(लेखक-डा. मुँशीरामजी शर्मा, एम. ए., पी.एच्. डी.)
द्विपद मानव सप्राण सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा मन्तव्य आज तक के सभी दार्शनिकों का रहा है; परन्तु सापेक्ष एवं तुलनात्मक दृष्टि से समस्त मानव भी एक स्तर के नहीं हैं। उनकी विचार-प्रणाली, विषय-प्रवृत्ति, प्रेरक तत्त्व, कार्य संचालन; बुद्धि-वैभव, शारीरिक सम्पत्ति आदि सभी में विभिन्नता है। सबकी अपनी-अपनी कमाई है जो कभी एक समान नहीं होती। एक-जैसे अवसर मिलने पर भी मानव एक-जैसे नहीं बन पाते। एक ही दंपत्ति की संतति विषम गुणों वाली देखी जाती है। एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों में श्रेणीगत वैषम्य होता है। विश्व की विविधरूपता को सिद्ध करने के लिये प्रमाण एवं तर्क की आवश्यकता नहीं हैं। वह तो स्वयं सिद्ध है। यह विविधरूपता मानव-जगत् में भी ज्यों की त्यों विद्यमान है।
अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानव की श्रेष्ठता उसके बुद्धि-वैभव के कारण ही है। अतः बौद्धिक स्तर का उच्चाउच होना ही मानवों के विभिन्न स्तरों का भी प्रधान कारण है। कुछ मनुष्य बुद्धि के रहते हुए भी उससे कार्य नहीं लेते। वे दूसरों की बुद्धि द्वारा यंत्रवत परिचालित होते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति दूसरों के कार्य साधक तो बनते हैं, पर अपना कार्य नहीं कर पाते और इसी कारण उनके अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व का भी विकास नहीं हो पाता। साधन रूप में प्रयुक्त होने पर जो कुछ मिल जाता है, उसी के आधार पर उनका जीवन-यापन होता है। आहार, निद्रा, भय और भोग तक ही उनकी निर्मिति सीमित रहती है। इससे ऊपर उठकर वे स्वतन्त्र नेता के गौरवशाली पद को प्राप्त नहीं कर पाते। आर्य संस्कृति की वर्ण-मर्यादा में ऐसे व्यक्तियों को शूद्र संज्ञा दी गयी है। शारीरिक श्रम- कठोर दैहिक तप- इनकी विशेषता है। वैदिक उक्ति ‘तपसे शूद्रम्’ का यही भाव है।
इस स्तर से ऊपर ऐसे व्यक्तियों का वर्ग है जो शारीरिक श्रम तो करते हैं, पर उसका लक्ष्य उनकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति होता है। किसान खेती करता है, पशु-पालन करता है, वैश्य वाणिज्य व्यवसाय करता है, तो उसका उद्देश्य उसके अपने लिये है, किसी अन्य के लिये नहीं। इन सभी कार्यों में कठोर तप करना पड़ता है, शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि के द्वन्द्व सहने पड़ते हैं, पर सबका परिणाम अपना हित होता है—यही इस स्तर का पूर्व स्तर से अन्तर है। इस अन्तर में बुद्धि की क्रियाशीलता भी निहित है। बिना बुद्धि का उपयोग किये कोई भी व्यक्ति न खेती से लाभ उठा सकता है, न वाणिज्य व्यवसाय से। और यदि बुद्धि का उपयोग नहीं करता, तो स्वयं दूसरों के साध्य का साधन बन जाता है। ऐसी अवस्था प्रथम स्तर से ऊपर की नहीं कही जा सकती। बुद्धि क्रियाशील होकर ही व्यक्ति को साधन मात्र होने से बचा देती है। यह स्तर वैश्य- वर्ग का है।
