दुर्गुण ही वास्तविक शत्रु है।

February 1956

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(महात्मा प्रभु आश्रित जी, रोहतक)

क्रोध, चाण्डाल है, यह निम्न सच्ची गाथा से स्पष्ट होगा।

महाराज विक्रमादित्य एक दिन अपने योगी गुरु के पास गये और उनसे पूछा—लोग मुझे महाराजा विक्रमादित्य क्यों कहते हैं? गुरु ने आदेश किया- कल प्रातः उठने के बाद सबसे प्रथम जिससे भेंट हो जाय, उससे पूछ लेना।

विक्रमादित्य को प्रातः सर्व प्रथम भंगिन से भेंट हुई। उसने राज्य और बुद्धि के अभिमान में उससे पूछना व्यर्थ समझा और नहीं पूछा। पुनः गुरु के पास गये। गुरुदेव ने पुनः वही आदेश दिया। दूसरे दिन भी उसी भंगिन से भेंट हुई। राजा ने फिर नहीं पूछा और गुरु के पास गये। गुरुदेव का फिर वही आदेश हुआ। तीसरी बार विक्रमादित्य ने गुरु आदेश स्वीकार किया।

अभिमान उन्नति के मार्ग में बाधक है। जब तक मनुष्य अपने को दूसरे की अपेक्षा बड़ा समझता है, जब तक वह परमात्मा का दर्शन कभी नहीं कर सकता। जो परमात्मा का दर्शन चाहे, उसे, भगवान् को पूर्ण रूपेण अपना सब कुछ—अपने तक को, समर्पण कर देना चाहिए।

राजा को प्रश्न पूछने में संकोच हो रहा था। गुरु आदेश का स्मरण होते ही उन्होंने भंगिन से पूछा- लोग मुझे महाराजा विक्रमादित्य क्यों कहते हैं? भंगिन ने उत्तर दिया यहाँ एक कोश उत्तर दिशा में अमुक डडडड ब्राह्मणी रहती है, उससे जाकर यह प्रश्न पूछो। विक्रमादित्य खोजते हुये ब्राह्मणी के पास पहुँचे और वही प्रश्न पूछा। ब्राह्मणी ने कहा—यहाँ से एक कोश पूर्व दिशा में एक सूखी वाटिका है। वहाँ जाओ। तुम्हारे जाते ही वह वाटिका हरी-भरी हो जायगी। फिर वाटिका का स्वामी उस स्थान का राजा आयेगा। उसे तुम वरदान माँगने पर पुत्र होने का वरदान दे देना। वही पुत्र बोलने योग्य होने पर तुम्हें इसका ठीक ठीक उत्तर देगा। ब्राह्मणी के निर्देशानुसार विक्रमादित्य ने सब काम किया। उसके जाते ही सूखी वाटिका पुष्पित-फलित हो गई। राजा आया। वरदान माँगा। विक्रमादित्य ने वरदान दे दिया। लड़का जब बोलने योग्य हुआ तो पुनः विक्रमादित्य वहाँ पहुँचा और उस लड़के से वही प्रश्न पूछा—बालक ने उत्तर में कहा-

एक अण्यडडडड था। उसमें दो भाई, अपनी माता तथा एक बहिन के साथ निवास करते थे। एक बार सात दिन पर्यन्त उन चारों को कोई भोजन नहीं मिला। सभी भूख से व्याकुल थे। आठवें दिन उन्हें भोजन सामग्री प्राप्त हुई। माता ने रसोई बना कर पत्तलों में परोसा। सभी भोजन करने को उद्यत ही थे कि उसी समय एक समाधि से उठा हुआ क्षीणकाय योगी भूख से बेहाल हो द्वार पर आया और कहा—अतिथि भूखा है, कुछ खिला दो। सुनते ही बड़े भाई ने अतीव प्रसन्नता और उल्लास से भर कर अतिथि को श्रद्धा पूर्वक अपना पत्तल उठा कर दे दिया। पर योगी भूखा ही रहा। दूसरे भाई और बहिन ने भी भोजन नहीं किया, सोचा शायद उससे अतिथि की भूख न मिटी। योगी के माँगने पर दूसरे भाई ने भी अपना पत्तल उठा कर दे दिया। उस पर भी अतिथि की भूख न मिटे। तीसरी बार बहिन अपना पत्तल उठाकर देने जा रही थी कि माँ ने एक लट्ठ उठाकर उस योगी अतिथि से यह कहती हुई मारने दौड़ी कि सात दिन के भूखे मेरे बच्चों का तुम प्राण ही ले लोगे? साधु भागे माँ ने दूर तक पीछा किया। योगी जान बचा कर भाग गया।

