[श्री. विद्याव्रत जी]
यदि आप एक वाक्य में जानना चाहते हैं तब तो अपने को परमात्म शक्ति में अर्पण करना तथा उसी की प्रेरणानुसार जीवन में विकसित होना सच्ची आध्यात्मिकता है। और इसीलिये आध्यात्मिक व्यक्ति का जीवन सदा आन्तरिक चेतना द्वारा संचालित होता है। फिर व्यक्ति किसी भी अवस्था में, किसी कर्म में लीन हो उसे आन्तरिक आदेश मिलेगा ही। गरीबी; धन-सम्पदा आदि उसके लिये बाधक नहीं होते। सच्चा आध्यात्मिक पुरुष ऐसी किसी अवस्था में लिप्त नहीं होता। इसके विपरीत वह अपनी प्रकृति पर स्वामित्व करता है।
आध्यात्मिकता में साम्प्रदायिक धर्म तथा रूढ़ियों का कोई स्थान नहीं होता। वहाँ तो जो सत्य है वही स्वाभाविक रूप से ग्रहण किया जाना चाहिए। चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय द्वारा उच्चारित किया गया हो। मन के बनाये हुए किन्हीं भी नियमों में उसे बंधा भी नहीं होना चाहिये। लोग कहते हैं कि घर-बार छोड़कर ही भजन हो सकता है। पर अब कहा जा सकता है कि घर छोड़कर जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु वहीं रहते हुए अपनी समस्त मानसिक धारणाओं का त्याग करके स्थिर होकर अन्दर झाँको और अन्दर से जो आदेश मिले उसको पालन करने को कटिबद्ध रहो।
“आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये कोई चीज न तो भार-स्वरूप होनी चाहिये न ऐसी ही हो जिसके बिना उसका काम ही न चले।” “प्रायः लोगों का जो आध्यात्मिक जीवन बिताना चाहते हैं, यह प्रथम आवेश होता है कि जो कुछ भी उनके पास है उसे वे फेंक दें किन्तु वे ऐसा इसलिए करना चाहते हैं कि जिससे वे एक बोझ से छुटकारा पा जायं, न कि इसलिये कि वे अपना सब कुछ भगवान् को अर्पित करना चाहते हैं। जिसके पास धन है तथा जिनके इर्द गिर्द अमीरी और भोग की सामग्रियाँ भरी पड़ी हैं, वे जब भगवान् की ओर मुँह करते हैं तो तुरन्त उनकी प्रवृत्ति इन इन सब चीजों से दूर भागने की होती है, अथवा, जैसा कि वे कहते हैं, ‘इनके बन्धन से निकल आने’ की होती है। परन्तु यह प्रवृत्ति गलत है, तुमको यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि जो चीजें तुम्हारे पास हैं वे तुम्हारी हैं—वे तो भगवान की हैं यदि भगवान् चाहते हैं कि तुम किसी चीज का भोग करो तो उसका तुम भोग करो, किन्तु दूसरे ही क्षण यदि उसको छोड़ना पड़े तो उसके लिये भी प्रसन्न चित्त से तैयार रहो।”
इस प्रकार सब वस्तुओं को भगवान् की समझते हुए उनमें आसक्ति न रखते हुए भोग करना आध्यात्मिक साधना का मुख्य अंग है। और इस प्रकार के निर्मोही व्यक्ति जन-धन के बीच में रहते हुए भी आध्यात्मिक जीवन बिता सकते हैं और बिता रहे हैं। पाँडिचेरी का आश्रम नामक स्थान इसी तरह का जीवन ढाल रहा है। यहाँ अबाध गति से साधक वृन्द कर्म में लगे हुए उन्नति की ओर अग्रसर हैं। और यह श्री माताजी तथा श्री अरविन्द जैसे महान् योगी की कृपा का फल होगा जब समस्त संसार एक बार फिर से उच्चातिउच्च आध्यात्मिक जीवन में आकर भगवान् का संपर्क प्राप्त करेगा।