मानव का तीसरा स्तर ऐसे व्यक्तियों का है जो वैश्य-वर्ग की अपेक्षा बुद्धि से अधिक काम लेते हैं। इनका कार्य समाज की रक्षा करना है जिसके लिये इन्हें अनेक उपाय सोचने पड़ते हैं। आन्तरिक तथा वाह्य दोनों ही प्रकार के घातकों से सावधान रहना, उनकी कुटिल चालों की जानकारी रखना, उपयुक्त समय पर जागरुक रहते हुए तत्परतापूर्वक रक्षा के साधनों को जुटाना और निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जाना, शारीरिक बल के साथ विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करना, उसके संचालन की विधि से पूर्णतया अभिज्ञ होना आदि ऐसे कार्य हैं जिनमें इस वर्ग को दक्ष होना पड़ता है। शारीरिक श्रम यहाँ भी है, पर पूर्वोक्त दोनों वर्गों की अपेक्षा अधिक बुद्धिपूर्वक। लक्ष्य में यहाँ आकर एक विशिष्ट अन्तर पड़ जाता है। वैश्य वर्ग के कार्यों का लक्ष्य वह वर्ग स्वयं है। जो कुछ उत्पादन उसके द्वारा होता है, उसका उपयोग अधिकाँश में उस वर्ग के लिये ही होता है। पर इस वर्ग के कार्यों का लक्ष्य समग्र समाज की रक्षा है। शूद्र बुद्धि रहित होकर एक व्यक्ति की सेवा करता है, पर यह वर्ग बुद्धिपूर्वक समग्र समाज की सेवा करता है। अतः कई दृष्टियों से यह वर्ग पूर्वोक्त दोनों वर्गों के स्तर से उच्च कोटि का है। यह क्षत्रिय वर्ग है।
चौथे स्तर पर ऐसे व्यक्ति हैं जिनका लक्ष्य बुद्धि के उपयोग द्वारा किसी साँसारिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं, प्रत्युत स्वयं बुद्धि का अधिक-से-अधिक विकास करना है। जीवन-यापन के लिये प्रभु का सहारा तथा बुद्धि सम्बन्धी कोई कार्य जैसे अध्यापन, पौरोहित्य आदि—इसके अनन्तर सारा समय मस्तिष्क को आलोकित करने में लगाना- यही एकमात्र उद्देश्य इस स्तर के व्यक्तियों का होता है। आर्य-संस्कृति में यह स्तर ब्राह्मण-वर्ग का माना गया है।
ऊपर जिन चार वर्गों के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा गया है, उनमें से एक-एक वर्ग के अन्दर भी कार्य तथा बुद्धि-स्तर के आधार पर कई विभाग किये जा सकते हैं और किये भी गये हैं। सत् और असत् के आधार पर सभी वर्गों के दो-दो मोटे विभाग हो सकते हैं पुनः इन दो के भी अनेक विभाग हो सकते हैं। यों मानवता की एक श्रेणी है, पर यह एक श्रेणी नानारूपा बनकर कम-से-कम विकास के चार स्तरों में विभाजित की जा सकती है।
अन्तर्मनोदशा तथा भावना की दृष्टि से शूद्र-वर्ग चिन्ता रहित जीवन व्यतीत करना चाहता है। लम्बी आयु, अनेक पुत्र-पौत्रों के बीच मनोरंजन करना, अपने स्वामी से प्राप्त धन के आधार पर, किसी भी जोखिम को उठाये बिना, निश्चिन्त होकर रहना- शूद्र-वर्ग की विशेषताएँ हैं। ऐसा जीवन मानवता के विकास का द्योतक नहीं है। चिन्ता विकास की प्रथम आवश्यक सीढ़ी है। चिन्ता चिन्तन की जननी है। मानव की सार्थकता इसी चिन्तन या मनन द्वारा सिद्ध होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में चिन्तन ने प्रवेश नहीं किया, वह तम्थुष की भाँति स्थिर रह सकता है, चरकी तरह गतिशील नहीं बन सकता। जो गतिशील नहीं है वह विकसित भी नहीं है। आर्य-संस्कृति में ‘जन्मना जायते शूद्रः’ का भी यही अर्थ है। निश्चिन्त, मनन रहित सभी बालकों की संज्ञा शूद्र है। संस्कार सम्पन्न होकर ही वे द्विज कहलाने के अधिकारी बनते हैं। संस्कार निश्चित रूप से मन का ही होता है।
