(आचार्य विनोबा)
पहले हम मानव की सौम्यतम व पावन मूर्तियों में परमात्मा का दर्शन करना सीखें। उसी तरह इस सृष्टि में जो-जो विशाल व मनोहर रूप हैं उनमें उसके दर्शन पहले करें। उषा को ही लो। सूर्योदय के पहले की वह दिव्य प्रभा। इस उषा-देवता के गान मस्त होकर ऋषि गाने लगते हैं—“उषे, तू परमेश्वर का सन्देश लाने वाली दिव्य दूतिका है, तू हिमकणों से नहाकर आयी है। तू अमृतत्व की पताका है।” ऐसे भव्य हृदयंगम वर्णन ऋषियों ने उषा के किये हैं। वैदिक ऋषि कहते हैं—“तेरा दर्शन करके, जो कि परमेश्वर की संदेशवाहिका है, यदि परमेश्वर का रूप न दिखाई दे, न समझ में आये तो फिर मुझे परमेश्वर का परिचय कौन करायेगा।” इतनी सुन्दरता से सज-धज कर यह उषा सामने खड़ी है, परन्तु हमारी निगाह वहाँ तक जाय तब न?
उसी तरह सूर्य को देखो। उसके दर्शन मानो परमात्मा के ही दर्शन हैं। वह नाना प्रकार के रंग-बिरंगे चित्र आकाश में खींचता है। चित्रकार महीनों कूँची इधर-उधर घुमाकर सूर्योदय के चित्र बनाते और उसमें रंग भरते हैं। परन्तु तुम सुबह उठकर परमेश्वर की कला को देखो तो। उस दिव्य कला के लिये—उस अनन्त सौंदर्य के लिये भला क्या उपमा दी जा सकेगी? परन्तु देखता कौन है? उधर वह सुन्दर भगवान खड़ा है और इधर यह मुँह पर और भी रजाई डालकर नींद में खुर्राटे भरता है। सूर्यदेव कहते हैं—“अरे आलसी, तू तो पड़ा ही रहना चाहता है किन्तु मैं तुझे उठाऊँगा।” और वह अपने जीवन-किरण खिड़कियों में से भेजकर उस आलसी को जगा देता है। सूर्य समस्त स्थावर-जंगम का आत्मा है। चराचर का आधार है, जीवन का आधार है। उसमें परमात्मा के दर्शन करो।
और वह पावन गंगा! जब मैं काशी में था तो गंगा के किनारे जाकर बैठ जाया करता। रात में, एकान्त समय में जाता था। कितना सुन्दर और प्रसन्न उसका प्रवाह था। उसका वह भव्य गम्भीर प्रवाह और उसके उदर में संचित वे आकाश के अनन्त तारे! मैं मूक बन जाता। शंकर के जटाजूट से अर्थात् उस हिमालय से बहकर आने वाली वह गंगा जिसके तीर पर राज-पाट को तृणवत् फेंककर राजा लोग तप करने जाते थे, उस गंगा का दर्शन करके मुझे असीम शान्ति अनुभव होती। उस शान्ति का वर्णन मैं कैसे करूं? वाणी की वहाँ सीमा आ जाती है। यह समझ में आने लगा कि हिन्दू यह क्यों चाहता है कि मरने पर निदान मेरी अस्थि तो गंगा में पड़ जाय। आप हँसिये। आप हँसने से कुछ बिगड़ता नहीं। परन्तु मुझे ये भावनायें बहुत पवित्र और संग्रहणीय मालूम होती हैं। मरते समय गंगाजल के दो बूँद मुँह में डालते हैं। वे दो बूँद क्या हैं; मानो परमेश्वर ही मुँह में उतर आता है उस गंगा को परमात्मा ही समझो। वह परमेश्वर की करुणा बह रही है। तुम्हारा सारा भीतरी-बाहरी कूड़ा-कर्कट वह माता धो रही है, बहा ले जा रही है। गंगा माता में यदि परमेश्वर प्रकटित न दिखाई दे, तो कहाँ दिखाई देगा? सूर्य, नदियाँ, धू-धू करके हिलोरें मारने वाला वह विशाल सागर, ये सब परमेश्वर की ही मूर्तियाँ हैं।
और वह हवा! कहाँ से आती है, कहाँ जाती है, कुछ पता नहीं। यह भगवान का दूत ही है। हिन्दुस्तान में कुछ हवा स्थिर हिमालय पर से आती है; कुछ गम्भीर सागर से। यह पवित्र हवा हमारे हृदय को छूती है, हमें जाग्रत करती है, हमारे कानों में गुनगुनाती है। परन्तु इस हवा का संदेश सुनाता कौन है? जेलरने यदि हमारा चार सतर का खत न दिया, तो हमारा दिल खट्टा हो जाता है। अरे मंदभागी, क्या रखा है उस चिट्ठी में? परमेश्वर का यह प्रेम-संदेश, हवा के साथ हर घड़ी आ रहा है, उसे तू सुन!
