कर्मयोगी भगवान

September 1956

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(श्री भवानी लाल माथुर ‘भारतीय’)

पाँच हजार वर्ष पूर्व ठीक आज की तरह ही भारत के क्षितिज पर भादों की अंधेरी अमा अपनी गहन कालिमा के साथ छा गई थी। तब भी भारत में जन था, धन था, शक्ति थी, साहस था, कला और कौशल क्या नहीं था? सब कुछ था, पर एक अकर्मण्यता भी थी, जिससे सभी कुछ अभिभूत और मोहाच्छन्न थे। महापुरुष अनेक हुए हैं पर लोक नीति अध्यात्म को समन्वय के सूत्र में गूँथ कर ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का पाँचजन्य फूंकने वाले कृष्ण ही थे।

हम भारतवासियों का यह दुर्भाग्य है कि हम कृष्ण भगवान के चरित्र को समझने में असमर्थ रहे। श्रीमद्भागवत् आदि पुराणों, हिन्दी संस्कृत के कवियों ने जिस कृष्ण का चित्रण किया है, वह हमारी श्रद्धा और भक्ति -भावना का पात्र भले ही हो, अनुकरणीय नहीं हो सकता। हिन्दुओं की इस मनोवृत्ति को क्या कहा जाय? उन्होंने कृष्ण जैसे आदर्श व्यक्ति को परमात्मा का अवतार बता कर पूजा की वस्तु बना दी ‘गोपाल सहस्र नाम’ के लेखक ने तो उन्हें ‘चोर जोर शिखामणि’ ऐसे उपयुक्त (?) सम्बोधनों से सम्बोधित किया।

हमारी यह आदत है कि वे अपने महापुरुषों को अवतार के पद पर बैठा कर सन्तोष कर लेते हैं,परन्तु उनके गुण ग्रहण करने का उद्योग नहीं करते। राम का मर्यादा पालन, कृष्ण का कर्म योग और बुद्ध की अहिंसा तथा करुणा आदि सभी गुणों का हमारे आगे कोई महत्व नहीं। हमें तो बस अक्षत-चन्दन से उनकी पूजा भर कर लेनी और कर्तव्य पूरा हो चुका। अस्तु।

आर्य जीवन का सर्वांगीण विकास हम श्री कृष्ण में पाते हैं। राजनीति और धर्म, अध्यात्म और समाज-विज्ञान सभी क्षेत्रों में श्री कृष्ण को हम एक विशेषज्ञ रूप में देखते हैं। यदि हम राजनीतिज्ञ कृष्ण का दर्शन करना चाहते हैं तो हमें महाभारत के पन्ने टटोलने होंगे। महाभारत आर्य जाति का पतन युग कहा जाता है। उस समय भारतवर्ष में गाँधार (कन्धार) से लेकर प्राग् ज्योतिष (आसाम) तक और काश्मीर से लेकर सह्यादि पर्वत माला तक क्षत्रिय राजाओं के छोटे बड़े स्वतन्त्र राज्य थे। इन छोटे छोटे राज्यों का एक संगठन नहीं था। एक चक्रवर्ती सम्राट् के न होने से कई राजा अत्याचारी और उच्छृंखल हो गये थे। मगध का जरासंध, चेदी देश का शिशुपाल, मथुरा का कंस और हस्तिनापुर के कौरव सभी दुष्ट, विलासी और दुराचारी थे। श्री कृष्ण ने अपने अद्भुत राजनैतिक चातुर्य के द्वारा इन सभी राजाओं का मूलोच्छेद कराया और युधिष्ठिर का एक छत्र साम्राज्य स्थापित किया। यदि कृष्ण स्वयं चाहते तो इतने बड़े राज्य के शासक बन कर संसार सुख उपभोग कर सकते थे, परन्तु उनका यह लक्ष्य नहीं था। समस्त राष्ट्र का कल्याण सोचने वाले कृष्ण ने युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट् के आसन पर अभिषिक्त किया और अपने उद्देश्य को पूरा किया। उनकी इसी उदार भावना के कारण जब राजसूय यज्ञ में अग्र पूजा के लिए किस व्यक्ति को चुना जाय- यह प्रश्न आया तब पितामह ने भगवान का नाम प्रस्तुत किया और सर्वानुमति से उनकी अग्रपूजा की गई। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कृष्णजी ने अपने लिए सब आगत व्यक्तियों के पाद प्रक्षालन का काम ही चुना था। यह नम्रता की पराकाष्ठा थी।

मानव जाति ने श्री कृष्ण के समान राजनीति निपुण व्यक्ति थोड़े ही पैदा किए हैं। महाभारत के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के पथ प्रदर्शक विष्णुगुप्त चाणक्य में भी हम इसी विलक्षण प्रतिभा का दर्शन करते है।’सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव’ की गर्वोक्ति करने वाले दुर्योधन का नाश करवाना कृष्ण जैसे विचक्षण पुरुष का ही काम था। यदि कृष्ण पाण्डव पक्ष में न होते तो उनकी विजय में संदेह ही किया जा सकता है।

