आत्म-दान की याचना

February 1956

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भारतीय संस्कृति की आत्म शिक्षा, प्रेरणा, एवं विधि व्यवस्था ऐसी है जिसे मनुष्य जितनी ही गम्भीरता से समझे और उसमें सम्मिलित तथ्यों को जीवन में उतारे तो वह निस्संदेह महान् बन सकता है। प्राचीनकाल में भारत महान् इसलिए था कि यहाँ के प्रत्येक नागरिक के मन, वचन और कर्म का संचालन भारतीय संस्कृति के द्वारा होता था। तब घर-घर में नर रत्न उत्पन्न होते थे और इस देश की आध्यात्मिक, नैतिक, शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक एवं वैज्ञानिक शक्ति का कोई वारापार न था।

आज अनेक दिशा में अनेक प्रकार की उन्नतियाँ करने में मनुष्य उन पूर्वजों से कहीं आगे बढ़ गया है पर धर्म और संस्कृति की दृष्टि से काफी पिछड़ गया है। इस एक ही कमी ने अन्य समस्त उन्नतियों पर पानी फेर दिया है। सुख साधनों की निरन्तर वृद्धि होते जाने पर भी लोग दिन-दिन अधिक दुखी, अधिक दुर्बल, अधिक विपन्न होते चले जाते हैं। यदि नैतिक उन्नति की ओर ध्यान न दिया गया तो सुखी बनने के सारे ही उपक्रम व्यर्थ चले जावेंगे। अनीति-ग्रस्त मनुष्य कुबेर की सम्पदा और इन्द्र के वैभव के स्वामी बनने पर भी दुखी ही रहेंगे।

मनुष्य के नैतिक स्वास्थ्य और उससे उत्पन्न होने वाले शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक स्वास्थ्य का एकमात्र आधार वह महान परम्परा एवं विश्वासों की पृष्ठभूमि ही है, जिसको हम संस्कृति कहते हैं, यही वह संजीवनी शक्ति है जिसकी प्रेरणा से आदमी की शकल में साँस लेने वाले पुतले वस्तुतः मनुष्य कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं वे मनुष्य ही नहीं, देव और परमात्मा का पद भी प्राप्त कर सकते हैं। स्वर्गलोक प्राप्त करने का अर्थ मनुष्य का देवत्व की भूमिका में जागृत होना और परमात्मा को प्राप्त करने का अर्थ- आदमी की मनोभूमि का ‘विश्व मानव की अन्तरात्मा’ के रूप में परिणत हो जाना ही है। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने की सामर्थ्य-स्वर्ग और मुक्ति दिलाने की शक्ति—तत्वज्ञान की उस महान परम्परा में ही सन्निहित है जिसे संस्कृति के नाम से पुकारते हैं। यों विश्व संस्कृति की आत्मा एक है, पर जिस प्रकार विभिन्न देशों की, विभिन्न परिस्थितियों के कारण विभिन्न भाषाओं, आहार-विहार और परम्पराओं का अन्तर रहता है उसी प्रकार इस देश के लिए जिस ‘जीवन दृष्टि’ की आवश्यकता समझ उसे ऋषियों ने भारतीय संस्कृति नाम दिया।

कहा जाता है कि आज उन्नति की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, यह बात तभी ठीक मानी जा सकती है, जब उसमें साँस्कृतिक विकास के लिए भी समुचित स्थान हो। यह कार्य ऐसा नहीं है जिसे उपेक्षित छोड़ा जा सके। यदि वस्तुतः हम मनुष्य को सुखी और समृद्ध देखना चाहते हैं तो इसके लिए आध्यात्मिक इंजीनियरों को “साँस्कृतिक योजना आयोगों का काम भी हाथ में लेना पड़ेगा। हीराकुण्ड और नाँगल बाँध केवल नदी नालों के पानी पर काबू पा सकते हैं, पर मनुष्य के अन्तःकरणों में छिपी हुई अपार बुद्धि और क्रियाशक्ति की प्रचण्ड-धारा का नाशकारी बाढ़ के रूप में परिणत न होने देने के लिए ऐसे पुल और बाँध बनाने पड़ेंगे जो उस शक्ति से सिंचाई, बिजली आदि जैसी लाभकारी दिशा में लगा सकें।

