गायत्री परिवार का संगठन-सूत्रपात व्यवस्थित और सुसम्बद्ध कार्य करने का समय आ गया

September 1956

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गायत्री तपोभूमि के माध्यम से गत वर्षों में सम्पूर्ण भारत में गायत्री महाशक्ति के लुप्त प्रायः महाविज्ञान का जो प्रसार हुआ है, उसे उत्साहवर्द्धक कहा जा सकता है। इस देश में किसी समय गायत्री रहित व्यक्ति के हाथ का जल ग्रहण करना तक निषिद्ध बताकर प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस परम कल्याणकारी उपासना को एक अनिवार्य दैनिक कृत्य नियत किया गया था। किन्तु समय का कुचक्र हमें इस स्थिति तक ले आया कि गायत्री को भूत भगाने का मंत्र या कानोंकान रखने, किसी को न बताने की जादूगरी जैसी चीज माना जाने लगा। भारतीय संस्कृति की अनादि जननी गायत्री में वह शक्ति, प्रेरणा, शिक्षा, स्फूर्ति एवं प्रक्रिया सन्निहित है, जिसके द्वारा प्राचीन काल में हमने उन्नति के उच्चतम सोपान तक पहुँचने में सफलता प्राप्त की थी और अब यदि फिर उस अवलम्बन को ग्रहण करें तो उस प्राचीन काल के महान् गौरव को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। यह दुर्भाग्य की ही बात है कि इस गायत्री रूपी अमूल्य निधि को हम बहुत काल तक भूले रहे। प्रभु की दिव्य प्रेरणा अब उस विस्मरण को हटाकर चेतना का नव-सन्देश प्रदान कर रही है। गायत्री माता की महा महिमा का शंखनाद अब पुनः हो रहा है और भारतीय संस्कृति के भाग्योदय का ब्राह्ममुहूर्त स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है।

प्रभु की प्रेरणा और उसके निर्धारित निमित्त उपकरणों द्वारा गायत्री का ज्ञान अनेक अन्तःकरणों में पुनः आविर्भूत हो रहा है। किसी अज्ञात प्रेरणा से असंख्यों नर-नारी इस अनादि गुरु-मंत्र का आश्रय लेकर आत्म-कल्याण, आत्म-उद्धार, आत्म-निर्माण और आत्म-शान्ति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। इस प्रकार की सन्मार्ग गामिनी आत्माओं में से अनेकों को मथुरा के केन्द्र से प्रेरणा मिलती रहती है। इस प्रकार वे इस मातृ संस्था में सम्बद्ध होकर एक आत्मीयता भरे आध्यात्मिक परिवार के रूप में विकसित होते चलते हैं, ऐसी आत्माएँ अनायास ही एक पारिवारिक प्रेम-बन्धन में बँधती चली जा रही हैं। यद्यपि इनका कोई नियमित संगठन नहीं हुआ है, फिर भी उन्हें एक महान् परिवार के रूप में देखा जा सकता है। इस धर्म उद्देश्य के पथ पर चलने वाले पथिकों की प्रेम शृंखला को हम गायत्री परिवार कहते हैं। इसके सक्रिय कार्यकर्ताओं को गत विशद् गायत्री महायज्ञ पर ‘साँस्कृतिक सेवा शृंखला’ के कर्मयोगी, व्रतधारी और आत्म-त्यागी की श्रेणियों में संगठित किया गया था। उन्हें कुछ काम भी सौंपे गये थे, प्रसन्नता की बात है कि कर्मठ कार्य-कर्ताओं की वह शक्तिवाहिनी भली प्रकार विकसित हो रही है।

अब ऐसी आवश्यकता अनुभव हुई है कि जहाँ कुछ गायत्री उपासक हैं वहाँ स्थानीय संगठन बना दिये जायं। जिससे वहाँ सामूहिकता की भावना विकसित हो और सामूहिक, स्वाध्याय, सत्संग, यज्ञ, अनुष्ठान, उपासना आदि कार्यों के अतिरिक्त उनमें परस्पर मिलते-जुलते रहने के कारण प्रेम-भाव, संगठन और सहयोग का भी विकास हो, एक दूसरे के अपने अनुभव सुनायें, कठिनाइयों को सुलझाएं और आगे बढ़ने के लिए एक दूसरे से प्रेरणा प्राप्त करें। सुख-दुख के साथी बढ़ावें, जिससे एकाकीपन का भारी, अनिश्चित और चिन्तित जीवन अपेक्षाकृत सरल हो सके। ऐसे संगठन मिलजुल कर अपने निकटवर्ती प्रभाव क्षेत्रों में नये गायत्री उपासक बढ़ाने, गायत्री संगठन बनाने का भी कार्य कर सकते हैं यह सब यदि बिलकुल भी न हो तब भी शुभ उद्देश्य वाले, एक भावना और एक मान्यता के लोगों का परस्पर मिलते-जुलते रहने और प्रेम-सूत्र में सम्बद्ध रहना भी कुछ कम लाभ की बात नहीं है। इन सब बातों पर विचार करते हुए यह निश्चय किया गया है कि जहाँ भी सम्भव हो वहाँ गायत्री प्रेमियों के संगठन स्थापित कर दिये जायं और उनका नाम “गायत्री परिवार” रख दिया जाय। सभा सुसाइटियों के झगड़ालू तरीकों से यह संगठन सर्वथा भिन्न रहे।