बालक बोला—हे महाराज विक्रमादित्य! वह सर्वप्रथम अपना भोजन देने वाले बड़े भाई आप ही थे, इसीलिये सभी आपको महाराजा विक्रमादित्य कहते हैं। दूसरा छोटा भाई मैं हूँ, जो अब राजकुमार बना है। वह ब्राह्मणी बहिन है, जो अपना हिस्सा देने की प्रतीक्षा कर रही थी और देने ही जा रही थी और चौथी वह भंगिन माँ है, जो अतिथि को लट्ठ से मारने दौड़ी थी। क्रोध चाण्डाल है। वह मनुष्य को चाण्डाल ही बना देता है।

अतिथि सेवा न होने से हमारे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होते। सच्चे भाव से अतिथि की सेवा, अन्तःकरण की शुद्धि का एक अचूक साधन है।

क्रोध के होने से सारे धर्म विनष्ट होने लगते हैं। इस पर विजय पाने के लिये नौ साधन करने पड़ते हैं, तब अन्त में जाकर इस पर विजय मिलती है वे साधन कौन से हैं, सुनिये:—

मनु महाराज ने कहा है—

घृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः॥ घीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥

अर्थ—1 धृति, 2 क्षमा, 3 दम, 4 चोरी न करना, 5 शौच, 6 इन्द्रियनिग्रह, 7 घी (बुद्धि), 8 विद्या, 9 सत्य और 10 अक्रोध (क्रोध नहीं करना) यह दसों धर्म-लक्षण हैं।

अक्रोधी बनने अथवा क्रोध पर विजय पाने के लिये सर्व प्रथम धृति-धैर्य की आवश्यकता है। एक बात की गाँठ बाँध लें कि क्रोध की वंशावली में मोह, काम, लोभ और अहंकार रूपी, यह बली सन्तान है। जहाँ धैर्य होगा वहाँ मोह न होगा और जहाँ मोह होगा, वहाँ धैर्य न होगा। अतः क्रोध को समूल नष्ट करने के लिये सर्व प्रथम मोह का नाश कीजिये अर्थात् अपने अन्दर धैर्य का गुण उत्पन्न कीजिये।

दूसरा गुण जिसको प्राप्त करना है, वह है क्षमा। क्षमा के भाव हैं किसी के कटु व्यवहार अथवा वचन को सहन करना, प्रतिकार के भाव अपने अन्दर न लाना। प्रतिकार का भाव आया नहीं कि क्रोध-द्वेष का अंकुर फूटा नहीं। अनुकूल वातावरण बन जाने पर भयंकर रूप धारण कर विनाश का कारण बन जायगा। वेद ने कहा है:—

“ऐ मनुष्यों तुम क्षमा करना सीखो। क्षमा तब करो जब अपराधी पश्चात्ताप करले।” ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्।’

क्षमा वीर पुरुषों का भूषण है। अहंकार के कारण क्षमा नहीं होती। वेद में आया है— मानो वधाय हत्नवे जिहीडानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥ भावार्थ—ईश्वर उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों! जो अल्पबुद्धि वाले अज्ञानी मनुष्य, अपनी अज्ञानता से तुम्हारा अपराध करें और अपराध करके लज्जित हों, अर्थात् तुम से क्षमा करावे तो उस पर क्रोध मत करो-किन्तु, उसका अपराध सहन कर लो और यथावत् दण्ड भी दो।

तीसरा गुण है, दम इन्द्रियों का दमन करना। दमन न करेंगे तो हम समझ न सकेंगे। कामी आदमी दमन नहीं कर सकता।

चौथा गुण है, अस्तेय-चोरी न करना। दूसरे की वस्तु का लोभ करना भी चोरी है। आत्मा का सबसे बड़ा सूक्ष्म यन्त्र संकल्प है। संकल्प से भी चोरी हो सकती है। जैसे किसी की उत्तम वस्तु देखी, संकल्प हुआ कि यह मेरी हो जाय। द्रव्य की चोरी के अलावा विचार-ज्ञान की चोरी भी होती है। चोरी का मूल कारण लोभ है। लोभ के कारण मनुष्य अस्तेय का पालन नहीं कर सकता।

