(श्री ब्रह्यदत्त शर्मा)
हरि को हीरा ही समझकर निरन्तर उसी की उपासना करने वाले रैदास को अभिमान छूकर नहीं गया था। अन्तःकरण में साधु-सन्तों के लिए भरपूर भक्ति थी। उनको देखते ही रैदास आनन्द विभोर हो जाते, उनका मन-मयूर नाच उठता, जो कुछ उस समय पास होता उनके लिए समर्पित हो जाता और साथ ही कर्म-कुशल पुत्र काम छोड़ देता। धन-लोलुप पिता से यह सहा न गया और पुत्र को घर से अलग कर दिया गया। रहने के लिए केवल एक कुटी बनवा दी। यही नहीं, पैतृक सम्पत्ति से भी उसे बहिष्कृत कर दिया। रैदास ने पितृ-कोप को प्रसाद माना, उनके चरणों की वंदना की और परमात्मा में पूर्ण रूप से अपना मन लगाया पर तब से यह नियम कर लिया कि दिन में केवल दो जोड़े जूतियों के बनाया करेंगे। एक किसी साधु को पहनाना और दूसरे से अपना निर्वाह करना। भाग्य से पत्नी अच्छी मिली थी, उसने अपने पति के नियम, व्रत और साधु सेवा में कभी विघ्न उपस्थित नहीं किया, प्रत्युत उनकी पूर्ण सहायता की। कुटी के आगे से कोई साधु समुचित सत्कार पाए बिना निकल नहीं पाता था। यों कहिए रैदास ने साधुओं के स्वरूप में एक परमात्मा का नाना रूपों से दर्शन लाभ ही अपना उद्देश्य बना लिया था। बड़े तड़के वह उठते, भगवान का गुणानुवाद प्रारम्भ होता। उधर पत्नी की चक्की चलती। उदर-निर्वाह और ईश्वर वन्दना साथ-साथ होता।
रैदास का सूर्योदय से कुछ पूर्व अपनी कुटी के सामने झाड़ देने का नियम था। एक दिन उधर से जाते हुए महात्मा रामानन्दजी ने पथिकरुप में उनसे एकाएक पूछा—“तुम कौन हो?” रैदास ने हाथ से झाड़ू छोड़ दी। विस्मित होकर उनके चरणों में लोट गए! सविनय कहा —“मैं एक अधम चमार हूँ।” स्वामीजी ने कहा “तुम्हें साधना करनी होगी”- रैदास गिड़गिड़ाए—प्रभो! मैं अत्यन्त नीच हूँ मेरे लिए क्या यह कभी सम्भव है।” रामानन्दजी ने करुणा भरी दृष्टि से रैदास की ओर देखा। अनन्तर अपने कर-कंज से रैदास का सिर स्पर्श कर स्नेहसिक्त वाणी में कहा—“देखो रैदास, बाहर का मार्ग साफ करने से कुछ काम चलने वाला नहीं है। धर्म का मार्ग आज जितना संकट का है, उतना पहले नहीं था। विघ्नरूपी कूड़ा-करकट जो कि अनेक प्रकार का है, उस पर जम गया है। तुम उसको साधनरूपी झाड़ू से दूर करो। विलंब करने का समय नहीं है। दरबार में तुम्हारी पुकार हो रही है।” फल यह हुआ कि परमवैष्णव रामानन्द के प्रेम की विमल किरणों से रैदास का हृदय कमल विकसित हो गया। वह अब समझे कि नारायण के रूप में स्वामी जी ने मुझे दर्शन देकर कृतार्थ कर दिया है। कोसों तक वह स्वामी जी के पीछे-पीछे गए और जब उनकी आज्ञा से चरणों में प्रणाम कर वह अपनी कुटी पर लौटे, तो उनका हृदय-सागर ब्रह्मानन्द की लहरों द्वारा उमड़ा पड़ता था। उस समय वह अपने को बड़ा भाग्यवान और परमधनी समझ रहे थे।