कोई विशेष नियमोपनियम इसके नहीं बनाये गये हैं, संगठन की रूपरेखा बहुत मोटी रखी गई है। इन पंक्ति द्वारा प्रत्येक उत्साही गायत्री उपासक को यह कार्य सौंप रहे हैं कि वह अपने यहाँ के सभी उपासकों से पाँच प्रतिज्ञा वाले सदस्यता-पत्र भरवा कर कम से कम 10 सदस्य अपने यहाँ बनावें। उन सदस्यों की सहमति से एक उत्साही व्यक्ति ‘मंत्री’ नियुक्त कर दें जिसके द्वारा मथुरा से पत्र-व्यवहार तथा स्थानीय कार्य-क्रमों का व्यवस्था आयोजन होता रहे। थोड़े सदस्यता-पत्र भेजे जा रहे हैं। कम पड़ें तो मथुरा से और मंगा लेने चाहिए या हाथ से नकल करके वैसे ही और बना लेने चाहिए। यह सदस्यता पत्र भरवा कर मथुरा भेज दिये जायं, इसके बदले में सदस्यों के सदस्यता प्रमाण-पत्र तपोभूमि से भेजे जावेंगे। शाखा स्थापना का प्रमाण-पत्र भी मंत्री के पास भेज दिया जायगा।

एक नगर में एक ही शाखा संगठन स्थापित करना उचित है, पर बड़े नगरों में जहाँ बहुत दूरी का फासला पड़ता हो एक से अधिक संगठन बनाये जा सकते हैं। यह सामूहिक संगठन जिनमें अधिक से अधिक लोग सम्मिलित हों महत्वपूर्ण है परन्तु जहाँ बहुत थोड़े उपासक हैं और जहाँ के उपासकों का स्वभाव दूसरों से मिलने-जुलने का नहीं है वे अपनी प्रकृति के कुटुम्बी, पड़ौसी, मित्र, सहकर्मी लोगों के साथ कम से कम पाँच सदस्य बनाकर व्यक्तिगत शाखा का संगठन भी स्थापित कर सकते हैं। महिलाओं के लिए, अब किसी स्थान में नये पहुँचे हुए, वहाँ के लोगों से अपरिचित, या ऐसी ही किन्हीं अन्य परिस्थितियों वाले सज्जनों के लिए यह व्यक्तिगत शाखा संगठन ठीक रह सकते हैं जिससे वे समय-समय पर उस छोटे दायरे से ही कुछ सामूहिक आयोजन कर सकें। इनके अतिरिक्त स्वतन्त्र सदस्य तो कहीं एक भी हो सकता है। व्यक्तिगत संगठन में कम से कम 5 और सामूहिक संगठन में कम से कम 10 सदस्य आवश्यक हैं। यह संख्या निरन्तर बढ़ती रहे ऐसा प्रयत्न होना चाहिए।

यह संगठन क्या करें? यह सब वहाँ की परिस्थिति पर निर्भर है। अपनी स्थानीय सुविधा और शक्ति के अनुसार कार्य-क्रम बनाकर स्वाध्याय, सत्संग, जप, हवन की आध्यात्मिक तथा देश, धर्म, समाज, संस्कृति, चरित्र, शिक्षा, संगठन आदि परमार्थिक सार्वजनिक लोक सेवा की सद्भावनाओं, सत् प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाना, उनमें समय और सहयोग देना इन संगठनों का कार्य-क्रम होना चाहिए। समय-समय पर इनके सम्बन्ध में विचार विनिमय होता रह सकता है। प्रारम्भ में संगठन आवश्यक है। सो करने में अब हम सबको लग जाना चाहिये।

इस संगठन को सुव्यवस्थित रखने और मार्ग दर्शन करने के लिए अगले मास से “गायत्री परिवार पत्रिका” अलग से निकाली जा रही है। अखण्ड ज्योति विशुद्ध साँस्कृतिक एवं विचार प्रधान पत्रिका रहेगी। अब तक गायत्री परिवार के समाचार अखण्ड ज्योति में ही छपते थे। पर वह लेखों की विचार प्रधान पत्रिका है इसलिए उसमें गायत्री विज्ञान, साधन विधान, अनुभव, पथ-प्रदर्शन, शंका समाधान, गायत्री समाचार परिचय, आदेश आदि के लिए नाम मात्र का स्थान मिल पाता था। गत मास 108 यज्ञ समाचारों में हर यज्ञ के लिए दो-दो चार-चार लाइनें भी नहीं दी सकीं। देर से आए हुए बीसों समाचार छपने से रह गये। फिर भी सात पृष्ठ घिर गये। अब इन सब बातों को विस्तारपूर्वक उपस्थित करने के लिए परिवार पत्रिका स्वतंत्र रूप से निकाली जा रही है, इसका वार्षिक चन्दा 1॥) रहेगा। शाखा संगठनों के लिए, इसे मँगाकर अपने सदस्यों को पढ़वाते रहना आवश्यक कर्तव्य होगा। अन्य उपासक भी उसके सदस्य बन सकते हैं।

