तीर्थ यात्रा का महत्व

September 1956

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वलीपलितदेहो वा यौवनेनान्वितोऽपि वा ज्ञात्वा मृत्युमनिस्तीर्यें हरिं शरणमाव्रजेत्।। तत्कीर्तने तच्छ्रवणे वन्दने तस्य पूजते। मतिरवे प्रकर्तव्या नान्यत्र वनितादिषु।। सर्व नश्वरमालोक्य क्षणस्थायि स्रुदुःखदम्।। जन्ममृत्युजातीतं भक्तिवल्लभमच्यृतम्। स हरिर्ज्ञायते साधुलंगमात् पापवर्जितात्। येषां कृपातः पुरुषा भवन्त्यसुखवर्जिताः।। ते आधवः शान्तरागाः कामलोभविवर्जिताः। ब्रुवन्ति यन्महाराज तत् संसारनिवर्तकम्।। तीर्थेषु लभ्यते साधू रामचन्द्रपरायणः। यद्दर्शनं नृणां पापराशिदाहाशुशुक्षणिः।। तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यं नरैः संसारभीरुभिः। पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणिविराजिषु।। (पद्मपुराण, पातालखण्ड 19)

(मनुष्य-जीवन का प्रधान उद्देश्य और एकमात्र परम लाभ है- भगवत्प्राप्ति।) मनुष्य के शरीर में चाहे झुर्रियाँ पड़ गयी हों, सिर के बाल पक गये हों अथवा वह अभी नवयुवक ही हो, आयी हुई मृत्यु को कोई टाल नहीं सकता- यों समझकर (भगवत्प्राप्ति के लिये) भगवान् के शरण जाना चाहिये तथा भगवान् के कीर्तन, श्रवण, वन्दन और पूजन में मन लगाना चाहिये, स्त्रीपुत्रादि अन्य संसारी वस्तुओं में नहीं। यह सारा प्रपञ्च नाशवान्, क्षणभर रहने वाला तथा अत्यन्त दुःख देने वाला है; परन्तु श्रीभगवान् जन्म-मृत्यु और जरासे परे हैं (वे नित्य सत्य हैं) और भक्ति देवी के प्राणवल्लभ तथा अच्युत (सदा अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित) हैं यह विचार-कर भगवान् का भजन करना उचित है।

भगवान का (उनके स्वरूप, तत्त्व, गुण, लीला नाम आदि का) ज्ञान होता है पाप रहित साधु संग से। साधु (वे नहीं है जो केवल नाम धारी हैं और मन से नहीं हैं; साधु वस्तुतः) वे हैं, जिनका लोक-परलोक के विषयों में आसक्ति नहीं रह गयी है, जिनके मन में काम संकल्प नहीं है तथा जो लोभ से रहित हैं अर्थात् जो अनासक्त तथा धन और स्त्री से किसी प्रकार मानसिक संपर्क भी नहीं रखते। ऐसे साधु जो उपदेश देते हैं, उससे संसार का बन्धन छूट जाता है (भगवत्प्राप्ति हो जाती है)। ऐसे भगवान् श्रीराम चन्द्र जी के भजन में लगे हुए साधु मिलते- तीर्थों में। इनका दर्शन मनुष्यों के पाप के ढेर को जला डालने के लिए अग्नि का काम करता है। इसलिये जो लोग संसार से डरे हुये अर्थात् संसार बन्धन से छूटना चाहते हैं, उनको पवित्र जल वाले तीर्थों में, जो सदा साधु-महात्माओं के सहवास से सुशोभित रहते हैं, अवश्य जाना चाहिये।


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