यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम्। विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते।।
जिसके हाथ, पैर और मन भली भाँति संयमित हैं अर्थात् जिसके हाथ सेवा में लगे हैं, पैर तीर्थादि भगवत्- स्थानों में जाते हैं और मन भगवान् के चिन्तन में संलग्न है, जिसको अध्यात्मविद्या प्राप्त है, जो धर्म पालन के लिये कष्ट सहता है, जिसकी भगवान् के कृपा पात्र के रूप में कीर्ति है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त होता है।
प्रतिग्रहादुपावृत्तः सुतष्टो येन केनचित्। अहंकारविमुक्तश्च स तीर्थफलमश्नुते।।
जो प्रतिग्रह नहीं लेता, जो अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी मिल जाये उसी में सन्तुष्ट रहता है तथा जिसमें अहंकार का सर्वथा अभाव है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त होता है।
अदम्भको निरारम्भो लघ्वाहारो जिलेन्द्रियः। अमुक्तः सर्वसंगैर्यः स तीर्थफलमश्नुते।।
जो पाखण्ड नहीं करता, नये-नये कामों को आरम्भ नहीं करता, थोड़ा आहार करता है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, सब प्रकार की आसक्तियों से छूटा हुआ है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त होता है।
अकोपनोऽमलमतिः सत्यवादी दृढव्रतः। आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्नुते।।
जिसमें क्रोध नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्य बोलता है, व्रत-पालन में दृढ़ है और सब प्राणियों में अपने आत्मा के समान अनुभव करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त होता है।
तीर्थन्यनुसरन् धीरः श्रद्दघानः समाहितः। कृतपापो विशुद्धयेत किं पुनः शुद्धकर्मकृत।।
जो तीर्थों का सेवन करने वाला धैर्यवान्, श्रद्धायुक्त और एकाग्रचित्त है, वह पहले का पापाचारी भी हो तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म वाला है, उसकी तो बात ही क्या है।
अश्रद्दघानःपापात्मा नास्तिकोऽच्छिन्नसंशयः। हेतुनिष्ठश्च पञ्चैते न तींर्थफलभागिनः।।
(स्कन्दपुराण)
जो अश्रद्धालु पापात्मा ( पाप का पुतला पाप में गौरव बुद्धि रखने वाला ) नास्तिक, संशयात्मा और केवल तर्क में ही डूबा रहता है- ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थ के फल को प्राप्त नहीं करते।
नृणां पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत्। यथोक्तफलदं तीर्थे भवेच्छुद्धात्मनां णाम्।।
पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्यों के लिये तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।
काम क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थमाविशेत्। न तेन किंचिदप्राप्तं तीर्थाभिगमनाद् भवेत्।।
जो काम, क्रोध और लोभ को जीत कर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थ यात्रा से कोई वस्तु अलभ्य नहीं रहती।
तीर्थानि च यथोक्ते विधिना संचरन्ति ये। सर्वद्वन्द्वसहा धीरास्ते नराः र्स्वगगामिनः।।
जो यथोक्त विधि से तीर्थ यात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।
गंगादितीर्थेषु वसन्ति मत्स्या देवालये पक्षिगणाश्च सन्ति। भावोज्झितास्ते न फलं लभन्ते तीर्थाश्च देवायतनाच्च मुख्यात्।। भावं ततो हृत्कमले निधाय तीर्थानि सेवेत् समाहितात्मा।
(नारदपुराण)
गंगा आदि तीर्थों में मछलियाँ निवास करती हैं, देव मन्दिरों में पक्षीगण रहते हैं किन्तु उनके चित्त भक्ति-भाव से रहित होने के कारण उन्हें तीर्थ सेवन और देव मन्दिर में निवास करने से कोई फल नहीं मिलता। अतः हृदय कमल में भाव का संग्रह करके एकाग्रचित्त होकर तीर्थ सेवन करना चाहिये।
