मन की दुर्बलता के कारण

September 1956

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

( 1 )

एक व्यक्ति लिखते हैं, “मुझे मिठाई का बड़ा शौक है। जब कभी मैं मिठाई की किसी दुकान के आगे से गुजरता हूँ, और मेरी जेब में पैसे होते हैं, तो मैं जरूर मिठाई खरीदता हूं और जब तक सब पैसे समाप्त नहीं हो जाते, मिठाई खाता ही रहता हूँ। घर पर भी मीठे की ओर मेरा मन दौड़ा करता है। और कुछ नहीं तो शक्कर ही फांकता हूँ। शरबत पीता हूँ। मिठाई की इस लत से मूत्र में शक्कर आने लगा है और अब मैं बीमार भी रहने लगा हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरी बीमारी का कारण यही मिठाई की आदत है। इसी ने मुझे बीमार किया है। कौन जाने यही मेरे प्राण भी ले ले; पर अभी तक अवसर पाते ही मैं मिठाई की ओर बुरी तरह झुक जाता हूं। मैं क्या करूं?”

एक अन्य सज्जन वासना के बारे में लिखते हैं कि वे वासना से बुरी तरह परेशान हैं। अनेक बच्चों के पिता हैं। पत्नी परेशान है। वे स्वयं अपनी मूर्खता जानते हैं, पर वासना के वशीभूत हो कुछ का कुछ कर बैठते हैं। और फिर पछताते हैं। जानते बूझते भी अपने मन की दुर्बलता के कारण संसार के बन्धन में फंसे हुए हैं।

अपने क्रोध के आवेश की बातें करते हुए एक मित्र एक बार कह रहे थे, “क्या बताएं, जब हम देखते हैं कि दूसरा व्यक्ति सरासर गलत बात कह रहा है, बेवकूफी के तर्क दे रहा है, और आगे आने वाली कठिनाई की और ध्यान ही नहीं दे रहा है, तो इनमें उद्विग्नता आ जाती है। हम भी उत्तेजित हो उठते हैं। हम किसी के दबैल नहीं हैं; किसी से माँग कर नहीं खाते हैं। फिर क्यों दबें? पर क्या बताएं क्रोध के आवेश में हम प्रायः ऐसा कह बैठते हैं जिस पर हमें पछताना पड़ता है। मित्रताएं टूट जाती हैं। हम अपने आवेश की कमजोरी जानते है, पर क्या बताएं इस दुर्बलता से छूट नहीं पा रहे हैं।

एक सज्जन चिन्ता की आदत से परेशान हैं। उनके पास स्वास्थ्य है, धन है; मान प्रतिष्ठा भी है पर न जाने कैसे उन्हें यह भ्रम हो गया कि मेरे भविष्य में कुछ न कुछ अनिष्ट होने वाला है, मेरा स्वास्थ्य खराब हो जायगा, मेरे परिवार वाले मुझे धोखा दे देंगे, मेरी जीविका छिन जायेगी। वे इसी प्रकार की नाना छोटी-बड़ी चिन्ताओं में डूबे रहते हैं। उनकी चिन्ता का आधार कुछ नहीं केवल कल्पित भय मात्र है, पर वे उसी तुच्छ सी बात के लिए परेशान रहते हैं। अनहोनी बातों की चिन्ता में बैठकर समय नष्ट करते हैं। नैराश्य पूर्ण विचारों के साथ-साथ उनका मस्तिष्क गुप्त कल्पित भयपूर्ण विचारों की शृंखला में आबद्ध है। वे सदैव कल की चिन्ता ही किया करते हैं। निरन्तर चिन्ता का मानसिक अभ्यास करने से अब उनका मानसिक संस्थान दुःख और भय से परिपूर्ण हो उठा है।

हमारे एक शिष्य की आदत है कि वह स्वप्नों के संसार में रहता है। कोई नई अजीब बात होने वाली है, कुछ न कुछ ऐसा परिवर्तन होगा कि स्थिति मेरे अनुकूल पड़ जायगी और मेरा जीवन पूर्वजों से अधिक सुन्दर, सुखमय तथा शक्तिशाली हो जायगा। यह कवि संसार की वास्तविकता को नहीं जानता। मनुष्य को उन्नति करने में जिस घोर संघर्ष का सामना करना पड़ता है, उससे इसका कोई परिचय नहीं है। न उसे समझना ही चाहता है।