रैदास ने अब अपने जीवन को सादगी के रूप में अधिक परिवर्तित कर लिया था। ईश्वर का गंभीर चिन्तन और साधु-सेवा, यही दो विमल व्रत सदा के लिए उनके अविच्छेद्य अंग बन गए थे। जीविका जितने कष्ट से चलती उतना ही रैदास का अपार सुख होता। पर रैदास एक दिन भी भूखे रहे हों, इसका प्रमाण अब तक नहीं मिला। हाँ, गरीबी की जलती आग में से रैदास को खरा सोना होकर निकलना अवश्य पड़ा। एक दिन की बात है, एक साधु ने रैदास का आतिथ्य स्वीकार किया। सेवा−शुश्रूषा में रैदास ने कुछ उठा न रखा। सन्तुष्ट साधु ने रैदास को पारसमणि देनी चाही मगर रैदास ने उसे लेना स्वीकार नहीं किया। दोनों में वाद-विवाद चल पड़ा। जब साधु ने अधिक आग्रह किया तो रैदास ने कहा आपकी यही इच्छा है तो इसे छप्पर में खोंस दीजिए। रैदास ने मणि को हाथ में लेने योग्य तक नहीं समझा। वर्षोंपराँत जब वह साधु फिर आया तो उसने देखा दरिद्र-दग्ध रैदास वैसा ही है। साधु के प्रश्न करने पर रैदास ने कहा “मणि को छूने में भी मुझे डर लगता है। वह वहीं रखी है, जहाँ आप रख गए थे। साधु ने समझ लिया कि रैदास को धन की लालसा सर्वथा नहीं है। वह भगवत्परायण है अतएव निर्भय है।
ज्यों-ज्यों रैदास में भगवत्प्रेम बढ़ता गया, त्यों-2 वह अधिक विनम्र होते गए। कुलाभिमानी और जातिगर्वान्ध मनुष्यों द्वारा वह न जाने कितनी बार सताए गए, न जाने कितनी बार कुख्यात किए गए, पर रैदास ने कभी किसी को अपना शत्रु नहीं समझा। काशी नरेश द्वारा जब वह दरबार में बुलाए गए तो उन्होंने अपनी सौम्यता द्वारा उन्हें मोहित कर लिया। जिन लोगों ने उन पर नाना प्रकार के लाञ्छन लगाए थे, उनके प्रति रैदास ने आदर भाव ही प्रकट नहीं किया अपितु उनके गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की, साथ ही अपने को विश्वब्रह्माण्ड का अकिंचन सेवक बताया।
रैदास का कबीर के साथ प्रायः वाद-विवाद हुआ करता था। हरिभक्त रैदास की कबीर में आदर बुद्धि थी, परन्तु उनकी कटु-उक्तियाँ उन्हें पसन्द न थीं। बलात् साधुओं के प्रसंग में कबीर को, रैदास की विनम्रता देख, उन्हें “साधुओं में साधु रैदास है” कहना पड़ा।
रैदास ने सगुण और निर्गुण उभय ब्रह्म की उपासना की है। भगवान को सर्वव्यापी समझकर, परात्पर की कल्पना करने में भी वह अन्य किसी सन्त से पीछे नहीं हैं। परन्तु अधिकतर वह सत्संगति को प्रधानता देते हैं। एक पद्य देखिए:—
प्रभुजी संगति सरन तिहरी, जगजीवन राम मुरारी। गली गली को जल बहि आयो, सुरसिरि जाय समायो। संगत के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो। स्वाति बूँद बरसै फनि ऊपर, सीस विषै हो जाई। वही बूँद के मोती निपजै, संगत की अधिकाई। तुम चन्दन हम रेंड बापुरो, निकट तुम्हारे आसा! संगत के परताप महातम, आवै बास सुबासा। जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा। नीचे से प्रभु ऊंच कियो है, कहै रैदास चमारा।
कितनी निरभिमानता पूर्व संगति का याशोगान है।
रैदास, रामानन्दजी के प्रसिद्ध बारह शिष्यों में गिने जाते हैं। उनका प्रणीत कोई ग्रन्थ अभी तक नहीं मिला। फुटवल पद पाए जाते हैं। चालीस पद तो ‘आदि गुरु ग्रन्थ साहब’ में दिए गए हैं। सन्तोष धनी रैदास का शुभ्र यश ही तब तक उनका नाम अमर करने के लिए पर्याप्त है, ये जब तक अन्य ऐतिहासिक सामग्री उनके सम्बन्ध में नहीं मिलती। पारस्परिक द्वेष-मत्सर-दग्ध अतएव कलुषित हृदय संसार के लिए रैदास जैसे शाँति उपासक और मदमत्सर रहित सन्तों से समन्वयात्मक बुद्धि करने की जो प्रेरणा मिलती है, उसका मूल्य भी कुछ कम नहीं है।