(कुमारी भारती)
तुम समझते हो, तुम एक ही बार पैदा होते हो और एक ही बार मरते हो, यह तुम्हारी भूल है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को कहा है—“मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हुए हैं, मैं उन्हें जानता हूँ परन्तु तू उन्हें नहीं जानता।” जब मनुष्य अनेक जन्मों का एक ही शरीर में ज्ञान कर लेता है, तब वह आत्मा से परमात्मा बन जाता है। तुम्हारे विचार से शरीर से वियोग ही मृत्यु है और शरीर संयोग का नाम जीवन है, यह व्याख्या तुम्हें जिसने बताई, वह भूल में है।
जब तुम्हारा संयोग आत्मा से, चेतन अथवा विवेक से होता है, तब तुम्हारा जन्म होता है, इसके विपरीत जब तुम्हारा उक्त चेतन से वियोग होकर जड़ तत्व से संयोग होता है, तब तुम्हारी मृत्यु होती है।
चेतन तत्व से संयोग अथवा वियोग की यह स्थिति बाहरी तराजू में तौलने की वस्तु नहीं, यह भी बौद्धिक सन्तुलन की क्रिया है अर्थात् जब तुम अपने स्वरूप के समीप होते हो, तब तुम्हारा जन्म हुआ, तुम्हारी आयु इसी के अनुसार चलेगी।
संसार के अणु-अणु में एक समान चैतन्य व्याप्त है, इस नाते तुम में और अन्य पशुओं और पक्षियों में ही नहीं, जड़-चेतन सब में तुम्हारे समान परम पिता का अमर राज्य है। तुम उस परमपिता के पुत्र हो, उसकी प्रजा हो। यदि तुम अपने जनक को भूल जाओ और ऐसा समझने लगो कि तुम्हारा जन्म बिना उस पिता के हुआ है, तो यह तुम्हारी भूल है, तुम्हारा वियोग ही तुम्हारे लिए मृत्यु है। तुम पूछोगे, तो क्या अभी तक जन्म नहीं हुआ? हाँ, अभी तक जन्म नहीं हुआ, सत्ता और ज्ञान एक साथ रहते हैं, जो ज्ञान में नहीं वह उतने अंश में है ही नहीं।
आग के पास जाने पर गर्मी प्रतीत होगी ही, प्रभु के पास जाने पर भी तुम्हें प्रकाश और ऊर्ध्वगति का अनुभव अवश्य होगा। परन्तु तुम तो अभी तक क्षुद्र विचारों को नहीं छोड़ रहे, तुम जो कुछ सोचते हो वही तुम हो, तुम उच्च विचार करने लगोगे तभी तुम्हारा यथार्थ जन्म होगा, विचार ही आचार में परिणत होते हैं, जो सोचोगे वही हो जाओगे।
उत्कट भावना से तुम जब एक भाव को छोड़कर जिस नये भाव को धारण करने का दृढ़ संकल्प करोगे वही बनोगे उसे ही प्राप्त करोगे। भगवान् कृष्ण ने कहा है—“अन्तकाल में यदि मेरा स्मरण करोगे तो मुझे प्राप्त करोगे। चाहे जिस भाव को अधिक सोचोगे, जिसे स्मरण करोगे उसे ही प्राप्त करोगे।” यह बात एक शरीर में भी सम्भव है।
शास्त्रों में कहा है- एक जन्म माता पिता से होता है वह भौतिक जन्म है; दूसरा जन्म गुरु के द्वारा होता है यह स्थायी है।
उपनिषदों में गुरु अनेक माने गये हैं, पशु-पक्षी जड़-चेतन बुरे-भले सभी गुरु हो सकते हैं। सबसे बड़ा गुरु मनुष्य का वह स्वयं है।
तुम यह मानते हो कि मनुष्य अपनी हत्या कर सकता है यह तुम्हारा ज्ञान अपूर्ण है, इसकी पूर्णता यह है कि मनुष्य अपने आपको मार भी सकता है और अपने आपको जन्म देकर जीवित भी रख सकता है।
तुम शरीर नहीं शरीर में तुम हो, तुम शरीर के लिये नहीं शरीर तुम्हारे लिये है, इसलिये शरीर का जीवन और तुम्हारा जीवन पृथक वस्तु है।
अकीर्ति, अपमान और पराजय मृत्यु से भी बढ़कर है। कीर्ति के लिये, ऊँचे उद्देश्य के लिए, मृत्यु का भी आलिंगन बोर पुरुष करते हैं। संसार की दृष्टि में यह जन्म है जीवन है।
तुम्हारे सामने प्रतिक्षण जीवन और मरण के लक्षण आते हैं, उनमें तुम जीवन का वरण करो सच्चा जीवन प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प करो।