पंचवर्षीय योजनाओं को सफल बनाने में कुशल वैज्ञानिकों, अनुभवी इंजीनियरों, सूक्ष्मदर्शी योजनाकारों और परिश्रमी श्रम-जीवियों की भारी आवश्यकता होती है। यह पर्याप्त न हों तो कोई भी योजना सफल नहीं हो सकती। राष्ट्र को सच्चे अर्थों में समृद्ध बना सकने वाली साँस्कृतिक-पुनरुत्थान की महान योजना को क्रियान्वित करने के लिए भी ऐसे ही उच्चकोटि के कार्यशील व्यक्तियों की आवश्यकता है। यह कार्य सरकार के उच्च वेतन भोगी नौकर नहीं कर सकते, धनियों के द्वारा आर्थिक आधार पर भी इन कार्यों को सफल नहीं बनाया जा सकता। यह कार्य तो ऐसे त्यागी, तपस्वी, धर्मात्मा, परमार्थ प्रिय एवं आत्मिक दृष्टि से महान और सुयोग्य व्यक्तियों का है जो अपनी श्रेष्ठता के कारण दूसरों के अन्तःकरणों पर कुछ प्रभावशाली छाप छोड़ सकें वाचाल बकवादी व्याख्यानदाता, कागज काले करने के अभ्यासी प्रेस वाले, गायक, नर्तक, तथाकथित संत महन्त एवं नामधारी लीडर इन कार्यों का प्रदर्शन तो कर सकते हैं पर कुछ ठोस कार्य तो उन्हीं के द्वारा होगा जो व्यक्तिगत रूप से महान होंगे। साँस्कृतिक पुनरुत्थान, जिसकी आज पीड़ित मानवता की रक्षा करने के लिए अत्यधिक आवश्यकता है- केवल उन व्यक्तियों के द्वारा पूर्ण होगा जो विद्या, धन, चातुर्य, स्वास्थ्य पद आदि की दृष्टि से नहीं आन्तरिक दृष्टि से महान होंगे, क्योंकि जन-साधारण की अन्तरात्मा को प्रेरित, प्रभावित एवं प्रकाशित करना सदा से ऐसे ही लोगों के हाथ में रहता आया है और आगे भी रहेगा।

गायत्री तपोभूमि की बाह्य सामर्थ्य नगण्य है, उसके व्यापक साँस्कृतिक पुनरुत्थान करने के विशाल कार्य को, साधनों के अभाव में भी हाथ में लेने के कार्य को, बौने के आकाश छूने के प्रयत्न के समान आज उपहासास्पद कहा जा सकता है, पर ऐसा लगता है कि कोई महान-शक्ति इस देश की साँस्कृतिक कमी को पूरा करने के लिए भारी करवट बदल रही है और उसके लिए जो भी ईंट पत्थर उसके आगे आ रहे हैं, उन्हें अपना हथियार बना रही है। हमारी सामर्थ्य अत्यन्त तुच्छ है, पर जिस प्रकार किसी बलवान हाथ के द्वारा खींच कर मारा हुआ छोटा सा ईंट का टुकड़ा लक्ष को मर्माहित कर सकता है, उसी प्रकार इस योजना की सफलता की आशा करना भी कुछ अनुचित न होगा।

“जन-जन की अन्तरात्मा में भारतीय संस्कृति के तत्वज्ञान की इतनी गहराई तक प्रतिष्ठापना करना जिससे उसके दृष्टिकोण और जीवनक्रम का संचालन नैतिक आधार पर होने लगे” यह आज की प्रधान आवश्यकता है इस एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यक्रम असंख्य प्रकार के बन सकते हैं। यह सब कार्यकर्त्ताओं की संख्या और योग्यता पर निर्भर रहेगा। पिछले अंकों में साँस्कृतिक शोध, साँस्कृतिक विद्यालय, साँस्कृतिक पुस्तकालय, स्थान-स्थान पर साँस्कृतिक शिक्षण शिविर करने वाले साँस्कृतिक मिशन, साँस्कृतिक अत्यन्त सस्ते साहित्य का प्रकाशन आदि योजनाओं का विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। उन कार्यों की पूर्ति के लिए प्रधान आवश्यकता उन मनुष्यों की है, जो इनके लिए उपयुक्त है। यों आज हर कार्य के लिए नौकर बहुतायत से मिल सकते हैं, पर यह कार्य उनके बलबूते का नहीं, इसे तो केवल वे आत्म त्यागी व्यक्ति कर सकते हैं, जो भाषणों से ही नहीं, अपने उदाहरण उपस्थित करके दूसरों को अनुकरण की प्रेरणा प्रदान कर सकें। अपने आपको “खरा” सिद्ध करना ऐसे लोगों की प्रथम कसौटी है। ऐसे लोग नौकरी के लोभ से नहीं पकड़े जा सकते, अन्तरात्मा की प्रबल प्रेरणा से ही उनका कटिबद्ध होना सम्भव है।