और हमारे घर के नित्य काम-काज में आने वाले इन पशुओं को देखो! वह गो माता कितनी वत्सल, कितनी ममता व प्रेम से परिपूर्ण है! दो-दो तीन-तीन मील से, जंगल-झाड़ियों से अपने बछड़ों के लिये कैसी दौड़कर आती हैं! वैदिक ऋषियों को पर्वतों से स्वच्छ जल लेकर कल-कल करती हुई आने वाली नदियाँ देखकर अपने बछड़ों के लिए दूध-भरे स्तनों को लेकर राँभती हुई आने वाली वत्सल गायों की याद हो आती है। वह ऋषि नदी से कहता है—“हे देवि दूध की तरह पवित्र, पावन, मधुर जल लाने वाली तू धेनु जैसी है। जैसे गाय जंगल में नहीं रह सकती, वैसे ही तुम नदियों से भी पर्वतों में नहीं रहा जा सकता। तुम सरपट दौड़ती हुई प्यासे बालकों से मिलने के लिए आती हो।”
वत्सल गाय के रूप में भगवान् ही दरवाजे पर खड़ा है।
ऐसे कितने उदाहरण दूँ? मैं तो सिर्फ खयाल दे रहा हूँ। रामायण का सारा सार इस प्रकार की रमणीय कल्पना में ही है। रामायण में पिता-पुत्र का प्रेम, माँ बेटों का प्रेम, भाई-भाई का प्रेम, पति-पत्नी का प्रेम, यह सब कुछ है। परन्तु मुझे रामायण इसके लिए प्रिय नहीं है। मुझे वह पसंद इसलिए है कि राम की मित्रता वानरों से हुई। आजकल कहते हैं वे वानर तो नाग-जाति के थे। इतिहासज्ञों का काम ही है पुरानी बातों की छानबीन करना। उसके इस कार्य पर मैं आपत्ति नहीं उठाता। लेकिन राम ने यदि असली वानरों से मित्रता की हो तो इसमें असंभव क्या है? राम का रामत्व, रमणीयत्व सचमुच इसी बात में है कि राम और वानर मित्र हो गये। इसी तरह कृष्ण का और गायों का सम्बन्ध। सारी कृष्ण पूजा का आधार यही कल्पना है। श्री कृष्ण के किसी चित्र को लीजिये तो आपको इर्द-गिर्द गायें खड़ी मिलेंगी। गोपाल कृष्ण, गोपाल कृष्ण! यदि कृष्ण से गायों को अलग कर दो तो फिर कृष्ण में बाकी क्या रहा? राम से यदि वानर हटा दिये तो फिर उस राम में क्या बाकी रहा? राम ने वानरों में भी परमात्मा के दर्शन किये व उनके साथ प्रेम और घनिष्ठता का सम्बन्ध स्थापित किया। यह है रामायण की कुँजी! इस कुँजी को आप भूल जायेंगे तो रामायण की मधुरता खो देंगे। पिता-पुत्र का, माँ बेटे का प्रेम तो और जगह भी मिल जायगा, परन्तु नर-वानर की यह अनन्य मधुर मैत्री सिर्फ रामायण में ही मिलेगी और कहीं नहीं। वानर में स्थित भगवान, रामायण ने आत्मसात् किया। वानरों को देखकर ऋषियों को बड़ा कौतुक होता। ठेठ रामटेक से लेकर कृष्णा-तट तक जमीन पर पैर न रखते हुए वे वानर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदते-फांदते और क्रीड़ा करते थे। ऐसे उस सघन वन को और उसमें क्रीड़ा करने वाले वानरों को देखकर उन सहृदय ऋषियों के मन में कवित्व जाग उठता, कौतुक होता। ब्रह्म की आँखें कैसी होती हैं यह बताते हुए उपनिषदों ने बन्दरों की आँखों की उपमा दी है। बन्दर की आँखें बड़ी चंचल, चारों ओर उनकी निगाह। ब्रह्म की आँखें ऐसी ही होनी चाहिए। ईश्वर का काम आँखें स्थिर रखने से न चलेगा। हम आप ध्यानस्थ होकर बैठ सकते हैं। परन्तु यदि ईश्वर ध्यानस्थ हो जाय तो फिर दुनिया का क्या हाल हो। अतः बन्दरों में ऋषियों को सबको चिन्ता रखने वाली ब्रह्म की आँखें दिखाई देती हैं। वानरों में परमात्मा के दर्शन करना सीख लो। संतों के लिए सर्वत्र सुकाल है। परन्तु हम अभागों के लिए सब जगह अकाल है।