वैश्य वर्ग में यह चिन्ता पद-पद पर दिखायी देती है। कृषि के लिये भूमि की जुताई करनी है, उसमें खाद डालना है, बीज बोना है, पानी देना है, अंकुरित दलों की कीड़ों से रक्षा करनी है, फसल के तैयार होने पर पशु-पक्षियों से उसे बचाना है, फिर काटना, गाहना, राशि करना—ऐसी एक नहीं, न जाने कितनी चिन्ताओं से कृषक का जीवन आक्राँत रहता है। वह इन समस्त चिन्ताओं का साम्मुख्य करता है। अल्पवृष्टि, अतिवृष्टि, टिड्डादल आदि अनेक दैवी आपदाएँ आकर उसके जीवन की झकझोरती रहती हैं। वह स्थिर निश्चिन्त जीवन व्यतीत कर ही नहीं पाता और इसी हेतु उसके जीवन का विकास भी होता है। इस वर्ग की विशेष चिन्तन-प्रणाली धन, समृद्धि, वैभव आदि की वृद्धि में अनुभूत होती है। वाणिज्य-व्यवसाय तथा उससे सम्बद्ध अन्य जोखिम से भरे कार्य करने वाले व्यक्तियों की गणना इसी वर्ग में होती है। मनु ने इस वर्ग को सत्यानृत का सम्मिलित वर्ग माना है।
क्षत्रिय-श्रेणी वैश्य की अपेक्षा कहीं अधिक चिंताकुल दिखायी देती है। उसके प्राण सदैव हथेली पर रक्खे रहते हैं। उसे न शरीर का ध्यान है, न अपने पुत्र-पौत्रों का, न धन का—आवश्यकता पड़ने पर वह इन सबको ठुकरा सकता है। हाँ, उसकी एक कामना है, मन की एक आकांक्षा है—यह है उसकी और उसके समाज की कीर्ति। यही उसकी आन है, विरुद है। यश रहे, प्राण या धन रहे चाहे न रहे। कीर्ति के पिपासु क्षत्रिय, यशो लिप्सा के भूखे वीर एक सत्य की रक्षा के लिये अपने सर्वस्व की आहुति दे देते हैं, अपने प्रण पर मर मिटते हैं, पर वचन को नहीं जाने देते। यह है सत्य की सुरक्षा, पर कभी-कभी क्षत्रिय का असत्, कुत्सित, क्रोधान्ध रूप भी दिखायी देता है। निरीहों की हत्या अपने नाम के लिये सत्य मूर्ति विप्रों की अवमानना, धनिकों का निर्मम शोषण—दूसरे शब्दों में अपने बल का, क्षत्रियत्व का अनुचित एवं गर्हणीय प्रयोग—यह क्षत्रियत्व का उद्योतन नहीं, अवगमन है, उत्थान नहीं, पतन है, विकास नहीं, विनाश है सच्चा क्षत्रिय अपने समाज को घायल होने से बचाता है, सतर्क रहकर अत्याचारियों से उसकी रक्षा करता है, प्राचीन प्रतीकात्मक शब्दों में ‘गो-ब्राह्मण का प्रतिपालक’ होता है। वह सत्यसन्ध है, सत्यपक्षी है, सत्य का संरक्षक है। उसकी चिंता के प्रधान विषय यही हैं।
ब्राह्मण-वर्ग की चिंता न आयु और प्राण हैं, न पशु और प्रजा हैं, न धन और कीर्ति हैं। उसका प्रमुख लक्ष्य ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति है। समष्टि दृष्टि से जो बुद्धितत्त्व द्यो के रूप में सर्वत्र समाया हुआ है, सत् का जो आलोक सर्वव्याप्त है, उसको पहचान लेना और उसके साथ अपने व्यष्टि बुद्धितत्त्व को मिला देना अर्थात् धी-योग को प्राप्य कर लेना उसके ध्यान का चरम बिन्दु है। यह स्थिति चिन्तन और मनन से भी ऊपर की है।
ब्राह्मण चिन्तनशील तो होता ही है, इससे भी ऊपर वह प्रकाश-सम्पन्न बनता है। ब्रह्मतेज से युक्त होकर वह अपनी गतिशील स्थिति से चारों ओर की परिस्थितियों को प्रभावित करता है। उसके संपर्क में आने वाले व्यक्ति इस प्रकाश का अनुभव करते हैं और उधर चलने के लिये उन्मुख होते हैं। दिव्यता का आविर्भाव और उसका प्रभाव ऐसा ही होता है।
आर्य-संस्कृति में इसे ब्राह्मी वृत्ति का सम्पादन कहा गया है। मनु ने इसकी प्राप्ति के लिए स्वाध्याय, व्रत, होम, त्रयी विद्या, इज्या, सुत, महायज्ञ और यज्ञ रूप साधनों का वर्णन किया है। स्वाध्याय-अप्रमत्त होकर वेद-शास्त्रादि, ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थों के अध्ययन में निरत रहना, व्रत रखना—उपवास आदि द्वारा इन्द्रिय-संयम को उपलब्ध करना, दैनिक अग्निहोत्र करना, ज्ञान-कर्म-उपासना रूप वेदत्रयी का आचरण, दर्श-पौर्णमास आदि यज्ञों का करना, गृहस्थ धर्म का पालन—संतति का प्रसव, महायज्ञ—सर्वहुत तथा पञ्चमहायज्ञों का करना और अन्त में समग्र यज्ञ पूर्ण जीवन को यज्ञमय ही बना देना ब्रह्मणत्व-प्राप्ति के साधन कहे गये हैं। अन्तिम साधन त्याग की पराकाष्ठा को सूचित करता है। ऐसे ब्राह्मण ही संन्यासी की उस प्रतिज्ञा को पूर्णतया चरितार्थ कर सकते हैं जिनमें पुत्र-वित्त-यश सभी आकांक्षाओं के त्याग का प्रतिपादन है।