विशद् गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति के लिए ‘नरमेध’ का आयोजन किया गया है। जिनके पीछे पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं—ऐसे सच्चे एवं सुयोग्य व्यक्ति ही इसके अधिकारी हैं। यह एक प्रकार का संन्यास है, जो गायत्री (ज्ञान) यज्ञ (त्याग) की शक्ति बढ़ाने के लिए अपनी आहुति के रूप में कार्यान्वित होगा। यों साधू-बाबाजी, सन्त-महन्त, लाल-पीले कपड़े पहनने वाले 56 लाख व्यक्ति इधर-उधर मटरगश्ती करते देखे जाते हैं। इनमें से अधिकाँश वे हैं जो जीवन की समस्याओं को सुलझाने और जिम्मेदारियों का बोझ उठाने में असमर्थ होने के कारण भाग खड़े हुए हैं और भीख-टूक माँग कर अपना दिन काटते और पेट पालते हैं। कुछ ऐसे हैं जो लालची बनिये की तरह चौबीस घन्टे अपने मतलब में ही चौकस रह कर केवल अपनी स्वर्ग मुक्ति की बात सोचते रहते हैं, अब तक जो समाज का ऋण ले चुके हैं, तथा अब भी भोजन वस्त्र आदि के रूप ये जो ऋण निरन्तर ले रहें है, उसे मार लेने और हजम कर जाने का पक्का इरादा किये बैठे हैं। ऐसे लोग माला तो जपते हैं, पर अपने ऊपर चढ़े हुए ऋणों को उतारने एवं लोक सेवा को परमार्थ पथ पर कदम बढ़ाने के लिए बिलकुल तैयार नहीं होते। इन्हें स्वर्ग, मुक्ति आदि कुछ मिलेगी या नहीं यह तो वे ही जानेंगे पर उनकी मानसिक स्वार्थपरता को देखते हुए उनसे भी कुछ आशा नहीं की जा सकती, सच्चे साधु-विरक्त साधु- जो तत्वज्ञान की दृष्टि से संन्यासी हैं, मिलने मुश्किल हैं, उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक होगी।

ऐसी स्थिति में नरमेध का संन्यास ही उपयुक्त है। इनकी कसौटी और प्रतिज्ञायें ऐसी हैं, जिनके आधार पर अपने जप तप करने के साथ-2 लोक सेवा साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिये परिश्रम करने की शपथ लेना आवश्यक होगा। ऐसे संन्यासी थोड़े से भी हों तो बहुत काम हो सकता है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी तीनों ही क्षेत्रों के व्यक्ति इसमें आ सकते हैं। गृहस्थ केवल वे होंगे, जिनकी पत्नी चाहे तो साथ रहें पर और कोई पारिवारिक जिम्मेदारी ऊपर न हो, ऐसे व्यक्तियों को विद्या, बुद्धि, श्रम, स्वास्थ ज्ञान आदि की उतनी योग्यता होनी भी आवश्यक है जिसके अनुसार वे अपने भोजन, वस्त्र के खर्च की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्य का लाभ जनता को पहुँचा सकें, सद्गुणी, उत्साही, चरित्रवान्, श्रमशील, अनुशासन प्रिय तो उनका होना आवश्यक ही है। प्रसन्नता की बात है कि ऐसे कई व्यक्ति नरमेध की प्रथम आहुति के रूप में चैत्र की पूर्णाहुति के समय अपना बलिदान करने को तैयार हो रहे हैं। बूढ़े, बीमार, अपंग, अशिक्षित, आलसी, सब ओर से तिरस्कृत, अयोग्य व्यक्तियों के बहुत से पत्र इसके लिए आते रहते हैं। भोजन, वस्त्र और स्थान की समस्या हल करने का उन्हें यह एक सरल तरीका प्रतीत होता है, ऐसे लोगों को मना ही करना पड़ता है, क्योंकि हमें तो केवल कुछ कार्य करने के लिए सहयोग एवं परिश्रमी कार्यकर्त्ताओं की आवश्यकता है। अन्धे-अपंगों के लिए सदावर्त मिलने का नाम नरमेध नहीं है। जिनकी अन्तरात्मा में अपने आपको इसके लिए उपयुक्तता प्रतीत हो वे प्रसन्नता पूर्वक हमारे कंधे से कंधा मिलाकर काम करने के लिए कटिबद्ध हो सकते हैं। उनके जीवनयापन की आवश्यक व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी तपोभूमि लेने को तैयार है। उनका कार्यक्षेत्र मथुरा भी और देश, विदेश में कहीं भी निर्धारित किया जा सकता है।