हाँ तो कहा जा रहा था, कि आध्यात्मिकता के लिये यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति गरीब ही हो और सबकुछ छोड़ ही बैठे, बैरागी बन जाय। वास्तव में त्याग का अर्थ वैराग्य वा काषाय नहीं है। त्याग का अर्थ प्रत्येक वस्तु को पवित्र बनाना है। प्रत्येक वस्तु से मोह छोड़कर उसे निज की न समझते हुए, उसमें उस परम तत्व का दर्शन करना ही त्याग है।
इसलिये सदा स्मरण रखना चाहिये कि वैरागी जीवन और आध्यात्मिक जीवन में बहुत अन्तर है। जन साधारण की ऐसी धारणा हो गई है कि योगी बनने के लिये सब कुछ लात मारकर संसार से भाग जाना होगा। किन्तु यह मन की गढ़ी हुई धारणा गलत है। इस विषय में श्री माता जी का दृष्टिकोण मातृ वाणी नामक पुस्तक के एक सुन्दर पैरे में इस प्रकार वर्णित है:–
“यदि तुम किसी को योगी अथवा योगिनी कहकर वर्णन करो तो तुरन्त उस व्यक्ति के बारे में लोग यही कल्पना करने लगेंगे कि वह कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो खाता न हो अथवा समस्त दिन एक आसन से अडोल बैठा रहता हो, जो किसी कुटिया में अत्यंत दरिद्रता पूर्वक रहता हो, जिसने अपना सब कुछ दे दिया हो और जो अपने लिये कुछ भी न रखता हो। जब किसी आध्यात्मिक मनुष्य के सम्बन्ध में किसी से कुछ कहा जाता है तो सौ में निन्यानवे आदमियों के मन में उस व्यक्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार का चित्र खिंच जाता है, इनके लिये आध्यात्मिकता का एकमात्र सबूत है दरिद्रता तथा जो कोई भी चीज सुखदायक या आराम देह हो उससे परहेज। यह एक मनोनिर्मित धारणा है और यदि तुम आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार और अनुसरण करने के लिये स्वतन्त्र हो जाना चाहते हो तो तुम्हें इस प्रकार की कपोल कल्पना को नष्ट कर देना होगा। कारण आध्यात्मिक जीवन में तुम सच्ची अभीप्सा के साथ प्रवेश करते हो और चाहते हो कि तुम अपनी चेतना और जीवन भगवान् में भेंट करो तथा उनका साक्षात्कार करो अब होता यह है कि तुम एक ऐसे स्थान में पहुँचते हो जिसको किसी भी तरह कुटिया नहीं कहा जा सकता और वहाँ तुम्हारी एक ऐसे भागवत पुरुष से भेंट होती है जो सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। सब कुछ खाते हैं, उनके चारों ओर सुन्दर या अमीरी की चीजों का ठाठ लगा हुआ है, जो कुछ उनके पास है उसको वे गरीबों को बाँट नहीं दे रहे हैं, बल्कि लोग जो कुछ उनकी भेंट चढ़ाते हैं उसको स्वीकार करते और उसका उपभोग करते हैं। यह देखकर तुम अपने बंधे हुए मनोनिर्मित नियम के अनुसार तुरन्त घबड़ा जाते और चिल्ला उठते हो कि “क्यों, यह सब क्या है? मैंने तो सोचा था कि मेरी किसी योगी से भेंट होगी, पर यहाँ तो ऐसी कोई बात नहीं है।” इस प्रकार की मिथ्या धारणा को नष्ट कर देना चाहिये, ऐसा करना चाहिये जिससे तुम में इसका अस्तित्व तक न रह जाय। एक बार जहाँ यह चली गई कि तुम्हें कुछ ऐसी चीज प्राप्त होगी जो तुम्हारे वैराग्य के संकीर्ण सिद्धान्त से बहुत ही श्रेष्ठ है, तब तुम्हारा पूर्ण आत्मोद्घाटन हो सकेगा जिसके फलस्वरूप तुम्हारी सत्ता मुक्त रहेगी। यदि कोई चीज तुम को दी जाती है तो उसे तुम्हें स्वीकार करना चाहिये और यदि उसी चीज को तुम्हें छोड़ देना होता है तो तुम्हें उसको उसी तत्परता के साथ छोड़ देना चाहिये। तुम्हारा भाव तो यह होना चाहिये कि अगर कोई चीज आई तो तुमने उसे ग्रहण की, अगर कोई चीज चली गई तो तुमने उसे जाने दिया और इन दोनों ही समय, अर्थात् लेते समय और छोड़ते समय तुम्हारी मुसकान में वही समता बनी रहे।”
