(चक्रवर्ती श्री राजगोपालाचारी)
कुछ लोग गीता का गलत अर्थ लगाकर उसकी शिक्षा से हिंसामय अपराधी को उचित सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। उनकी एकाग्रता युद्ध के प्रसंग पर होती है। उनका प्यारा अध्याय युद्ध का प्रारंभिक अध्याय है और वे श्रीकृष्ण की शिक्षा से निःसंकोच वध के सिद्धान्त का दोहन करते हैं। इससे बड़ी गलती दूसरी नहीं हो सकती।
गीता महाभारत का एक अध्याय है। उसका आरंभ अर्जुन के उस क्षोभक वर्णन से होता है, जो एक-दूसरे के वध के लिए दोनों ओर खड़े योद्धाओं को देखकर उसके मन में हो उठा था और, इसी दृश्य के अन्दर हिन्दू धर्म का प्रतिपादन सन्निविष्ट किया गया है।
गीता की रचना करने वाले आचार्य द्वारा कल्पित युद्ध की पृष्ठभूमि निःसन्देह और उपयुक्त है, तथापि हमें गीता को हिन्दू धर्म का एक पूर्ण ग्रन्थ मानना चाहिए, कुरुक्षेत्र के युद्ध की एक अवान्तर कथा मात्र नहीं।
गीता को मुख्यतः इन श्लोकों के आधार पर हिंसा-मूलक ग्रंथ बताया जाता है।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्य ध्यस्व भारत॥ य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उमौ तौ न विजानीतो नायं हन्तिः न हन्यते॥
न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूखा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
‘नित्य, अनाशवान और अप्रमेय आत्मा के ये शरीर नाशवान हैं, इसलिए युद्ध कर। जो आत्मा को मारने वाला जानता है और जो उसे मरा हुआ जानता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है, वह न कभी जन्म लेता है और न मरता ही है। वह होता हुआ, भविष्य में कभी न होने वाले भी नहीं है। वह अजन्मा, नित्य, सनातन है और शरीर के मारे जाने पर मारा नहीं जाता।’ (2)-18,19,20
अब हम जरा कठोपनिषद् को भी देखें, जो अधिक प्राचीन धर्मग्रंथ है। जिस ऋषि ने गीता के बहुत पहले हमें कठोपनिषद् प्रदान किया, उसने नचिकेता के प्रति यम के कथन का उल्लेख इन शब्दों में किया है।
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्, नायं क्रुतश्चिन्न बभूव कश्चित्। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
‘तुम न जन्म लेते हो, न मरते हो। तुम किसी दूसरी वस्तु से नहीं हुए, न अपने सिवा किसी अन्य वस्तु से बनाये गये हो। तुम अजन्मा, नित्य और सनातन हो। तुम्हारा अस्तित्व सदैव रहा है। तुम्हारा शरीर मारा जा सकता है, तथापि तुम मारे नहीं जा सकते।” (2)-18
हन्ता चन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम्। उमौ तौ न विजानीतो नार्थ हन्तिर्न हन्यते॥
“यदि तुम मानते हो कि मैं किसी को मारता हूँ या मैं किसी के द्वारा मारा जाऊंगा’ तो तुम दोनों बातें नहीं जानते। आत्मा न मारता है और न मारा जाता है।”
कठोपनिषद् में नचिकेता की अन्तःकरण के विरुद्ध शस्त्र ग्रहण करने की प्रेरणा देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। फिर भी, शिक्षा और उसके शब्द ठीक वही हैं जो भगवद्गीता में पाये जाते हैं। यदि कठोपनिषद् में हम उन शब्दों से हिंसा का समर्थन प्राप्त नहीं कर सकते, तो केवल इसलिए कि वे भगवद्गीता में आये हैं, हम उनसे भिन्न अर्थ कैसे निकाल सकते हैं?