दूसरी श्रेणी के व्यक्ति ‘आत्मदानी’ कहलायेंगे। इनके संकल्प भी पूर्णाहुति के समय विधिवत् होंगे। यह गृहस्थ होंगे। अपने परिवार की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए अपने घर पर ही सामान्य काम काज करते रहेंगे, पर अपनी मनोभूमि को साँस्कृतिक विषय के लिए समर्पित किया हुआ ही समझते रहेंगे। तदनुसार वे ट्रस्टी के रूप में घर की अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के अतिरिक्त अपना शेष समय और मन अपने लक्ष में ही लगायेंगे। ऐसे लोग अपने क्षेत्र में ही साँस्कृतिक योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए जो कुछ कर सकते होंगे, उनके लिए अधिकतम प्रयत्न करते रहेंगे।

यह श्रेणी उन लोगों की है जिनकी पारिवारिक जिम्मेदारियों बहुत थोड़ी शेष रही हैं और जो आवश्यक जिम्मेदारियाँ को निबटाकर नरमेध के लिए अपने आपको तैयार कर रहे हैं। यह एक प्रकार का वानप्रस्थ कहा जा सकता है।

तीसरी श्रेणी साँस्कृतिक सेवा के स्वयं सेवकों की होगी। यह अपनी सामान्य परिस्थिति में काम करते हुए कुछ न कुछ समय और कुछ न कुछ मनोयोग इन कार्यों के लिए अवश्य देते रहेंगे। आवश्यकता पड़ने पर अधिक समय की भी उनसे आशा की जा सकती है।

इस श्रेणी में प्रायः युवक कार्यकर्ता रहेंगे। जिन्होंने व्यवहारिक जीवन में अभी ही प्रवेश किया है।

साँस्कृतिक पुनरुत्थान का कार्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। भारत की अन्तरात्मा करवट ले रही है। यह निश्चित है कि हमारी संस्कृति का महानतम विकास होगा। कोई शक्ति इस कार्य को करने में लगी हुई है। उसके हाथ का निमित्त, उपकरण बन जाने से मनुष्य का श्रेय लाभ होता है। गंगा का अवतरण होने ही वाला था, भागीरथ उस श्रेय का भागीदार बना। संस्कृति की ज्ञानगंगा का अमृत सींचने का श्रेय लेने वाले भागीरथों की आज पुकार हो रही है। जिनकी आत्मा में उस अज्ञात वाणी को सुनने और आह्वान के संकेतों को देखने की क्षमता होगी, ये इस दिशा में बढ़ेंगे और स्व पर कल्याण का एक महान् अनुष्ठान पूर्ण करेंगे, यह सुनिश्चित है। इन दोनों प्रकार के आत्म दानों के लिए इन पंक्तियों द्वारा याचना की जा रही है, जिनके पास कुछ हो, वे देने की कृपा करें।

यह आत्मबलि की याचना केवल साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना के लिए ही नहीं है, यह तो उसका बाह्य रूप है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह एक महान् तप-साधन एवं योगाभ्यास है। नरमेध करने वाला व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, महत्वाकाँक्षाओं, सुविधाओं का यज्ञ में होम करेगा और अपने आपको एक विशुद्ध सचेतन यंत्र मात्र समझकर शरीर और मन को निर्धारित लक्ष में लगाये रहेगा। यह कार्य योगी अरविन्द द्वारा बहु प्रशंसित- गीता में भगवान द्वारा निर्देशित “आत्म समर्पण” की स्थिति है। इसमें निष्ठा हो जाने पर सभी भव बन्धनों से छुटकारा सुनिश्चित है। आत्म समर्पण की मनोभूमि तैयार होते ही आत्मा का परमात्मा से ऐक्य हो जाता है। व्यक्तिगत अहंता के जो बंधन जीव को बाँधे हुए हैं, उन्हीं का हवन नरमेध में आत्मबलि देने वाले को करना पड़ता है। एकाकी किये हुए संकल्प दुर्बल और असफल होते रहते हैं, पर देवताओं को, यज्ञ भगवान को, विशाल जनता जनार्दन को साक्षी देकर जो व्रत लिया जाता है, उसके पीछे काफी मजबूती रहती है। यों दो स्त्री-पुरुष मिलकर अकेले में भी बिना किसी उपकरण के विवाह कर सकते हैं, पर वह मजबूत नहीं होता। विधिवत् संस्कार के कारण अनेकों प्रकार से उसमें मजबूती आ जाती है और विवाह की स्थिरता की सम्भावना अनेक गुनी बढ़ जाती है। यही बात विश्व-मानव को, समष्टि आत्मा-परमात्मा को, जनता-जनार्दन को अपनी आत्मा का समर्पण करने के विशाल उत्सव के द्वारा होती है। ऐसा विधिवत किया हुआ ‘आत्म-त्याग’ साधारण एकान्त आत्म अर्पण की अपेक्षा निश्चय ही अधिक सफल होता है। नरमेध में आत्मबलि देने वाले के शरीर और मन पर उसके व्यक्तिगत संबंधियों का कोई अधिकार नहीं रह जाता, इस प्रकार वह एक प्रकार का संन्यास है। यह साधारण संन्यास से असंख्य गुना महान् भी है।