अब आपने देखा कि आध्यात्मिक सत्य के जिज्ञासु को किसी मानसिक नियम में बंधा हुआ नहीं होना होगा और व्यक्ति इस प्रकार के मानसिक बन्धनों की आसक्तियों से ऊपर उठ जायेंगे तब ही से उनका आध्यात्मिक जीवन शुरू हो जायेगा। तो सच्ची आध्यात्मिकता का अनिवार्य अंश है समचित्तता जो कि योग है ( समत्वं योग उच्यते ) न कि अमीरी-गरीबी और न उनकी बाह्य प्रकृति। क्योंकि आध्यात्मिक जन तथा सामान्य एक नागरिक की बाह्य प्रकृति में तो आप कोई विशेषता नहीं देख सकेंगे, परन्तु अन्तर वहाँ उनकी मनःस्थिति में होता है और अन्तर होता है उनके लक्ष्य में। जहाँ एक स्थिर चित्त होकर भगवान के लिये कर्म रहा होता है, भगवान को समर्पित होता है, बल्कि भगवान को ही अपने अन्दर कर्ता-धर्ता मानता है वहाँ दूसरा निज में ही आसक्त रहता है, सदा अपनी ही इच्छाओं का दास होता है और अपने सगे-सम्बन्धियों तक ही सीमित रह सोचता विचारता है।
तो आवश्यकता है अन्तर्मुख होकर अपनी सभी चेष्टाओं और विचारों को उसी एक महाशक्ति की तरफ झुकाने की। मन, प्राण से ऊपर उठकर अंतर्मन रूपी स्विच पर पहुँच जाने की। फिर अन्तःस्थिर हो जाने पर प्रकाश होना अवश्यंभावी है। भौतिक रूप में ही देखो जैसे कोई व्यक्ति अन्धेरे कमरे में है और वहाँ बिजली की रोशनी वह करना चाह रहा है तो उसे बस एक ही काम करना चाहिए कि वह अपने कमरे के स्विच बटन पर बिना सन्देह , बिना किसी संकोच के पहुँच जाय। स्विच का स्पर्श करके बटन को दबा दे। फिर रोशनी होने में देर ही कितनी लगती है। और जैसे वह वहाँ रोशनी में स्वयं अपना मार्ग अपना कार्य विदित कर लेता है और कमरे की समस्त वस्तुऐं उसके सामने प्रत्यक्ष होती हैं वैसे ही आन्तरिक प्रकाश को पाने पर जगत् भी इसके लिए हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाता है। उसका दिव्य शक्ति से ऐक्य सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
इसलिए किसी भी दशा में होते हुए तुम अन्तरात्मा के दिव्य प्रभाव में रहने के अभ्यासी बनो। उसके प्रेम समुद्र में बिना हिचकिचाहट के कूद ही पड़ो। पूरे विश्वास के साथ पूरे समर्पण के साथ ( पूरा समर्पण है वही जहाँ जहाँ सन्देह का अपनी इच्छाओं का कोई स्थान नहीं होता ) उसी अमर शक्ति के सेवक बनो। अब वह युग आ गया है जबकि हमें द्विविधा में पड़ा नहीं रहना चाहिए। सब बातें गड़बड़ झाले में कब तक पड़ी रहेंगी? अच्छी बातों को स्वीकार कर, मन के बन्धन से ऊपर उठकर बुराइयों को भी अच्छाइयों में परिणत कर दो। आओ भाइयों, हम सब आज एक स्वर होकर श्री माँ की इस वर्ष की तेजस्विनी दृढ़ प्रार्थना को लक्ष्य बनायें-
“वह समय आ गया है जबकि हमें एक चुनाव कर लेना है, पक्का और निश्चित!
हे प्रभु! हमें बल दे कि हम मिथ्यात्व का त्याग करें और तेरे सत्य में उदय हों- विशुद्ध, तेरी विजय के उपयुक्त पात्र।”