छः विशेष तीर्थ—

September 1956

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(1) भक्त-तीर्थ

भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो। तीर्थो कुवन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेल गदाभृता।।

(श्रीमद्भागवत 1। 13। 10)

युधिष्ठिर जी भक्त श्रेष्ठ विदुर जी से बोल कि ‘आप-जैसे भक्त भगवान् के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थ-रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान् के द्वारा तीर्थों को भी महा तीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।’

(2) गुरु तीर्थ

दिवा प्रकाशकः सूर्यः शशी रात्रौ प्रकाशकी। गृहप्रकाश को दीपस्तमोनाशकरः सदा।। रात्रौ दिवा गृहस्यान्ते गुरुः शिष्यं सदैव हि। अज्ञानाख्यं तमस्तस्य गुरुः सर्व प्रणाशयेत्।। तस्माद् गुरुः परं तीर्थ शिष्याणामवनीपते।

(पद्मपुराण,भूमिखण्ड 85। 12-14)

सूर्य दिन में प्रकाश करते हैं, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होते हैं और दीपक घर में उजाला करता है तथा सदा घर के अँधेरे का नाश करता है; परन्तु गुरु अपने शिष्य के हृदय में रात-दिन सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतएव राजन्! शिष्यों के लिये गुरु ही परम तीर्थ हैं।

(3) माता तीर्थ (4) पिता तीर्थ

नास्ति मातृसमं तीर्थ पुत्राणां च पितृः समम्। तारणाय हितायैव इहैव च परत्र च।। वेदै रपि च किं विप्र पिता येन च पूजितः। माता न पूजिता येन तस्य वेदा निरर्थकाः।। एष पुत्रस्य वै धर्मस्तथा तीर्थं नरेष्विह। एष पुत्रस्य वै मोक्षस्तथा जन्म फलं शुभम्।।

पद्मपुराण, भूमिखण्ड 63। 14,19,21)

पुत्रों के इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है। माता-पिता का जिसने पूजन नहीं किया, उसे वेदों से क्या प्रयोजन है? (उसका वेदाध्ययन व्यर्थ है।) पुत्र के लिये माता-पिता का पूजन ही धर्म है, वही तीर्थ है, वही मोक्ष है और वही जन्म-का शुभ फल है।

(5) पति-तीर्थ

सव्यं पादं स्वभर्तुश्च प्रयागं विद्धि सत्तभ। वामं च पुष्करं तस्य या नारी परिकल्पयेत्।। तस्य पादोदकस्नानात् तत्पुण्यं परिजायते। प्रयागपुष्करसमं स्नानं स्त्रीणां न संशयः।। सर्वतीथमयो भर्ता सर्वपुण्यः पतिः।

(पद्मपुराण 41।12- 4)

जो स्त्री अपने पति के दाहिने चरण को प्रयाग और बांये चरण को पुष्कर समझ कर पति के चरणोदक से स्नान करती है, उसे उन तीर्थों के स्नान का पुण्य होता है। ऐसा स्नान प्रयाग तथा पुष्कर स्नान के सदृश है, इसमें कोई संदेह नहीं है। पति सर्वतीर्थ मय और सर्वपुण्य मय है।

(6) पत्नी-तीर्थ

सदाचारपरा भव्या धर्मासाधनतत्परा। पतिव्रतरता नित्यं सर्वदा ज्ञानवत्सला।। एवंगुणा भवेद् भार्या यस्य पुण्या महासती। तस्य गेहे सदा देवास्तिष्टन्ति च महौजसः।। पितरो गेहमध्यस्थाः श्रेयो वञ्छन्ति तस्य च। गंगाद्याः सरितः पुण्याः सागरास्तत्र नान्यथा।। पुण्या सती यस्य गेहे वर्तते सत्यतत्परा। तत्र यज्ञाश्च गावश्चऋषयस्तत्र नान्यथा।। तत्र सर्वाणि तीर्थानि पुण्यानि विविधानि च। नास्ति भार्यासमं तीर्थ नास्ति भार्यासमं सुखम्। नास्ति भार्यासमं पुण्यं ताराणाय हिताय च।

(पद्मपुराण, भूमिखण्ड 59। 11-15, 24)

जो सब प्रकार से सदाचार का पालन करने वाली, प्रशंसा योग्य आचरण वाली, धर्म-साधन में लगी हई, सदा पातिव्रत्य का पालन करने वाली तथा ज्ञान की नित्य अनुरागिणी है, ऐसी गुणवती पुण्यमयी महासती जिसके घर में पत्नी हो, उसके घर में सदा देवता निवास करते हैं, पितर भी उसके घर में रहकर सदा उसके कल्याण की कामना करते हैं। जिसके घर में ऐसी सत्य परायणा पवित्रहृदया सती रहती है, उस घर में गंगा आदि पवित्र नदियाँ, समुद्र, यज्ञ, गौएँ, ऋषिगण तथा सम्पूर्ण विविध पवित्र तीर्थ रहते हैं। कल्याण तथा उद्धार के लिये भार्या के समान कोई तीर्थ नहीं है, भार्या के समान सुख नहीं है और भार्या के समान पुण्य नहीं है।

श्रृण्वन्तु मे श्रद्दधानस्य देवाः 4.35.6

देव मुझ श्रद्धालु की प्रार्थना पूर्ण करें।

ये ऽश्रद्धा धनकाम्या क्रव्यादा समासते 12.2.51

जो श्रद्धा-पूजा को छोड़ कर केवल धन के पीछे पड़े हैं वे मानो चिन्ताग्नि का स्वागत कर रहे हैं।

एवं लोक श्रद्दघानाः सचन्ते 12.3.7

श्रद्धालु जन ही स्वर्ग प्राप्त करते हैं।

स में श्रद्धां च मेघां च जातवेदः प्रच्छतु 19-64-1

प्रभु मुझे श्रद्धा और बुद्धि प्रशान करे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118