और मैं उस कोयल को कैसे बुलाऊँ? किसे पुकारती हैं वह? गर्मियों में नदी नाले सूख गये, परन्तु वृक्षों में नव-पल्लव छिटक रहे हैं। वह यह तो नहीं पूछ रही है कि किसने उन्हें यह वैभव प्रदान किया? कहाँ है वह वैभवदाता? कैसी उत्कट मधुर कूक! हिंदू धर्म में कोयल के व्रत का तो विधान ही मिलता है। स्त्रियाँ व्रत लेती हैं कि कोयल की आवाज सुने बिना वे भोजन नहीं करेंगी। कोयल के रूप में प्रकट परमात्मा का दर्शन करना सिखाने वाला यह व्रत है। वह कोयल कितनी सुंदर कूक लगाती है, मानो उपनिषद् ही गाती है। उसकी कूह-कूह तो कानों को सुनाई देती है परन्तु वह दिखाई नहीं देती। वह अंग्रेजी कवि वर्ड सवर्थ उसके पीछे पागल होकर जंगल-जंगल उसकी खोज में भटकता है। इंग्लैंड का कवि कोयल को खोजता है; परन्तु भारत में घरों की सामान्य स्त्रियाँ कोयल न दिखाई दें तो खाना भी नहीं खातीं। इस कोकिला व्रत की बदौलत भारतीय स्त्रियों ने महान् कवि की पदवी प्राप्त करली है। जो कोयल परम आनन्द की मधुर ध्वनि सुनाती है उसके रूप में सुन्दर परमात्मा ही अभिव्यक्त हुआ है।
कोयल तो सुन्दर और कौवा क्या भद्दा है? कौवे का भी गौरव करो। मुझे तो वह बहुत प्रिय है। उसका वह घना काला रंग, वह तीव्र आवाज। वह आवाज क्या बुरी है? नहीं, वह भी मीठी है। वह पंख फड़फड़ाता हुआ आता है तो कितना सुन्दर लगता है। छोटे बच्चों का चित्त खींच लेता है। नन्हा बच्चा बन्द घर में खाना नहीं खाता। बाहर आँगन में बैठकर उसे जिमाना पड़ता है और कौवे दिखाकर उसे कौर खिलाना पड़ता है। कौवे के प्रति स्नेह रखने वाला वह बच्चा, क्या पागल है? वह पागल नहीं, उसमें ज्ञान भरा हुआ है। कौवे के रूप में व्यक्त परमेश्वर से वह बच्चा फौरन एक रूप हो जाता है। माता चावल पर चाहे दही डाले, दूध डाले या शक्कर डाले; उस बच्चे को उसमें कोई रस नहीं। उसे आनन्द है कौवे के पंख फड़फड़ाने में; उसके मुँह नचाने में। सृष्टि के प्रति छोटे बच्चों को जो इतना कौतुक मालूम होता है उसी पर तो सारी ईसप-नीति रची गई है। ईसप को सर्वत्र ईश्वर दिखाई देता था। अपनी प्रिय पुस्तकों की सूची में, मैं ईसप-नीति का नाम सबसे पहले रखूँगा, भूलूँगा नहीं। ईसप के राज्य में दो हाथों वाला, पाँवों वाला यह मनुष्य प्राणी ही अकेला नहीं है। उसमें कुत्ते, कौवे, हिरन, खरगोश, कछुए, साँप, केंचुए सभी बातचीत करते हैं हंसते हैं। एक प्रचण्ड सम्मेलन ही समझिये न? ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्यदर्शन प्राप्त हो गया है। रामायण भी इसी तत्व पर, इसी दृष्टि पर रची है। तुलसीदास ने राम की बाल-लीला का वर्णन किया है। राम आँगन में खेल रहे हैं। एक कौवा पास आता है, राम उसे आहिस्ता से पकड़ना चाहते हैं। कौवा पीछे फुदक जाता है, अंत को राम थक जाते हैं। परन्तु उन्हें एक तरकीब सूझती है। मिठाई का एक टुकड़ा लेकर राम कौवे के पास जाते हैं। राम टुकड़ा जरा आगे बढ़ाते हैं, कौवा कुछ नजदीक आता है। इस तरह के वर्णन में तुलसीदास कई पृष्ठ खर्च कर जाते हैं। क्योंकि वह कौवा परमेश्वर है। राम की मूर्ति का अंश ही उस कौवे में भी है। राम और कौवे की पहचान मानो परमात्मा से परमात्मा की पहचान है।
साराँश यह कि इस प्रकार इस सारी सृष्टि में विविध रूपों में—पवित्र नदियों के रूप में, विशाल पर्वतों के रूप में, गंभीर सागर के रूप में, वत्सल गोमाता के रूप में, उम्दा घोड़े के रूप में, दिलेर सिंह के रूप में, मधुर कोयल के रूप में, सुन्दर मोर के रूप में, स्वच्छ व एकाँतप्रिय सर्प के रूप में, पंख फड़फड़ाने वाले कौवे के रूप में, दौड़-धूप करने वाली ज्वालाओं के रूप में, प्रशान्त तारों के रूप में सर्वत्र परमात्मा समाया हुआ है। आँखों को देखने का अभ्यास कराना है। पहले मोटे और सरल अक्षर, फिर बारीक और संयुक्ताक्षर सीखने चाहिए। संयुक्ताक्षर न सीख लेंगे तब तक प्रगति नहीं हो सकती। संयुक्ताक्षर कदम-कदम पर आयेंगे। दुर्जनों में स्थिर परमात्मा को देखना भी सीखना चाहिए। राम समझ में आता है, परन्तु हिरण्यकशिपु भी जंचना चाहिए। वेद में कहा है—
“नमोनमः स्तेनानां पतये नमोनमः नमः पुंजिष्टेभ्यो नमो निषादेभ्यः” “ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मै वेमे कितवाः।”
“उन डाकुओं के सरदारों को नमस्कार! उन क्रूरों को, उन हिंसकों को नमस्कार। ये ठग, ये चोर, ये डाकू सब ब्रह्म ही हैं। इन सबको नमस्कार।”
इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह है कि सरल अक्षर तो सीख गये अब कठिन अक्षरों को भी सीखो। कार्लाइल ने ‘विभूति-पूजा’ नामक एक पुस्तक लिखी है। उसने उसमें नेपोलियन को भी एक विभूति कहा है। यहाँ शुद्ध परमात्मा नहीं है, मिश्रण है। परन्तु इस परमेश्वर को भी पचा लेना चाहिए। इसीलिए तुलसीदास ने रावण को राम का विरोधी भक्त कहा है। हाँ, इस भक्त के रंग-ढंग जरा भिन्न हैं। आग से जल जाने पर पाँव सूज जाता है, परन्तु सूजन पर सेंक करने से वह ठीक हो जाता है। दोनों जगह तेज एक ही। पर आविर्भाव भिन्न-भिन्न हैं। राम और रावण में आविर्भाव भिन्न-भिन्न दिखाई दिया तो भी वह है एक ही परमेश्वर का।
स्थूल व सूक्ष्म, सरल और मिश्र, सरल अक्षर व संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वर के सिवाय एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है; चींटी से लेकर सारे ब्रह्माँड तक सर्वत्र परमात्मा ही से व्याप्त है। सबकी एक-सी चिंता रखने वाला कृपालु, ज्ञान-मूर्ति, वत्सल, समर्थ, पावन, सुन्दर, परमात्मा हमारे चारों ओर सर्वत्र खड़ा है।