शूद्र का सत्य अपने स्वामी की सेवा है। वैश्य सत्यानृत है। क्षत्रिय सत्यसन्ध है, परन्तु ब्राह्मण सत्य का उपासक और अपने वास्तविक स्वरूप में सत्य की मूर्ति है।
शूद्र पराश्रित है। वैश्य स्वाश्रित एवं पराश्रित दोनों ही हैं। क्षत्रिय स्वाश्रित अधिक है, पराश्रित कम है। ब्राह्मण सम्पूर्ण रूप से स्व- आत्मा पर ही आश्रित है।
शूद्र स्वामी की सेवा से सदैव भयभीत रहता है। वैश्य विविध प्रकार के विघ्नों से भयभीत रहते हुए भी निर्भयता का आस्वाद ले लेता है। क्षत्रिय निर्भय होते हुए भी भय से आक्रान्त रहता है, परन्तु ब्राह्मण निर्भय है। उसकी निर्भयता को किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं है। भय द्वितीय से होता है। जो किसी को द्वितीय रूप में देखता ही नहीं है, सबको अपना आत्मा ही समझता है, उसे किसी से भी भय नहीं होता ‘प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो’ वेद की इस मन्त्र पंक्ति को जीवन में चरितार्थ करने वाला व्यक्ति प्रत्येक अवस्था में निर्भय रहता है।
शूद्र स्थिर है। वैश्य गतिशील है। क्षत्रिय उससे भी अधिक गतिशील है। ब्राह्मण परम गतिशील होते हुए भी स्थिर है।
विकास की दृष्टि से भी मानवता के ऊपर वर्णित चारों स्तरों में एक विशेष क्रम परिलक्षित होता है। शूद्र के निश्चिन्त जीवन में पराश्रित धन प्राप्ति कभी-कभी चोट पैदा कर ही देती है और वह स्वभावतः स्वाश्रित होकर धन के संचय की ओर झुक जाता है। यही उसका वैश्यत्व की ओर प्रयाण है। वैश्य धन तो पैदा करता है, पर उसकी वृद्धि और सुरक्षा की चिन्ता उसे ऐसे साधनों से सम्पन्न बनने की ओर भी प्रेरित करती रहती है जो उसके लिए निर्विघ्न वातावरण का निर्माण कर सकें। यही वैश्यत्व का क्षत्रियत्व में परिणमन है। क्षत्रियत्व या राजनीति अनेक वक्रताओं से संश्लिष्ट है उसमें दाम, दण्ड, भेद सभी का प्रयोग करना पड़ता है। यश का अर्जन साधारणतया सरल कार्य नहीं है। राजनीति में प्रवेश करके उसकी अन्तःअनार्जव अवस्था का दर्शन होता है और अन्त में मानव वक्रता से आकुल होकर सरलता से संयुक्त जीवन की ओर अग्रसर होता है। यही ब्राह्मणत्व की ओर चलना है। ब्राह्मण सरलता की प्रतिमा है, छल-छद्म से कोसों दूर निष्कपट भोलेपन की मूर्ति है। वह सबका है। वह सबका है, सब उसके हैं-फिर किससे कैसा दुराव-छिपाव। वह उन्मुक्त है, गगनवत् खुला हुआ, कुसुमवत् खिला हुआ, चन्द्रिका के समान आह्लाद दायक, सूर्य के समान प्रकाश प्रदायक, ब्रह्मरश्मियों में स्नात घौतमल, विगत कल्मष, शान्त, सौम्य—ऐसा ब्राह्मणत्व किस मूर्ख को प्यारा नहीं है? न हो, तब भी जाने, अनजाने सब उसी ओर चले जा रहे हैं। प्रकृति माता सबको खींच-खींचकर उधर ले जा रही है। जो हठवश, प्रमादपूर्वक उधर नहीं जा रहे, वे अभागे हैं। अन्यथा इस मिट्टी से हट कर उस द्यौ की ओर गमन करना सभी को अभीष्ट है, अन्न से आनन्द की ओर जाना सभी का लक्ष्य है, मृत से अमृत बनना सभी को प्यारा है।