( श्री वीरेन्द्र सिंह जी बी. ए. खातौली )
यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जावे तो मालूम पड़ता है कि मनुष्य की साधना का प्रारम्भ विचार से ही होता है। संसार अनन्त है। उसमें अनेकों प्रकार की विचार करने की सामग्री विद्यमान है। किसी भी एक विषय को ले लीजिये यदि हम उस पर विचार करना प्रारम्भ करेंगे तो हमें उसमें नित्य ही कोई न कोई नवीन बात मिलती ही रहेगी। इसी से तो संसार की उपमा दिये जाने के लिए तत्वज्ञों को समुद्र से अधिक उपयुक्त कोई दूसरी वस्तु दिखाई ही नहीं पड़ी। संसार में स्थान-स्थान पर हमारी चित्तवृत्ति को लक्ष्य से भटकाने वाली सामग्री विद्यमान है। यदि मनुष्य थोड़ी भी असावधानी में रह जावे, तथा विचार से काम न ले तो वह देखेगा कि वह अपने लक्ष्य से कहाँ का कहाँ पिछड़ गया है।
साधना का मूल मन्त्र ही विचार है। भगवान् ने हमारे मस्तिष्क को ऐसा बनाया है कि हम उससे विचार की तरंगें उत्पन्न करने के साथ ही साथ दूसरों के द्वारा भेजी गई विचार की तरंगों को भी ग्रहण कर सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य साधारणतया विचार की तरंगें क्षण-क्षण में अपने मस्तिष्क से दौड़ता रहता है; लेकिन दूसरों के द्वारा भेजी हुई विचार तरंगों को हर एक व्यक्ति साधारणतया ग्रहण नहीं कर सकता। कारण कि साधारण मनुष्यों का मस्तिष्क इस कोटि तक विकसित नहीं रहता। मस्तिष्क को इस कोटि तक विकसित करना एकमात्र अभ्यास से ही संभव हो सकता है। जिस व्यक्ति का मस्तिष्क काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य आदि विकारों से जितना ही रहित होगा, वह व्यक्ति उतना ही इस शक्ति को ग्रहण कर सकेगा। योगियों को लीजिये। वे सहस्रों मीलों की दूरी पर रहते हुए भी दूसरों को प्रभावान्वित कर सकते हैं। ‘यौट रीडिंग’ तथा ‘टेलीपैथी’ आदि शक्तियों को इसी विचार संयम के द्वारा प्राप्त योग की छोटी-छोटी सिद्धियाँ हैं। इन्हें थोड़ा अभ्यास करके हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है।
जिस व्यक्ति का मस्तिष्क जितना ही शक्तिशाली होता है, उसके विचार में उतनी ही क्रियात्मक शक्ति विद्यमान रहती है। यह शक्ति दोनों प्रकार की होती है—अच्छी तथा बुरी। संसार के इतिहास में जिन दुर्दमनीय नारकी तथा नराधमों की दुष्टता का वर्णन मिलता है, उन्होंने सारे अवगुण एकाएक ही प्राप्त नहीं कर लिये थे। बुरे कर्मों में उनकी चित की वृत्ति धीरे-धीरे रंगती गई तथा एक दिन उसकी परिपक्वावस्था आने पर वे ठीक वैसे ही बन गये।
मनुष्य का चित्त बड़ा कोमल है। वास्तव में हम चित्त को द्रव धातु की भाँति मानलें तो ठीक होगा। एकबार चित्त में जिन संस्कारों की छाया पड़ जाती है बार-बार वे ही भावनायें उदय होकर उन्हीं कर्मों को करने की प्रेरणा देती रहती हैं। यदि ये कर्म शुभ हुए तो मनुष्य निरन्तर शुभ-कर्मों की ओर बढ़ता रहता है; और यदि ये कर्म अशुभ हुए दो एकबार इन कर्मों में चित्त के लिपट जाने पर उधर से वृत्ति को निकाल लेना कोई आसान कार्य नहीं। अनुभव से स्मरण तथा स्मरण की दृढ़ता से पुनः कर्म, यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। शुभ कर्मों के विषय में भी यही नियम है। शुभ संस्कार दृढ़ हो जाते हैं तब बुरे संस्कार अपना कुप्रभाव डालने में सर्वथा असफल रहते हैं। जिस परिमाण में ये शुभ विचार बढ़ते जावेंगे, उसी परिणाम में मनुष्य का तेज भी बढ़ता जावेगा। उसके मस्तिष्क से निकली हुई विचार की वे प्रबल तरंगें उसके आस पास वैसा ही वातावरण उत्पन्न करेंगी। धीरे-धीरे उस व्यक्ति के संपर्क में आने वाले लोगों पर भी उसके विचारों का स्थायी प्रभाव पड़ने लगेगा। वे उसके अनुयायी बनने लगेंगे तथा उसके विचारों की प्रधानता उन लोगों के बीच स्थापित हो जावेगी।
प्रभावशाली पुरुषों के प्रभाव का कारण उनके आचरण तथा विचार की दृढ़ता ही होती है। ये लोग विचार दृढ़ता से चाहे जिस व्यक्ति पर अभीप्सित प्रभाव डाल सकते हैं। बड़े-बड़े समुदायों को अपने प्रभाव से दबाये रहकर जिस दिशा में चाहे उनकी प्रगति बदल सकते हैं। संसार में जितने भी धर्माचार्य राजनीतिज्ञ, शूरवीर या अन्य युग परिवर्तनकारी महापुरुष हुए हैं, उनमें यह शक्ति विद्यमान थी। यही कारण था कि उनका एक एक शब्द संसार में हलचल मचा देता था। वे जिस दिशा में मुड़ते थे सारा संसार मन्त्र-मुग्ध की भाँति उनके पद चिन्हों पर चल देता था।
वास्तव में विचार की शक्ति अपरिमेय है विचार ही शक्ति का सर्वोच्च उद्गम है। जब हम इसकी शक्ति को जान लेंगे तब हमारा आधा मार्ग बिना परिश्रम के ही समाप्त हो जावेगा।