक्रमण संगठित हो सकते हैं। गाली गलौज, हाथापाई, तिरस्कार, नोटिसबाजी, चोरी आगाजनी, मारपीट, बदनामी करने वाले मन गढ़ंत आरोप, आदि अनेक प्रकार के षडयंत्र हो सकते हैं। यह एक प्रकार का लाठीचार्ज है। अन्तिम स्थिति में इस महान अभियान के संयोजकों के सामने वैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जैसी से डर कर विश्वामित्र भाग खड़े हुए थे और ईसामसीह, सुकरात, दयानंद, हरिश्चंद्र, चैतन्य मीरा, विक्रमादित्य, पाण्डव, हरिश्चन्द्र प्रहलाद आदि को बहुत कुछ सहन करना पड़ा था।
इन प्रतिरोधों की संभावना से क्या हम डर जायं? क्या इस आज की स्थिति में संसार की सुख शांति को बचा सकने वाले एक महान कर्तव्य को छोड़ बैठे? नहीं ऐसा करना तो एक निकृष्ट कोटि की कायरता होगी। जंगल में अकेली घिरी हुई गाय के ऊपर जब भेड़ियों का झुण्ड आक्रमण कर रहा हो वीर पुरुष दया द्रवित होकर अपने शौर्य की जागृति करते हैं और गाय को बचाने में संभावित खतरे का मुकाबला करते हैं। इसी प्रकार की सार्वभौम स्थिति आज है। असुरता ने मानवता को डस लिया है। ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, अनीति, कृतघ्नता, आलस्य, प्रमाद, असत्य, हिंसा मलीनता, अनैतिकता, उच्छृंखलता, नास्तिकता आदि दुवृत्तियों ने मानवता को सब प्रकार पददलित करके मनुष्य जाति को दुख, दारिद्रय केश, चिन्ता, भय, शोक आदि से संत्रस्त कर रखा है। इस स्थिति से उद्धार पाने के लिए जिन शुभ कर्मों का, दिव्य आयोजनों का करना आज आवश्यक है उनमें यज्ञ अभियान की उपयोगिता सर्वोपरि है। केवल इस कारण कि कुछ विरोध, नुकसान, अपमान, लाँछन या आक्रमण सहना पड़ेगा चुप हो बैठना किसी भी प्रकार धर्म प्रिय जागृत आत्माओं के लिए उचित न होगा। हमें किसी भी दबाव से अनुचित को सहन करने के लिए तैयार नहीं होना चाहिए।
आज की प्रचण्ड असुरता का समाधान करने के लिए सद्बुद्धि रूपिणी गायत्री माता और त्याग मय प्रेम के प्रतीक यज्ञ पिता का दसों दशाओं में तुमुल घोष करना आवश्यक, अनिवार्य और अवश्यंभावी है। यह हो रहा है, होने वाला है ओर होगा, गायत्री परिवार के ऊपर यह श्रेय भार अनायास ही अप्रत्याशित रूप से आ पड़ा है। जो प्रभु प्रेरणा दे उसे रोका भी कैसे जाय, रुके भी कैसे? हम लोग यह सब कर रहें हैं। करेंगे, और करना पड़ेगा। जब यह सब होना ही रहा तो इसकी गतिविधि को जन्म ही लेना चाहिये। हमें पूर्ण दृढ़ता और श्रद्धा से आत्म निर्माण, चरित्र गठन नैतिकता, सद्बुद्धि, त्यागमय प्रेम, आस्तिकता- मानवता कर्तव्य पालन, विश्व बन्धुत्व सत्य, न्याय, प्रेम से परिपूर्ण इस महान साँस्कृतिक पुनरुत्थान के कार्यक्रम को आगे बढ़ना साथ ही किन किन कठिनाइयों और प्रतिरोध पूर्ण परिस्थिओं में होकर गुजरना पड़ेगा यह जान लेना आवश्यक है। इस से डरने और विचलित होने की किसी को भी आवश्यकता नहीं है। साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना के अंतर्गत यज्ञ आयोजनों में अनेक प्रकार के लाँछनों, उपहासों, विरोधों एवं कठिनाइयों के लिए हर कार्यकर्ता को पहले से ही तैयार रहना चाहिए और अवसर आने पर उनका हँसते हुए स्वागत करना चाहिये।
हमारी मंजिल बहुत बड़ी है, रास्ता कठिन है। उत्तरदायित्व महान है। इस बोझ को हम संगठित होकर मानसिक संतुलन कायम रखकर धैर्य, साहस, विवेक को मजबूती से पकड़े रहकर ही पूरा कर सकते हैं। गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य को इन संभावनाओं को भली प्रकार समझ लेने और पूर्ण आस्था तथा विश्वास के साथ लोक सेवा एवं आत्मकल्याण के इस अलौकिक मार्ग पर अग्रसर होने के लिए सादर आमन्त्रित करते हैं।