पांचवां गुण है शौच। मन की अपवित्रता का कारण राग-द्वेष है, जहां राग-द्वेष है, वहाँ सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। क्रोध के कारण से पवित्रता नहीं आ सकती।

छठा गुण है, इन्द्रियनिग्रह—इन्द्रियों की पड़ताल करना। दम और इन्द्रियनिग्रह में यह भेद है- दम का अर्थ है, पापवृत्ति को दबाना और इन्द्रियनिग्रह का अर्थ है पापवृत्ति को रोकना, आने न देना। इन्द्रियनिग्रह, मानों एक चौकीदार है, जो द्वार पर बैठा हुआ अन्दर प्रवेश करने वाले को अन्दर जाने से रोक देता है।

इन छह गुणों की प्राप्ति पर सातवें गुण धी- बुद्धि की उपलब्धि होती है। तब बुद्धि से विद्या की—आठवाँ गुण है और विद्या के द्वारा सत्य की, जो न गुण है- की प्राप्ति होती है। बस आखिरी मञ्जिल क्रोध पर विजय अर्थात् अक्रोध की प्राप्ति स्वयं सिद्ध हो जायगी।

अब प्रश्न है, इन गुणों को धारण कैसे किया जाय? इन गुणों को धारण करने के लिये सब से प्रथम श्रद्धा चाहिये। श्रद्धा ही बीज है। वेद ने कहा है:—

“श्रद्धया सत्यमाप्यते”-यजु. 19-30॥ श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। इसलिये जहाँ सत्य है, वहाँ हम उसका आदर करें। सत्य वेद में है। ‘वेद तो जड़ है’ यदि इस भावना से हम वेद का आदर न करें, तो हम भी जड़ बन जायेंगे यानी हमारी बुद्धि जड़ बन जायेगी।

सिक्ख लोग ग्रन्थ साहिब को गुरु की देह मानते हैं। वैसी ही श्रद्धा हमें वेदों के प्रति होनी चाहिये।

श्रद्धा तो मिलेगी चेतन में, जड़ में नहीं। चेतनता तो मनुष्यों में है। यह चैतन्य ज्ञानियों के मस्तिष्क में निवास करती है। अतः हमें उन ज्ञानियों का आदर और सम्मान करना चाहिये। परोक्ष-अपरोक्ष एक समान हो। भीतर-बाहर में अनुकूलता हो।

हृदय रूपी खेतों में श्रद्धा को बोओ, जैसे गेहूँ को बोते हो। जिसकी जड़ भूमि में दूर तक—शहौं तक जायगी, वह पेड़ सदा हरा भार रहेगा। कारण कि उस जड़ में सूक्ष्म तन्तु, जो शहौं तक पहुँचती है, वह शहौं से जल खींचकर जड़ में और जड़ के द्वारा मूलाधार में, वहाँ से शाखाओं में, पत्तों में, फूलों आदि में, पेड़ के अँग-अँग में पहुँचता है। इसलिये सूर्य का ताप उस को तपा नहीं सकता। तो भाइयों! इसी प्रकार जिस श्रद्धा रूपी मूलाधार की जड़ नम्रता है और नम्रता की जड़ सूक्ष्म तन्तुयें उदारता और पवित्रता रज्जु बन कर परमात्मा रूपी शहौं (मूल केन्द्रीय सरोवर) तक पहुँच गयी, वह वहाँ से अमृत रस खींचकर, नम्रता में, नम्रता से श्रद्धा में, और श्रद्धा कर्मरूपी पेड़ में और फिर उसके पत्तों (वासनाओं) में और फलों में पहुँचकर आनन्द रस पान करता हुआ सदा हरा भरा रहेगा और संसार के भयंकर से भयंकर ताप भी उसे नहीं तपा सकेंगे। वह सदा शान्त और हरा भरा रहेगा। प्रभु करें कि यह मर्म की बातें हमारे कानों से गुजरती हुई, हमारे हृदयों में जाकर स्थिर हो जायं और वह सदा जीवन का उत्थान एवं कल्याण करता रहे।


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