आपद् धर्म और उसकी मर्यादा

September 1956

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(श्री मोहन लाल वर्मा, बी.ए.,एल.एल.बी.)

( 1 )

धर्म संसार में मनुष्य की बुद्धि, भावना और श्रद्धा का सर्वोत्तम रूप है। ज्ञान और श्रद्धा के प्रकाश में, विशेषतः भक्ति के सुलभ राजमार्ग से जितना भी हो सके अपने स्वधर्मानुसार कर्त्तव्य का पालन करते रहना चाहिए। निष्काम बुद्धि से मरण पर्यंत अपने कर्त्तव्यों का पालन करते चलना ही श्रेष्ठ है। इसी में मनुष्य का साँसारिक और पारलौकिक कल्याण है।

गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा है कि धर्म ही कर्त्तव्य है और कर्त्तव्य का पालन कर जीवन-पथ पर चलना ही धर्म पर दृढ़ रहना है। कर्तव्य से विमुख होना धर्म से मुख मोड़ना है। मनुष्य का कर्त्तव्य परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता है। जीवन में भिन्न-भिन्न अच्छी-बुरी परिस्थितियाँ आती रहती हैं। उसका कर्त्तव्य भी इन परिस्थितियों के अनुसार सदैव एक सा नहीं रहता। बहुधा देखा जाता है कि एक परिस्थिति में जो धर्म है, वही दूसरी परिस्थिति में पाप हो जाता है। अपने परिवार या बन्धु-बाँधवों का वध करना पाप है, पर महाभारत-युद्ध की विशेष परिस्थितियों में अत्याचारी बान्धवों का वध कर संसार से पापवृत्ति दूर करना ही कर्त्तव्य था। इसी प्रकार मानव जीवन के प्रत्येक पग, प्रत्येक काल और परिस्थिति में उसका धर्म क्या है, यह निर्णय करना कठिन हो जाता है।

इस सम्बन्ध में साधारणतः यह कहा जा सकता है कि जब मनुष्य संकट में हो, विपद् में हो, तो जीवन धारण के लिए परिस्थितियों के अनुसार धर्म में कुछ परिवर्तन कर लेना चाहिए। धर्म और कर्त्तव्य जीवन की परिस्थितियों के अनुसार बदल लेनी चाहिये। यदि हम अपनी निश्चयात्मिका बुद्धि को जाग्रत कर परिस्थितियों को सोचें, तो यह सहज ही पता चल जाता है कि हम आखिर इन परिस्थितियों में क्या करें? सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक परिस्थितियों के वातावरण में क्या करें? भौतिकता का ही नाश होता है विषम परिस्थितियों में भी हमारी अजर अमर आत्मा ज्यों की त्यों रहती है। धर्म-ध्रुवता का साधन तन है। तन को निर्लिप्त बनाना चाहिए पर, वास्तविक वस्तु हमारा मन और आत्मा हैं। इन्हीं की शुद्धि का ध्यान रखना चाहिए। जो आत्म तत्त्व को समझता है, विषम परिस्थितियों में भी नहीं घबराता, वह अपने ब्रह्म स्वरूप को पहचानता है।

(2)

“धर्मो रक्षति रक्षितः” धर्म रक्षकों की रक्षा स्वयं करता है। आपत्ति काल में जीवन धारण के उपकरण स्वयं उपस्थित कर देता है। कुछ उदाहरण लीजिए—

कुरुदेश में एक बार भयंकर अकाल पड़ा। अन्न का दाना न दिखाई देता था। अन्न के अभाव में अनेक व्यक्ति मरे। शेष अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर बिखर कर भोजन की तलाश में गए। सबका जीवन संकट में था। भूख से व्याकुल भोजन की तलाश में ऋषि उपस्ति चाक्रायण अपनी पत्नी अटक्री को साथ लेकर इसी प्रकार घूम रहे थे। घूमते-घूमते वे एक ऐसे ग्राम में पहुँचे जहाँ हाथीवान उबले हुए दाने खा रहे थे। ऋषि उपस्ति ने कुछ दाने माँगे। हाथीवानों को दया आ गई और उन्होंने अपने दानों में से कुछ दाने ऋषि और उनकी पत्नी को दे दिये। जीवन धारण करना था और दूसरा कोई उपाय न था, इसलिये ऋषि ने वे जूठे दाने लेकर खा लिए। भोजन खाकर जब ऋषि ने पानी माँगा, तो हाथीवान जूठे लोटे से ही उन्हें पानी देने लगे। उपस्ति ने लेने से इन्कार कर दिया और बोले जूठे पानी के पीने से तो पाप लगेगा। यह सुनकर हाथीवान चकित हो पूछने लगे कि आपने हमारा जूठा अन्न तो खा लिया, जूठे जल को लेने में पाप कैसे लगेगा? इस पर ऋषि बोले, “निषिद्ध कर्म तभी उचित समझा जाता है, जब उसके बिना कोई महान् विपत्ति अथवा मृत्यु न रोकी जा सके, अन्यथा नहीं। अन्न के बिना प्राण संकट में देख कर ही मैंने आपद्-धर्म में जूठा अन्न खाया, किन्तु शुद्ध पानी तो दूसरी जगह मिल सकता है, तब फिर जूठा पानी क्यों पिया जाय?”

ऋषि के शब्द निषिद्ध कर्म तभी उचित समझा जाता है जब उसके बिना कोई महान् विपत्ति अथवा मृत्यु न रोकी जा सके, अन्यथा नहीं।” आपद् धर्म की एक मर्यादा की ओर संकेत करते हैं। आपत्ति काल में धर्म की मर्यादा में अन्तर आ जाता है।

कहते हैं सोमनाथ के प्रसिद्ध भारतीय मंदिर के नाश का कारण यह था कि शत्रु ने सेना के आगे गायों के झुण्ड एकत्रित कर दिये थे और उनकी आड़ में पीछे-पीछे बढ़ते गए। दयालु हिंदू गो पर आक्रमण करना पाप समझते थे। उनकी हत्या न कर सकते थे। शत्रुओं की योजना सफल हुई और सोमनाथ जीत लिया गया।

एक बार जहाँ विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे, अकाल पड़ा। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। कुछ दिन वे क्षुधा का रोके रहे पर अन्ततः भोजन की तलाश में निकले। एक स्थान पर उन्हें धुंआ निकलता हुआ दीखा। उन्होंने वहाँ भोजन का अनुमान किया। पहुँचे तो मालूम हुआ कि वह एक चाण्डाल का घर है। उसे भी कई दिनों से भोजन नहीं मिला था। उसने कुत्ते का माँस पकाया था। चाण्डाल बोला, “ऋषिवर! मुझे कुछ भी खाने को नहीं मिला। यह कुत्ते का माँस है। मैं इस अभक्ष पदार्थ को खिलाकर आपका धर्म भ्रष्ट नहीं करना चाहता।” ऋषि ने विचार किया कि धर्म तो देह के साथ है। यदि देह रही तो प्रायश्चित कर फिर शुद्धि कर सकूँगा। अतः इस आपत्ति काल में कुत्ते के माँस का भक्षण कर लेने में कोई पाप नहीं है।” यह सोच कर ऋषि ने उसे ग्रहण कर लिया और आपत्ति काल से अपनी रक्षा की। समय निकल गया, विश्वामित्र, विश्वामित्र ही रहे।

तात्पर्य यह है कि आपद् में धर्म च्युत होने पर हमारे यहाँ प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है। अतः परिस्थिति के अनुसार हमें अपने कर्त्तव्य का निर्धारण करना चाहिए।


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