(श्री जनार्दन प्रसाद जी)
जिस तरह उपवास, जल-चिकित्सा, मिट्टी-चिकित्सा, आन्तरिक स्नान (एनीमा), सूर्यकिरण-चिकित्सा आदि प्राकृतिक चिकित्सा के प्रधान अंग है, उसी प्रकार मालिश भी एक प्रधान अंग है, क्योंकि यह भी दवा रहित चिकित्सा की ही एक पद्धति है। प्रचलित यूरोपीय चिकित्सा-पद्धति के प्रवर्तक हिपोक्रेटीस ने भी इसकी व्यवस्था दी है हालाँकि ऐसे बहुत से प्रमाण मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि ईसा को कई सौ वर्ष पूर्व भी ग्रीस, रूस और मिस्र आदि देशों में स्वास्थ्य-लाभ के लिए इसका प्रयोग किया जाता था।
मालिश को वैज्ञानिक चिकित्सा-पद्धति न मान कर भी लोग आदिकाल-से इसकी उपयोगिता देखते आय हैं और आज भी किसी न किसी प्रकार इसे अपनाते हैं। इसकी उपयोगिता आप एक साधारण सी बात से समझ सकते हैं। छोटे-बड़े सभी घरों में नवशिशु के जन्म-दिवस से लेकर काफी बड़े होने तक प्रतिदिन उसकी तेल की मालिश होती है, जिससे रक्त-संचार के ओषजन की प्राप्ति विशेष रूप से होती रहे। स्त्रियों के उदर-संबन्धी रोगों में मालिश का विशेष रूप से प्रयोग होता है। सिर-दर्द इत्यादि में आमतौर से मालिश का ही सहारा लिया जाता है। शैशवावस्था में बच्चे अक्सर चारपाई या पालने से गिर जाते हैं। कोमल शरीर होने के कारण जब चोट ज्यादा लगती है, तो हम किसी डाक्टर की तलाश नहीं करते, बल्कि नैसर्गिक बुद्धि प्रेरित होकर हम शीघ्र ही बच्चे को गोद में लेकर चोट खाये हुए स्थान को थपथपा कर सहलाने लगते हैं। अत्यन्त शारीरिक परिश्रम के फलस्वरूप जब हम थकान अनुभव करते हैं, तो कोई दवा या लोशन नहीं लगाते, मालिश द्वारा ही आराम पाते हैं।
मालिश कराने से छोटी तथा बड़ी आँतें, जिगर, गुर्दे, फेफड़े तथा हृदय आदि अंगों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वे अपना कार्य सुचारु रूप से करने लगते हैं, जिससे मल निष्कासन भली प्रकार होता है। न तो आँतों में पड़ा-पड़ा मल सड़ता है, जिससे अन्तर्विष की उत्तेजना हो और न यूरिक एसिड आदि विष ही शरीर में रह पाते हैं। श्वास-प्रश्वास की क्रिया गहरी हो जाती है जिससे फेफड़ों को काफी मात्रा में ओपजन मिलता है। दिल और फेफड़े मजबूत होते हैं और शरीर में शुद्ध रक्त का संचार होने लगता है। हृदय और नाड़ियाँ सबल हो जाती हैं। शरीर का स्वस्थ दशा में रहना बहुत-कुछ त्वचा की दशा पर निर्भर है। इसके लिए आवश्यक है कि उसकी नमी बनी रहे और वे अपना कार्य सुचारु रूप से करें। मालिश से खून का दौराव त्वचा की ऊपरी सतह तक आ जाता है। हाथों की रगड़ से त्वचा को गर्मी भी मिलती है जिससे त्वचा स्वस्थ रहती है।
मालिश करने के लिए किसी हथियार या औजार की आवश्यकता नहीं। आराम से लेटने लायक एक मेज थोड़ी अनुत्तेजक तैल और विषय के विशेष ज्ञान के साथ इस काम में सिद्धहस्त व्यक्ति ।
चूँकि दीर्घश्वास की क्रिया मालिश का एक आवश्यक अंग है इसके लिए गर्म और हवादार कमरा ही उपयुक्त है। तैल की भाँति स्निग्ध पदार्थों की आवश्यकता होती है; पर यह भी आवश्यक है कि वे दवा मिश्रित न हों। त्वचा की ऊपरी सतह पर दवा मालिश कर शरीर में प्रविष्ट कराने की एक अलग चिकित्सा प्रणाली है। जैतून तिल के तेल के समान ही कोई अनुत्तेजक सात्विक पदार्थ मालिश के लिए उपयोगी है। सरसों का तेल जैसा थोड़ा उत्तेजक कफ प्रकृति वाले व्यक्तियों या सर्दी तथा शोथरोग से पीड़ित रोगियों के लिए लाभदायक हैं। जिन्हें पसीना शीघ्र या अधिक मात्रा में आता है उन्हें भीगे तौलिये से शरीर को अच्छी तरह रगड़ना लाभदायक है इस प्रकार के तेज घर्षण से शरीर खूब गर्म हो जाता है अतएव मालिश के बाद ठंडे जल का स्नान बहुत लाभदायक है। पर शरीर की गर्मी को बनाये रखने के लिए यह भी आवश्यक है कि स्नान के बाद शरीर को रगड़कर धूप में बैठकर फिर से गर्म कर लिया जाय। इस स्नान के बाद जो गर्मी लाने के लिए शरीर को रगड़ने की जरूरत होती है, उसके लिए किसी मालिश करने वाले व्यक्ति की आवश्यकता नहीं। सिर्फ अपनी हथेलियों से ही रगड़ लेना लाभदायक होगा। पर साधारणतया मालिश का उपयुक्त समय स्नान के बाद ही होता है; क्योंकि स्वास्थ्यार्थी का शरीर ठंडा होने के कारण मालिश करने वाले के शरीर से विशेष गर्मी प्राप्त करता है।