( 2 )

ऊपर अनेक प्रकार के व्यक्तियों के उदाहरण हैं, जो मन की दुर्बलता से नाना रूपों से परेशान हैं। उनका मन उनकी इन्द्रियों का दास बना हुआ है, तथा वे उसके बहकावे में आकर क्षुद्र कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं। उनके मन ने उन्हें संसार के नाना बन्धनों में बाँध रखा है। मन में जैसा झोंका आता है, वे उधर ही ढुलक पड़ते हैं। अनेक व्यक्ति यह जानते हैं कि वे बुरी व्याधि में फंसे हैं; उनके मन का प्रवाह गलत दिशा में है; पर भ्रान्त हो विवश से उसी ओर प्रवृत्त होते रहते हैं।

उनके मन की दशा उस सरोवर की तरह है, जिसमें भयंकर तूफान उठा हो, और जल अस्त व्यस्त तरंगों में बह रहा हो। उनकी इन्द्रियाँ अनियंत्रित हैं। ये इन्द्रियाँ संसार के क्षुद्र क्षणिक आनन्दों की ओर झपटती हैं। वे विवेकहीन हो उसी ओर अग्रसर हो जाते हैं।

कुछ अपने दोषों को ढाँकने के लिए दूसरों के दोषों का विस्तार से वर्णन करते हैं। उनकी बुरी भली पुरानी बातें खोजकर निकालते हैं। ऐसा कर वे अपने को उनकी अपेक्षा श्रेष्ठ प्रमाणित करना चाहते हैं। पर वास्तव में होता है, इसका ठीक उलटा। दूसरों के दोषों में रमण करने से स्वयं उनके चित्त का मैल बढ़ता है। वे अधिकाधिक नीच, अभागे और पापी होते जाते हैं। मन में क्षुद्र नीच विचारों के रहने से तदनुकूल विषैला वातावरण छाया रहता है और निरुपयोगी कार्यों में ही लगे रहते हैं। दूसरे शब्दों में यों कहिए कि उनका मन निरुपयोगी विषयों और व्यर्थ की थोथी बातों में लगा रहता है। मन की वृत्तियाँ क्षुद्र विषयों में लगी रहती हैं। जिधर को ये वृत्तियाँ लगेंगी, उधर ही को शरीर चलेगा; वैसा ही कार्य शरीर की, इन्द्रियाँ करेंगी। अतः यह कहना सत्य ही है मन ही मनुष्य के बन्धन का कारण होता है। मन जिस से हमें बाँधता है, हमारा शरीर बिना रस्सियों के उसी से बंध जाता है।

मन में जब विकारों का प्राबल्य हो जाता है, जब हमारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिन्ता, उद्वेग इत्यादि सीमा से बढ़ जाते हैं, तब सन्तुलन नष्ट हो जाता है और मनुष्य की चित्तवृत्ति खिन्न हो जाती है। साधारणतः वह किसी एक वस्तु का ध्यान करता है; फिर एक दूसरी नई समस्या आकर अपना जोर दिखाता है, तत्पश्चात् एक तीसरा प्रलोभन आकर सब अस्त-व्यस्त कर देता है। किसी के विरोध से क्रोध उत्पन्न होता है, ईर्ष्या उससे प्रतिशोध लेने को कहती है; दूसरी ओर से कड़ा विरोध होने पर भय और घबराहट बढ़ती है; फिर असफल होने पर घृणा, उद्वेग, चिन्ता और उदासी अपना मायाजाल बुनती रहती हैं। यह उस दुर्बल मन की अवस्थाएँ हैं, जिनमें विवेक और इच्छाशक्ति की दृढ़ता नहीं है।

मानसिक संस्थान का नियंत्रण ही मन को दुर्बलता पर विजय प्राप्त करने का उपाय है। विवेक जितना जाग्रत होता है, मन में उतनी ही स्थिरता आती है। विवेक के प्रकाश से इन्द्रियाँ संसार के विषयों से दूर हटती हैं और मनुष्य व्यर्थ चिन्तन से छूट कर ऊँचा उठता है।