यह संगठनात्मक कार्य-क्रम बहुत महत्वपूर्ण है। इस आधार पर व्यवस्थित रूप से सुसम्बद्ध होकर हम लोग अपने निर्धारित लक्ष आत्म-कल्याण और साँस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकते हैं। आइए, इस प्रगति-पथ पर हम लोग यह संगठनात्मक कदम उत्साह पूर्वक बढ़ायें और वह कार्य करें जो सच्चे अर्थों में जीवित, प्राणवान और प्रकाशवान आत्माऐं कर सकती हैं।

तपोभूमि समाचार

गायत्री तपोभूमि में इस श्रावण मास में रुद्रयज्ञ आनन्द पूर्वक सम्पन्न हुआ। इस भाद्रपद मास में यजुर्वेद यज्ञ चल रहा है, जिसकी पूर्णाहुति भाद्रपद सुदी पूर्णिमा को होगी। अश्विन में पितृ यज्ञ और शतचण्डी यज्ञ होंगे। यज्ञ-विधान आदि कर्मकांडों की व्यवहारिक शिक्षा तथा संगीत अध्यापक द्वारा विविध प्रकार के वाद्य सिखाये जा रहे हैं। औषधालय का फर्नीचर बन चुका है, भाद्रपद मास में औषधि-निर्माण का कार्य चलेगा। एक मास में चिकित्सालय तथा चिकित्सा शिक्षा की व्यवस्था पूरी हो जाने की सम्भावना है।

गत मास से संस्कृत विद्यालय का जो शुभारम्भ हुआ उसका सर्वत्र स्वागत हुआ है। ‘अखंड-ज्योति’ प्रेस की मशीनें, टाइप आदि समस्त सामान गायत्री तपोभूमि में भेजा जा रहा है। एक महीने के भीतर यहाँ प्रेस के चालू हो जाने की आशा है। इसका नाम ‘गायत्री प्रेस’ कर दिया गया है। अब अखंड-ज्योति पत्रिका तो अन्यत्र ही छपा करेगी। गायत्री प्रेस का उपयोग गायत्री प्रचार सम्बन्धी पत्रक आदि छापने और संस्कृति विद्यालय के छात्रों को प्रेस का कम्पोज, छपाई आदि कार्य सिखाने में किया जायगा। चार-पाँच हजार की पूँजी लगाकर प्रेस खोलकर सम्मान पूर्वक आजीविका चलाई जा सकती है या पूँजी के अभाव में प्रेसों की नौकरी करके आसानी से 50-100 रुपये मासिक कमाया जा सकता है। प्रेस के साथ ही रबड़ की मुहरें बनाने तथा पुस्तकों की घटिया-बढ़िया सब प्रकार की जिल्दें बनाने का शिल्प भी सिखाया जायेगा। इन कार्यों में भी काफी लाभ है, यह दो शिक्षायें इसी मास से चालू की जा रही हैं। कुछ और भी उद्योग धन्धों की शिक्षा देने की बात सोची जा रही है, जिससे भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के साथ-साथ कोई उद्योग धन्धा सीखकर स्वावलम्बी जीवन व्यतीत कर सकें। यों चिकित्सा, संगीत, कर्मकाँड, कथा प्रवचन, यज्ञोपवीत बनाना आदि कार्य जो पहले से ही संस्कृति विद्यालय के अंग हैं, किसी हद तक जीविका उपार्जन में सहायक हो ही सकते हैं। अब इस पहलू पर और भी अधिक ध्यान दिया जा रहा है। आयुर्वेदिक रीति से वैद्यक की तथा होम्योपैथिक पद्धति से डाक्टरी शिक्षा देने के लिए विशेष रूप से आयोजन किया जा रहा है।

रामगंज मंडी चलिए:—

ता. 16,17,18,19 अक्टूबर 56 को रामगंज मंडी (कोटा) में राजस्थान प्रान्तीय गायत्री सम्मेलन तथा 101 हवन कुण्डों की 11 यज्ञशालाओं में 24 लक्ष आहुतियों का गायत्री महायज्ञ होगा। अखंड-ज्योति परिवार के सदस्यों को इस पुण्य पर्व में सम्मिलित होने तथा सहयोग करने के लिए इन पंक्तियों द्वारा ही आमंत्रित किया जा रहा है, व्यक्तिगत आमंत्रणों की प्रतीक्षा न करके इन पंक्तियों को ही निमंत्रण-पत्र एवं अनुरोध मान लिया जाय।

रामगंज मंडी स्टेशन वेर्स्टन रेलवे देहली, बम्बई लाइन पर कोटा से 50 मील है। मोटर रोड भी है, नगर और स्टेशन में कुछ भी फासला नहीं हैं। स्टेशन पर स्वयं-सेवक रहेंगे। भोजन व ठहरने का प्रबन्ध है। आने वाले पूर्व सूचना अवश्य देदें ताकि प्रबन्ध में सुविधा हो।

*समाप्त*


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