मालिश करने के स्थान और विधियों से मालिश करने वाले का स्थान कम महत्व का नहीं है। सभी तरह के व्यक्ति मालिश करने के लायक नहीं होते। जिनके हाथ-पैर ठंडे रहते हैं या पसीजते हों या जिनमें स्वार्थ या कुत्सित विचार हों, वे चिकित्सक के लिए उपयुक्त नहीं। रोगी व्यक्ति से मालिश कराने से लाभ के बदले हानि ही होती है। बहुत से रोगों के लक्षण स्वास्थ्यार्थी में धीरे-धीरे प्रकट होने लगते हैं। मालिश करने वाले में तीन विशेष गुणों का होना अति आवश्यक है। उन्हें स्वस्थ, उदार और सच्चरित्र होना चाहिए। उनका जीवनबल भरपूर हो, हथेलियाँ कोमल, सूखी और साधारण गर्मी लिये हों। एक सबसे प्रधान गुण जो चाहिए वह यह है कि उनके हृदय में रोगियों की सेवा-भावना हो।
मालिश करते समय शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ देना चाहिए। इससे मालिश करने वाले को विशेष सुविधा और मालिश कराने वाले को आराम और लाभ होता है। किसी भी विशेष अंग के मालिश में दस-पन्द्रह मिनट से ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं होती। बच्चों के लिए तो इससे भी थोड़ा समय पर्याप्त है, क्योंकि उनके शरीर शीघ्र ही गर्म हो जाते हैं। हाँ, पूरे शरीर की मालिश में आधा घंटा या कुछ अधिक समय लग जाता है।
हिन्दू संस्कृति के स्वास्थ्य-नियमों में तेल मालिश और स्नान को नित्यकर्म का एक प्रधान अंग माना गया है इसे किसी रोग-विशेष की चिकित्सा समझ कर नहीं, बल्कि स्वास्थ्य कायम रखने के लिए किया जाता है। पर साधारण सूखे और तेल मालिश में बहुत अन्तर है। तेल मालिश करने से तेल का कुछ अंश रोमकूपों द्वारा शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। शारीरिक शक्ति का जहाँ तक प्रश्न है वहाँ तेल, घी से ज्यादा शरीर को बलिष्ठ करता है। तेल खाने से उतना लाभ नहीं होता जितना मालिश करके तेल को रोमकूपों द्वारा शरीर में प्रविष्ट कराने से, यहाँ तक कि मंदाग्नि के रोग भी जिनके लिए घी-तेल बहुत ही हानिप्रद है, तेल मालिश कर इसका लाभ उठा सकते हैं। उदाहरणार्थ मालिश की एक प्रक्रिया है जो तीन प्रकार से कार्यान्वित की जा सकती है:—
सूखे हाथों से साधारण मालिश। किसी कमरे के अन्दर तेल मालिश।
साधारणतया धूप में तेल मालिश, इन तीनों विधियों में लाभदायक हैं। यहाँ सिर्फ विटामिन ‘डी’ के सम्बन्ध में पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर देना मैं आवश्यक समझता हूँ चूँकि इसका सूर्य-किरणों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। विटामिन ‘डी’ की कमी बालक और युवा में दो भिन्न-भिन्न लक्षण प्रकट करती है। बच्चों में इसकी कमी से हड्डी की विकृति, रक्तहीनता और सूखा रोग प्रकट होते हैं। युवा में अन्तर्विष की उत्तेजना से मधुमेह, रुमेटिज्म, निउराईटीस और ब्राइटस रोग प्रकट होते हैं। तेल की मालिश के साथ धूप सेवन करने से विटामिन ‘डी’ रक्त द्वारा शोधित किया जाता है। लगभग 20 मिनट में इसकी न्यूनतम दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। इस प्रकार इन रोगों की संख्या बहुत ही कम कर दी जा सकती है। यह प्रयोग बच्चों के सूखा रोग के लिए तो अद्वितीय है। हर साल लाखों बच्चे जो इस रोग से अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं, उनमें अधिकाँश युक्त आहार के सेवन के साथ इसका प्रयोग कर बचाये जा सकते हैं। इससे बढ़कर विटामिन ‘डी’ की प्राप्ति का कोई दूसरा साधन और इस रोग की दूसरी चिकित्सा-विधि का आविष्कार नहीं हुआ है।
रोगों से निवृत्ति या बचाव के लिये आन्तरिक स्वच्छता की विशेष आवश्यकता है। मालिश से मल निष्कासन अंगों को बल मिलता है और वे शरीर की गन्दगी भली प्रकार दूर कर देते हैं। मालिश से जिस प्रकार रोग दूर होकर उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार रोग के प्रतिरोध को क्षमता भी बढ़ती है। नस-नाड़ियाँ स्वच्छ दशा में रहती हैं। अवयव कोमल रहते हैं और रक्त में लालकणों की संख्या अधिक होती है, जो उत्तम स्वास्थ्य का प्रतीक है। ऐसी दशा में मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। स्वस्थ मन में ही सात्विक विचारों का समावेश होता है, भावनाओं की ताजगी होती है। उसे निर्भयता और साहस प्राप्त होता है और मनुष्य हर समय आशावान् रहता है।