भगवद्गीता में जिन दो मुख्य तत्वों पर जोर दिया गया है, वे हैं।
(1) स्वधर्म—अर्थात्, मनुष्य कर्तव्य का निश्चय करने में सापेक्षत का नियम, और
(2) इस प्रकार निश्चित किये हुए कर्तव्य को करने में अनासक्ति। यह निष्काम कर्म का मन्त्र है।
कर्तव्य को निरपेक्ष सिद्ध करने के प्रयत्न सफल नहीं हो सकते। धर्म निरपेक्ष या एक केवल-वस्तु नहीं है, वह संसार की सब दूसरी वस्तुओं के समान सापेक्ष या अवस्था-सम्बद्ध वस्तु है। मनुष्य को क्या करना चाहिये, यह उसकी स्थिति पर निर्भर करता है, कोई हवाई वस्तु नहीं है। यही स्वधर्म का अर्थ है। जाति-प्रथा के भेदों का समर्थन करने वाले सिद्धाँतों के रूप में स्वधर्म का जो अर्थ लगा लिया जाता है, वह सही नहीं है। स्वधर्म इस सत्य का स्वीकरण है कि कर्तव्य परिस्थिति और प्रसंग पर निर्भर करता है। मनुष्य अपनी स्थिति में किसी भी कारण या परिस्थिति से क्यों न पहुँचा हो, वह जिस स्थिति में रहता है उसी से उसके कर्तव्य का निर्धारण होता है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु सापेक्षता से प्रभावित होती है और मनुष्य के कर्तव्य का निर्धारण भी इस सार्वलौकिक नियामक पर नहीं है। कर्तव्य सबके लिए एक ही नहीं होता और न वह सब प्रसंगों के लिए ही एक होता है। हम जिस गोल और घूमती हुई पृथ्वी पर रहते हैं उस पर एक सीधी रेखा नहीं खींच सकते। इसी प्रकार कर्तव्य का निर्धारण भी एक समान नहीं हो सकता, उसे प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक परिस्थिति के लिए अलग-अलग निर्धारित करना होगा। इसका अर्थ यह नहीं कि गीता में कोई ऐसा सरल मार्ग प्रस्तुत कर दिया गया है, जिससे मनुष्य अपनी व्यक्तिगत अनुकूलता के अनुसार चल सके। स्वधर्म का मार्ग कठिन और अधिकतर दुस्तर होता है। उसके लिए महान त्याग और साहस की आवश्यकता होती है। गीता धर्म में सापेक्षता का सिद्धाँत प्रस्तुत किया है। जिस प्रकार आइन्स्टाइन ने भौतिक अन्तर और काल की नई कल्पना से विशेषित करने के लिए सापेक्षता का सिद्धाँत प्रदान किया है, ठीक उसी प्रकार गीता बताती है कि मनुष्य का कर्तव्य उसके देश, काल और नियत कर्म पर अवलंबित रहता है।
इसके पश्चात् अलिप्तता का परिष्कारक सिद्धाँत आता है। लौकिक कार्य का दोष-मुक्त होना सम्भव नहीं है। परन्तु यदि हम अपना कार्य उचित रूप से निर्धारित कर्तव्य मानकर और निःस्वार्थ भाव से करें, तो उसके सब दोष दूर हो जाते हैं।
स्वधर्म और अनासक्ति डडडड डडडड डडडड डडडड न करने के अतिरिक्त भगवद्गीता यह भी सिखाती है कि उपासना के सब रूप एक समान अच्छे हैं।
ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्य सर्वशः॥
‘मनुष्य जिस प्रकार मेरा आश्रय लेता है, उसी प्रकार मैं उन्हें फल देता हूँ। क्योंकि मनुष्य उपासना का कोई भी मार्ग ग्रहण करें, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं।’
(4)—11
यो यो याँ याँ भक्तः श्रद्धयाऽचिंतुमिच्छति। तस्य तस्याचलाँ श्रद्धाँ तामेव विदधाम्यहम्॥
‘जो-जो भक्त जिस-जिस स्वरूप की भक्ति श्रद्धापूर्वक करता है, उस-उस स्वरूप में उसकी श्रद्धा को मैं ही दृढ़ करता हूँ।’ (7)—21
स तया श्रद्धया युक्त स्तस्याराधनमीहते। लभते च ततः कामान्तंयेव विहितान्हितान्॥
‘वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस स्वरूप की आराधना करता है और उसके द्वारा उन कामनाओं को प्राप्त करता है, जिन्हें मैं ही नियत करता हूँ।
(7)—22
भगवद्गीता में एक और भी शिक्षा है, जिसका महत्व बहुत अधिक है। समाज के कल्याण के लिए किये जाने वाले सब प्रकार के काम, समान रूप में उदात्त हैं यदि उन्हें उचित भावना से किया जाये तो वे ईश्वर की उपासना के समान ही होते हैं।
स्वे स्वकर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नर। स्वकर्मनिरतः सिद्धि यथा विन्दति तच्छूणु॥
‘स्वयं अपने कर्तव्य में रत रहकर मनुष्य संसिद्धि प्राप्त करता है। अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है, सो तू मुझसे सुन।’
(18)—45
श्रेयान्स्वधर्मों विगुणः परवर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वभावनिपतं कर्म कुर्वन्नाष्नोति किल्विषम्।
‘अपना कर्तव्य असम्मानित होने पर भी दूसरे के कर्म से- भले ही वह अच्छी तरह किया हुआ क्यों न हो—अधिक श्रेष्ठ है। जो अपने स्वभाव नियत कर्म करता है उसे पाप नहीं लगता’ (18)—47
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्। सर्वा रम्भहि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥
‘स्वभावतः प्राप्त कर्म सदोष होने पर भी छोड़ना नहीं चाहिये। जिस प्रकार अग्नि के साथ धुएँ का संयोग होता है, उसी प्रकार सब कर्म भी दोषों से आवृत हैं।’ (18)—48
उपनिषद् प्राचीन ऋषियों ने प्रदान किये। श्रीकृष्ण ने एक बार फिर से उन्हें गीता रूप में प्रस्तुत किया। अर्जुन के युद्ध-अश्वों की रास पकड़े हुये श्रीकृष्ण ने तथा उपासना की विधि की शिक्षा दी। स्वयं हमारे युग में गाँधी जी ने भी, महान् राजनीतिक युद्ध की बाग हाथ में लिए हुए, अपने ढंग से कर्म और उपासना की रीति सिखायी। हमारे युग में गाँधीजी के श्रीमुख गीता का पुनर्जन्म हुआ। हमें उस शिक्षा को हृदयंगम करना चाहिए, केवल शब्दों का उच्चारण नहीं। गीता की सच्ची पूजा उसके आशय का प्रतिदिन सचाई के साथ मनन करने में और उसके अनुसार अपने आचार-विचार को ढालने में निहित है।