आत्मदान की दूसरी श्रेणी विरक्ति की वानप्रस्थी साधना है। परिस्थिति वश- भरत को राम का राज चलाने के लिए एक ट्रस्टी का काम करना पड़ा था, पर भरत का मन कभी भी राज में लिप्त न हुआ, वरन् शरीर से उस काम का चलाते हुए भी मन को सदा भगवान के चरणों में लगाये रखा। ठीक यही स्थिति आत्मदानी की होगी। अपने पदार्थों को, सम्पत्ति को, सम्बन्धियों को अपना न मानकर केवल उनकी सेवा के लिए नियुक्त एक जिम्मेदार माली के समान अपनी स्थिति अनुभव करते रहना, यह गीता में बताया हुआ अनासक्त कर्मयोग है। संकल्पपूर्वक ‘आत्मदान’ की घोषणा समारोह-पूर्वक करने से अनासक्त कर्मयोगी की मनोभूमि की सृष्टि होती है और ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करना अधिक सरल हो जाता है। ऐसी मनोभूमि बन जाने पर कोई मनुष्य माया ग्रस्त, जंजाली जीव नहीं रह सकता, वह दैवी प्रतिनिधि के रूप में जो भी कार्य करता है —चाहे वह परिवार संचालन ही क्यों न हो—विशुद्ध परमार्थ बन जाते हैं। उसका मन हर घड़ी उच्च-भूमिका में ही जागृत रहने के कारण शुभ संकल्प करता रहता है और तीव्र गति से लक्ष की ओर बढ़ता है।

साँस्कृतिक सेना के सैनिकों पर आत्मबलि देने वाले एवं आत्मदान करने वालों के समान कोई आध्यात्मिक बंधन तो नहीं है, पर वह भी लोक-सेवा की सर्वोत्तम कक्षा साँस्कृतिक सेवा—का महान व्रत है। इस व्रत के व्रती अपने संकट की पूर्ति के लिए जब भी जितना भी समय मिले तब अधिकतम अवसर निकालने का ध्यान रखना- एक ऐसा कार्यक्रम है जिसके अनुसार मनुष्य निरन्तर अधिक शुभ कार्यों के लिए- पुरुष संचय के लिए अग्रसर होता रहता है। उन शुभ कार्यों के फलस्वरूप उसे अत्यधिक आत्मशाँति मिलने तथा पुण्य फल के द्वारा सुख सौभाग्य बढ़ने की पूरी-पूरी सम्भावना रहती है। व्रतधारी सेवा सैनिक अपने निर्धारित पथ पर मार्च करते हुए निरन्तर उच्च भूमिका में विकसित होने के लिए अग्रसर होते हैं। इस प्रकार यह भी एक महान् आध्यात्मिक अनुष्ठान ही माना जायगा।

1. आत्मबलि देने वाले, 2. आत्मदान करने वाले, 3. व्रतधारी सेवा सैनिक, यह तीनों ही श्रेणियाँ भारतीय अन्तरात्मा के करवट बदलने के इस महत्वपूर्ण समय में बड़ी आवश्यक हैं। इनके कार्यों का परिणाम असाधारण होगा। युग परिवर्तन की इस पुण्य बेला में इन तीनों का ही विशेष महत्व है। महायज्ञ की पूर्णाहुति के समय बलिदान की इन तीनों ही श्रेणी की आत्माओं के संकल्प बड़े समारोह पूर्वक ऐसे सुन्दर प्रदर्शन के साथ कराये जावेंगे, जिससे हमारी प्राचीन बलिदानी परम्परा को प्रोत्साहन मिले और जोश में आकर शिर काटने के लिए नहीं, तिलतिल करके अपने जीवन को जलाते रहने के लिए और अनेक बलिदानी वीर उत्पन्न हो सके, जिन्हें इस दिशा में कदम उठाने की इच्छा हो, वे पत्र-व्यवहार करके आवश्यक विचार विनिमय करलें।


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