सत्यं तीर्थ क्षमा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनियहः। सर्वभूतदया तीर्थ तीर्थमार्जवमेव च।।
सत्य तीर्थ है क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना भी तीर्थ है, सब प्राणियों पर दया करना तीर्थ है और सरलता भी तीर्थ है।
दानं तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थ मुच्यते। ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता।।
दान तीर्थ है, मनका संयम तीर्थ है, संतोष भी तीर्थ कहा जाता है। ब्रह्मचर्य परम तीर्थ है और प्रिय वचन बोलना भी तीर्थ है।
ज्ञानं तीर्थं घ्टतिस्तीर्थं तपस्तीर्थ मुदाहृतम्। तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मंनसः परा।।
ज्ञान तीर्थ है, घ्टति तीर्थ है तप भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थों में भी सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है अन्तःकरण की आत्यन्तिक विशुद्धि।
न जलाप्लुतदेहस्त स्नानमित्यभिधीयते। प स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्धमनोमलः।।
जल में शरीर को डुबो लेना ही स्नान नहीं कहलाता। जिसने दम तीर्थ स्नान किया है- मन-इन्द्रियों को वश में कर रक्खा है, उसी ने वास्तव में स्नान किया है। जिसने मन का मल धो डाला है, वही शुद्ध है।
यो लुब्धः पिशुनः क्रूरो दाम्भिको विषयात्मकः। सर्वतीर्थेष्वपि स्नातः पापो मलिन एव सः।।
जो लोभी है, चुगलखोर है,निर्दय है, दंभी है और विषयासक्त है, वह सब तीर्थों में स्नान करके भी पापी और मलिन ही रह जाता है।
न शरीरमलत्यागान्नरो भवति निर्मलः। मानसे तु मले त्यक्ते भवत्यन्तः सुनिर्मलः।।
केवल शरीर के मैल को उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से अत्यन्त निर्मल होता है।
जायन्ते च म्रियन्ते च जलेष्वेव जलौकसः। न च गच्छन्ति ते र्स्वगभविशुद्धमनोमलाः।।
जल में निवास करने वाले जीव जल में ही जन्मते और मरते हैं, पर उनका मानसिक मल नहीं धुलता, इससे वे स्वर्ग को नहीं जाते।
विषयेष्वतिसंरागो मानसो मल उच्यते। तेष्वेव हि विरागोऽस्य नैर्मल्यं समुदाहृतम्।।
विषयों के प्रति अत्यन्त आसक्ति को ही मानसिक मल कहा जाता है और उन विषयों में वैराग्य होना ही निर्मलता कहलाती है।
चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानान्न शुद्धयति। शतशोऽपि जलैर्धौतं सुराभाण्डमिवाशुचिः।।
चित्त के भीतर यदि दोष भरा है तो वह तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं होता। जैसे मदिरा से भरे हुए घड़े को ऊपर से जल द्वारा सैकड़ों बार धोया जाय तो भी वह पवित्र नहीं होता। उसी प्रकार दूषित अन्तःकरण वाला मनुष्य भी तीर्थ स्नान से शुद्ध नहीं होता।
दानमिज्या तपः शौचं तीर्थसेवा श्रुतं तथा। सर्वाण्येतान्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः।।
भीतर का भाव शुद्ध न हो तो दान, यज्ञ, तप, शौच, तीर्थसेवन, शास्त्रश्रवण और स्वाध्याय- ये सभी अतीर्थ हो जाते हैं।
निगृहीतेन्द्रियग्रामो यत्रैव च वसेन्नरः।
तत्र तस्य कुरुक्षेत्रं नैमिषं पुष्कराणि च।।
जिसने इन्द्रिय समूह को वश में कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ भी निवास करता है, वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हैं।
ध्यानपूते ज्ञानजले रागद्वेषमलापहे। यः स्नाति मानसे तीर्थे स याति परमां गतिम्।।
ध्यान के द्वारा पवित्र तथा ज्ञानरूपी जल से भरे हुए,राग-द्वेष रूप मल को, दूर करने वाले मानस-तीर्थ में जो पुरुष स्नान करता है, वह परम गति- मोक्ष को प्राप्त होता है।