आप जिस बात को उचित समझते हैं, जो आपकी अन्तरात्मा पुकार-पुकार कर कहती है, उसे ही सत्य समझिए। आपकी शुभ प्रवृत्तियां शाँत समय में जिस ओर चलती हैं, उसी को सद्मार्ग समझिए और व्यर्थ चिन्तन से बचकर उसी ओर चलिए। सद्मार्ग पर चलकर ही मन को शान्त रखा जा सकता है। हो सकता है कि प्रारम्भ में मन उधर एकाग्र न हो, पर आत्मा प्रबल तत्त्व है। अतः धीरे-धीरे वह स्वयं उसमें तन्मय होने लगेगा। दुःख का बोझ हलका होगा और हृदय को शान्ति मिलेगी।

तुम्हारी आत्मा जिस चीज को उचित कहती है, उसी का संकल्प करो। उसी ओर बढ़ने में तुम्हें आत्म-सामर्थ्य प्राप्त होगी। उसी ओर इन्द्रियों को लगाने से शक्तियों की वृद्धि होगी।

तुम्हारी एक दुर्बलता संकल्प की कमजोरी है। तुम अपने निर्णय को मजबूती से नहीं पकड़ते। यह भली भाँति जान रखिए कि निरन्तर एक स्थान से दूसरे स्थान पर लुढ़कने वाले पत्थर पर काई नहीं जमती। एक विषय से दूसरे पर फुदकने वाला मन दुर्बलता की जड़ है। अपने विचारों को अपने उद्देश्यों पर एकाग्र करने का अभ्यास कीजिए।

राग, द्वेष, काम, क्रोध, ईर्ष्या, ये मन की उत्तेजित अवस्थाएँ हैं। यह मनुष्य के मन की अस्त-व्यस्त अवस्थाओं की सूचक हैं। इनमें फँसकर मनुष्य का उच्च ज्ञान-विवेक बुद्धि पंगु हो जाती है। पाप, विकार या दुष्ट विचार सिर ऊँचा करते हैं। इनका जैसे ही आक्रमण हो, किसी रूप में या किसी भी स्थिति में हो, तो तुरन्त सावधान हो जाइये और सुमति युक्त आत्मा की ही प्रेरणा ग्रहण कीजिए।

( 3 )

मन में आत्मा के द्वारा श्रेष्ठ प्रेरणा का प्रवाह भी बहता है। इसी कारण मन को ही मोक्ष का साधन कहा गया है। यदि मन बन्धन का कारण है, तो वही मोक्ष का कारण भी बन सकता है। मन के भद्र निश्चय पर अटल रहकर सन्मति का ग्रहण कर उसी मार्ग पर निरन्तर चलकर जीवन मार्ग को प्रशस्त भी बनाया जा सकता है। आत्मा की निरन्तर प्रेरणा से मन दिव्य मार्गों की ओर चलेगा।

सावधान! सत्य का मार्ग मत छोड़ना, चाहे मन कितना ही क्यों न छटपटाये! इन्द्रियाँ तो व्यर्थ ही इधर-उधर भागने वाली हैं। ये आपको किसी भी खड्डे में गिरा सकती हैं। इन्द्रियों को वश में कर लो तो तुम विजयी कहलाओगे। इन्द्रियाँ चोर की तरह वह अवसर ताकती हैं, जब वे तुम्हें नर्क में पटक दें, पतन करा दें। यदि इन चोरों को अवसर मिलेगा, तो ये सारा संचित धर्म नष्ट कर देंगी। मन के संयम से ही स्वर्ग मिलता है। अनियंत्रित इन्द्रियों का विद्रोह ही नर्क है। उत्तम स्वास्थ्य, दिव्य बुद्धि और सांसारिक सम्पदाएँ उसी को प्राप्त होती है, जिसने अपने मन और इन्द्रियों पर काबू पा लिया है।

जिन व्यक्तियों के हृदय पवित्र हैं, मन काबू में है, वे धन्य हैं, क्योंकि वे पृथ्वी पर ही स्वर्ग का सुख प्राप्त करेंगे।


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