सद्भावना ही श्रेष्ठ है।

February 1956

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(श्री लालचन्द्र जी, मेरठ)

आपरा की सद्भावना अनिवार्य है। हर परस्पर सन्देह और संशय करके तो भय को ही उत्पन्न करेंगे और एक दूसरे का हास और अन्ततः नाश ही करेंगे। हमें आपस में विचार करना सीखना होगा। विश्वास की भित्ति पवित्रता है और पवित्र हृदयों में ही विश्वास उत्पन्न होता है। पवित्र हृदय और निर्मल बुद्धि में सद्भावना का उदय होता है। सद्भावना परम आवश्यक है। सद्भावना से ही आपस का दृष्टिकोण सम्यक् बनता है। सद्भावना के अभाव में तो एक दूसरे में सन्देह और भय की ही उत्पत्ति है। हम आपस में क्यों एक दूसरे से भय करें।

भय की जाँच की जाय तो इसका छिपा हुआ कारण निजी या सामूहिक स्वार्थ ही होता है, और जब वह स्वार्थ किसी देश और जाति भर में फैल जाता है तो एक दूसरे राष्ट्र पर सन्देह होने लगता है। जब राष्ट्र आपस में एक दूसरे की उन्नति और प्रगति को सन्देह की दृष्टि से देखने लगते हैं तो वास्तव में उनकी सम्यक् दृष्टि रहती ही नहीं, वे रंगी हुई ऐनक से ही देखते हैं और चाहे वह रंग उनका अपना ही चढ़ाया हुआ हो, जब तक वह रंग ऐनक के आइनों पर चढ़ा रहेगा, सभी उसी रंग में रंगे दीखेंगे और जब हम दूसरे राष्ट्र को सन्देह की दृष्टि से देखेंगे तो वह हमें क्यों न सन्देह की दृष्टि से देखे? इस प्रकार संदेह और भय का एक चक्र बन जाता है। क्या आजकल राष्ट्र इस प्रकार एक दूसरे से दूर नहीं होते जा रहे?

छिपी हुई दूषित अथवा विशुद्ध मनोवृत्ति व्यवहार में प्रकट हो जाती है। मनोवृत्ति को छिपा कर ऊपर से शिष्टता का व्यवहार भी बहुत देखने में आ रहा है, पर वास्तविकता छिपाये नहीं छिप सकती। हमें सबको मित्र दृष्टि से देखना चाहिए, मन में किसी प्रकार की मलिनता का स्थान नहीं देना चाहिए, पर साथ ही सचेत और सावधान भी रहना चाहिये कि कहीं हमारी सरलता से ही लाभ न उठाया जाये। सतर्क रहना सावधान रहना चाहिए, पर मनोमालिन्य अच्छा नहीं।

जो व्यवहार हम चाहते हैं कि लोग हमसे करें, वैसा व्यवहार हमें स्वयं भी औरों से करना चाहिए। कोई नहीं चाहता कि उससे छल हो तो वह स्वयं किसी को क्यों छले? प्रायः लोग अपने से तो भला व्यवहार चाहते हैं पर दूसरों से सरल सीधा व्यवहार नहीं करना चाहते। यही कारण आपस के सन्देह का होता है। क्या एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की राष्ट्रीयता को भंग करके वहाँ के लोगों को पददलित करके अपना स्वार्थ पूरा करे? पर इतिहास साक्षी है कि सबल राष्ट्रों ने ऐसा किया है। लूट-खसोट ही नहीं मानवता के नाते भी भुला दिये गये और विजित देख के लोग दास बनाये गये उनके उद्योग धंधे नष्ट किये गये और उन्हें बुरी तरह दबाया गया और यह सब विजित लोगों के ही हितों के नाम पर किया गया। यह क्यों हो सका? कारण स्पष्ट है विजित देशों में जब सहानुभूति नहीं रहती, सम्वेदना नहीं रहती, तो आपस का सहयोग भी नहीं रहा करता। यह अनुभूति जैसी देशों की जनता के विषय में सत्य हुई वैसी ही व्यक्तियों में भी देखी गई। जिन लोगों में आपस की सद्भावना नहीं रहती उनमें सहानुभूति भी नहीं रहती और वे मिलकर एक उद्देश्य से कार्य भी नहीं कर सकते। इन्हीं दुर्बलताओं को आक्रमणकारी राष्ट्र भांप लेता है और अपनी स्वार्थ पूर्ति करता है। विजित लोगों के हृदय आपस में तो मिले हुए होते ही नहीं उनमें और चौड़ी खाई बनादी जाती है, और विजेता लोगों को हर प्रकार से वृद्धि तथा विजित लोगों का ह्रास आरम्भ हो जाता है। दुःख की अनुभूति भी पुनरुत्थान के लिये मनुष्य को उत्तेजित करने में सहायक होती है और विजित लोग जिन्हें अपनी दासता असह्य हो जाती है वे विजेताओं से उकता कर आपस में मिलकर आपस में एक उद्देश्य के लिए संगठित होकर तत्परता और पूरी लगन से कार्य करना सीख लेते हैं। सहानुभूति का उदय होता है, स्वार्थ नहीं उभरने पाता और आपस के सहयोग तथा विजेताओं से पूर्ण असहयोग करके वे शक्ति संपन्न हो जाते हैं। सहयोग में अनुपम शक्ति है। जो कार्य व्यक्ति से नहीं हो पाता वही कार्य मिलकर करने में सुगम हो जाता है और सहर्ष सम्पन्न होता है। सहयोग से इस प्रकार पुनः चक्र बदलने लगता है और वही जनता जो पहले पददलित और तिरस्कृत थी वश प्राप्त करती है और विश्व में उसकी कीर्ति फैलती है सहयोग महान अद्भुत शक्ति है। भारतीय जनता इसी प्रकार अपना खोया हुआ गौरव पा सकी है और अब हमारा जनतंत्र विश्व भर में आदर पा रहा है। सहयोग से सफलता और कीर्ति निहित है।

सद्भावना से एक दूसरे को ठीक-ठीक जानना और आपस में एका उत्पन्न करना, सहानुभूति से आपस में एक दूसरे के हृदय में प्रवेश करना और हृदयों का समन्वय करना तथा सहयोग से सामर्थ्य प्राप्त करना यह क्रम है महत्वाकांक्षी की पूर्ति का सहयोग ही यज्ञ है। यज्ञ कभी विफल नहीं हुआ। सभी शक्तियों में सहयोग होने से एक अत्यंत महान शक्ति का उदय होता है जिससे सभी में नया उत्साह साहस और वस्तुतः कार्यक्षमता युक्त नवजीवन उदय होता है।


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