लक्षभेदी पथिक (Kavita)

September 1956

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पथ के भटके पंथी भी तो, अपनी मंजिल पास बुलाते। करते हैं जो खोज स्वप्न की, स्वयं वही सपना बन जाते॥ पूजा रत भक्तों में ही तो, उठकर हैं भगवान समाते। पीड़ा से जो इठते वे ही, लक्ष्यों पर वाणों से गिरते— जीवन वही जगाते हैं जो, जीवन में ही मृत्यु बुलाते॥ पथ के. ॥

शलभों से जलते जो, उनकी शिरा-शिरा दीपक बन जाती। टूटे जी को साँस हवा की, जीवन की धड़कनें सुनाती॥ प्राणों पर जो पत्थर रखते, वे ही हृदयवान कहलाते। सूनेपन के बन्दी ही तो शब्दों का संसार रचाते॥ भोर देखते हैं जो निशि भर प्रतिक्षण अपना दीप जलाते॥ पथ के ॥

तो क्या हुआ कि तुम हो मुझसे दूर, और मधु बेला आई। निज को तुममें मिला आज तो मैंने दूरी निकट बुलाई॥ अब तो मुझको श्वास तुम्हारी अपने में लहराती लगती। आँसू धुली दृष्टि में मेरी, अब तो ज्योति तुम्हारी जगती॥

अब तो हँसते हो विषाद में, गीतों में भी मुझे रुलाते। पथ के भटके पंथी भी तो अपनी मंजिल पास बुलाते॥


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