आचार्य का विद्यार्थी को उपदेश

September 1956

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(श्री डॉ. भगवान दासजी)

“सत्यं वद, धर्म चर, स्वाध्यायान्मा प्रमदः। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्। यान्यनवद्यानि कर्माणितानि सेवितव्यानि, नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचारितानि तान्येव त्वयोपास्यानि, नो इतरणि। प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः अलूक्षाः समर्शिनः, तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्त चिकित्सा वा स्यात्, ये तत्र ब्राह्मणः धर्मकामाः स्युः, यथा ते तत्र वर्तेरन् तथा तत्र वर्तेशाः। एष आदेशः; एष उपशदेः; एषा वेदोपनिषत्।”

(तेत्तिरीय उपनिषत्)

अन्तिम उपदेश, अन्तिम आदेश यही है—सत्य बोलना धर्म के अनुसार आचरण करना, स्वाध्याय में अर्थात् बुद्धिवर्धक-ज्ञानवर्धक-शास्त्रों के नित्य अवलोकन करने में प्रमाद नहीं करना। पढ़ना समाप्त हुआ, अब हमको पठन-पाठन से क्या काम, ऐसा मत समझना। कुशलता साधने वाले, कौशल के कामों के करने से मत चूकना। भूति, विभूति, विभव सम्पादन करने वाले धर्म युक्त कामों के करने से मत चूकना। देवों और पितरों के ऋण चुकाने वाले कामों से मत चूकना। जो अच्छे काम हैं वही करना। यदि हमने भी कोई अनुचित काम किया है, तो यह विचार के कि, ‘आचार्य ने ऐसा किया है’ उसका अनुकरण नहीं करना। जो हमसे अच्छे काम बन पड़े हैं, उन्हीं का अनुकरण करना, हमारे अनुचित कामों का अनुकरण मत करना। हमसे जो अधिक श्रेष्ठ सच्चरित्र विद्वान मिलें उनकी उपासना करना। अन्धश्रद्धा मत करना; अपनी बुद्धि पर भरोसा करके विवेक से काम करना। अपने मन में सार्वजनिक स्नेह का भाव रखना। प्रजा, सन्तान का उच्छेद मत करना। अपने सुख, चैन की स्वार्थी लालच से गार्हस्थ्य के उत्तम धर्म का बोझ उठाने से जान मत छिपाना।

यथा नदी-नदाः सर्वे समुद्रे यांति संस्थितिं, तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यांति संस्थितिंम्। यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजंतवः, तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः॥ यस्मात्त्रयोऽन्याश्रमिणः ज्ञानेनान्नेन चान्वहं। गृहस्थेनैव धार्यन्ते, तस्मात् ज्येष्ठाश्रमो गृही। (मनु)

अर्थात्, जैसे सब नद-नदी, समुद्र ही में आसरा पाते हैं; जैसे सब जीव-जन्तु, वायु के ही सहारे जीते है; वैसे सब आश्रम गृहस्थ के आसरे रहते हैं। अन्य तीन आश्रम वालों को गृहस्थ ही अन्न भी देता है और ज्ञान भी देता है।

हाँ, सब उत्सर्गों के लिये, सब नियमों के लिये, अपवाद होते हैं। विशेष-विशेष अवस्था में नैष्ठिक ब्रह्मचर्यादि हो सकता है। और परार्थ के लिये, परोपकार के लिये, निश्चिंत होकर देश-सेवा के लिये, यदि कोई नैष्ठिक, अथवा परिमित काल के लिये, ब्रह्मचर्य का व्रत बढ़ा दें, तो यह उनके और देश के बड़े सौभाग्य की बात है, और देश को ऐसे ब्रह्मचारी (तथा वानप्रस्थ) स्वयंसेवकों की बड़ी आवश्यकता है। पर साधारण धर्म इसी को जानना, अर्थात् विद्याध्ययन से समावृत्त होकर गार्हस्थ्य करना और अपने त्रिविध ऋण को यत्न पूर्वक चुकाना। माता, पिता, आचार्य रूपी देवताओं ने आपके लिये बड़ा परिश्रम किया है, उनका ऋण आपके ऊपर बहुत है, उसको अपने आगे के पुस्त के लिये वैसा ही परिश्रम करके चुकाना। माता, पिता और आचार्य के लिये नम्रता-भाव, श्रद्धा-भाव, अपने मन में सदा बनाये रहना। इससे आप ही की आगे बहुत रक्षा होगी। मिथ्या-अहंकार-जनित कलह के दुष्फलों से बचिये। हमसे आपसे जो वृद्ध हैं उनका अनादर मत करना। मातृ-भक्ति विशेष कीजियेगा। शरीर को जन्म देने वाली माता की तथा जन्मभूमि-रूपिणी, जिससे पहली माता का भरण पोषण हुआ और होता है, तथा उस जन्म-भूमि की भी माता स्वयं जन्म रहित सर्व जगज्जननी, परमात्मा की स्वभाव-रूपिणी प्रकृति देवी की, परमपुरुष की प्रकृति की, जिसकी सारी सृष्टि ही सन्तान है, हृदय में भक्ति बनाये रहियेगा।

अजामेकांलो हित-कृष्ण-शुक्वां सर्वाः प्रजाः सृजमानां नमामः।

अर्थात् परमात्मा की जन्म रहित अनादि-अनन्त-शक्ति-त्रिकमयी, त्रिगुणात्मिका, तीन रंग वाली, सरस्वती-रूपेण श्वेत, काली रूपेण कृष्ण, और लक्ष्मी-रूपेण रक्त देवी को जो सब असंख्य प्रजाओं की जननी है, हम लोग नमस्कार करते हैं।

माता की सात्त्विक भक्ति और वंदना का यह भाव परम पावन और मनोमलशोधन है इसलिये मनु ने कहा है,

उपाध्यायान दशाचार्यः, शताचार्यां स्तथा पिता, सहस्त्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते। (मनु)

दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और सहस्र पिताओं से बढ़कर माता की गुरुता है।

वृद्ध पितामह भीष्म ने इसका फल थोड़े में कहा है।

जीवतः पितरौ यस्य, मातुरंकगतो यथा, षष्टिहायनवर्षोऽपि स द्विहायनवच्चरेत्। (शाँतिपर्व)

जिसके माता-पिता वर्तमान हैं वह साठ वर्ष की उमर पाकर भी बैठा निश्चिंत और प्रसन्न रहता है जैसा माँ की गोद में दो वर्ष का बच्चा।

यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।

जिस रहन-सहन आचार-विचार से अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों मिले, इस लोक में अभ्युदय भी, और संसार के सुखों में सदा लिपटे हुए दुःखों के बंधनों से मोक्ष भी वही धर्म है। इसलिये धर्म प्रधानता, सभ्यता शालीनता के गुरुकुल का आचार्य अन्तिम उपदेश फिर भी धर्म विषयक ही देता है, कि यदि कभी संदेह हो कि इस विशेष अवस्था में क्या कर्तव्य है, क्या कृत्य है क्या धर्म है, तो जो सत्पुरुष, सच्चे विद्वान्, धार्मिक और तपस्वी जीव जिनका का नाम ब्राह्मण है, वे जैसा उस अवस्था में, उस देश-काल-निमित्त में, आचरण करते हों वैसा ही आप आचरण करना।

एषा वेदोपनिषद्।

यही सर्वत्र वेद अर्थात् ज्ञान का निचोड़ निष्कर्ष, रहस्य, उपनिषत् है।


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