कृष्ण ने न केवल भारत राष्ट्र की अखण्डता की ही रक्षा की, अपितु उन्होंने गिरे हुए भारतीय समाज को भी उद्बोधन दिया उस समय स्त्रियों और शूद्रों की अत्यधिक अवनति हो गई थी। स्त्रियों और शूद्रों का मोक्ष में अधिकार नहीं माना जाता था। वर्ण-व्यवस्था गुण-कर्म की अपेक्षा जन्म से मानी जाने लगी थी। और इसी कारण सूत पुत्र कर्ण को पांडवों के द्वारा अपमानित होना पड़ा था। ब्राह्मणों ने अपनी वृत्ति छोड़ दी थी। द्रोणाचार्य सरीखे विद्वान् भी शस्त्र विद्या सिखा कर जीवन निर्वाह करते थे। लोगों का अत्यधिक नैतिक पतन हो गया था। भीष्म जैसे धर्मात्मा पुरुष भी अपने को दुर्योधन अन्न से पालित समझ कर अन्याय का पक्ष ग्रहण कर लेते थे। उस समय उनकी विद्या, बुद्धि और धर्म भीरुता सब ताक पर धरी रह जाती थी।

जिस समय समाज का इस प्रकार अत्यधिक पतन हो गया था, तब श्रीकृष्ण ने एक नूतन संदेश दिया। गीता द्वारा उन्होंने चारों वर्णों को गुण कर्मानुसार घोषित किया और यह स्पष्ट कर दिया कि इस व्यवस्था की नींव गुण कर्म और स्वभाव पर है- जन्म से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ इसी स्पष्टोक्ति की घोषणा है। गीता में ही श्री कृष्ण ने स्त्रियों और शूद्रों को मोक्षाधिकार का विधान किया-

मां हि पार्थ व्यप श्रित्य ये ऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्ते पियान्ति परां गतिम्।। 9।32

हे पार्थ! अत्यन्त नीच वंश में उत्पन्न मनुष्य हो, स्त्री हो, वैश्य हो और शूद्र हो- जो मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं,उनको उत्तम गति मिलती है। उच्च कुल में जन्म लेकर गोप बालों के साथ प्रेम दिखाना और उनके साथ मैत्री भाव रखना कृष्ण की उदारता और सदाशयता का ही सूचक है।

श्री कृष्ण केवल राजनीतिज्ञ और समाज-सुधारक ही नहीं थे एक उच्च कोटि के अध्यात्मवादी योगी भी थे जहाँ उन्होंने धर्म के एक अंग अभ्युदय का सम्पादन किया था, वहाँ उन्होंने निःश्रेयस मार्ग को भी उतना ही महत्व दिया था। आर्य धर्म की सदा से ही यह विशेषता रही है कि इसके अनुयायी इस लोक की सिद्धि के साथ साथ पारलौकिक सुधार की ओर अत्यन्त ध्यान देते हैं। यदि आर्य संस्कृति से अनजान व्यक्ति इसे पलायन मनोवृत्ति कहें तो यह उसकी अनभिज्ञता का ही सूचक है। आर्य जीवन का लक्ष्य सांसारिक उन्नति के साथ साथ निःश्रेयस अथवा मोक्ष प्राप्ति भी माना जाता है। श्रीकृष्ण ने आर्य जीवन का लक्ष्य साँसारिक उन्नति के साथ साथ निःश्रेयस अथवा मोक्ष प्राप्ति भी माना जाता है। श्रीकृष्ण ने आर्य जीवन के इस पहलू पर भी अधिक जोर दिया है। परन्तु जैन या बौद्ध विचारकों की तरह उन्होंने मनुष्य जीवन को दुःख का पर्याय नहीं मान लिया था, इसके विपरीत उन्होंने संसार को सच्ची कर्म भूमि बतलाया है। फल की आशा छोड़ कर निष्काम कर्म करना ही सच्चा योग है। आर्य धर्म का यही निचोड़ है। गीता की यही मुख्य शिक्षा है।

श्री कृष्ण की आध्यात्मिक शिक्षाओं का परिचय हमें गीता द्वारा मिलता है। आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म, ज्ञान और कर्म का समन्वय, स्थित प्रज्ञ मनुष्यों के लक्षण, वर्ण व्यवस्था आदि-आदि विषयों पर सांगोपांग विचार यदि हम देखना चाहें तो हमें गीता का अध्ययन करना चाहिये। गीता को यदि भारतीय आर्य धर्म का विश्वकोष कहें, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। गीता में ही श्री कृष्ण का वास्तविक चरित्र प्रस्फुटित हुआ है। गीता के कृष्ण हमारे सामने जगद्गुरु के रूप में आते हैं। ‘नैनं छिन्दान्त शस्त्राणि’ के द्वारा आत्मा की अमरता को बताते हुए कृष्ण हमें कर्म करने को प्रेरित करते हैं।

यदृच्छया चोपपन्नं र्स्वगद्वारमपावृतम्। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।2।।

इस श्लोक द्वारा श्रीकृष्ण ने यह सिद्ध कर दिया है कि क्षत्रिय के लिए धर्म युद्ध ही स्वर्ग प्राप्ति का एक मात्र उपाय है और आततायियों के नाश के लिये शस्त्र उठाना पाप नहीं है। गीता के द्वारा सच्चे कर्मयोग का उपदेश देकर अपने को अमर बना गये।

आवश्यकता है कि कृष्ण चरित्र का आज के युग में अधिक से अधिक पठन और मनन किया जाय। न केवल मनन ही, परन्तु उनकी शिक्षा के अनुसार चलने का भी प्रयत्न करें। कृष्ण की शिक्षा में ही देश का कल्याण निहित है। आज अब आर्य जाति पर चतुर्मुखी आक्रमण हो रहे हैं, श्रीकृष्ण की शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है। गीता के अन्त में कही गई संजय की निम्न उक्ति में हमें अद्भुत सत्य के दर्शन होते है:–

यत्र योगेश्वरः कृष्णे यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्घ्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।


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