(श्री पंडित विद्याधर शास्त्री एम. ए., बीकानेर)
यज्ञविज्ञान एक ऐसा विषय है, जिसकी व्यापकता का कोई अन्त नहीं। इसमें आधिभौतिक आधिदैविक एवं आध्यात्मिक तीनों तरह की विश्वगतियों का समन्वय एवं पारस्परिक आदान प्रदान होता है। इसको समझने के लिये प्रकृति विकृति की समस्त गतियों और आत्म संबंधी समस्त विवर्तों के ज्ञान की परमावश्यकता है।
जो लोग आधुनिक विज्ञान के साथ यज्ञविज्ञान की तुलना करने हैं अथवा जो व्यक्ति केवल आजकल की वैज्ञानिक प्रक्रिया के आधार पर ही यज्ञविज्ञान को समझना चाहते हैं वे यज्ञविज्ञान के श्री गणेश को भी समझ सकेंगे या नहीं मुझे इसमें भी सन्देह ही है। आधुनिक विज्ञान पार्थिव-परिवर्तनों अथवा तत्वपदार्थों के पृथ्वी पर दृश्यमान प्रभावों के विश्लेषण में ही अपनी गवेषणा की इति श्री कर देता है। यह यदि और भी आगे बढ़ता है तो दूर वीक्षणों की सहायता से ग्रहणों के समय होने वाले सूर्यादि के धब्बों का भी परीक्षण करता है परन्तु जब इसके सामने यह प्रश्न आता है कि हमारे मन और अन्न में कैसा सम्बन्ध है अथवा अन्न की उत्पत्ति में सोम की कैसी प्रधानता है तब यह सर्वथा मौन हो जाता है। यह सवितृमण्डल के साथ हमारी बुद्धि के सम्बन्ध को स्थापित नहीं कर सकता।
मेरा विश्वास है कि यज्ञविज्ञान एक ऐसा विषय है जिसका वास्तविक ज्ञान ब्राह्मण ग्रंथों के आविर्भाव काल में भी लुप्त हो चुका था। जिन यज्ञों के लिये स्वयं वेद भगवान्—
‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमा-न्यासन्’ की घोषणा के द्वारा उनकी परमप्राचीन प्राथमिकता को उद्घोषित करते हैं उन यज्ञों का विकास केवल ब्राह्मण जाति प्रधान किसी ब्राह्मणकाल में हो रहा था, मैं आधुनिक ऐतिहासिकों के इस सिद्धान्त को नहीं मानता। मेरी दृष्टि में शतपथादि में जिस रूप से यज्ञ सम्बंधी प्रश्नों का समाधान किया गया है वह समाधान इस बात को सिद्ध करता है कि ब्राह्मण ग्रंथ यज्ञ सिद्धान्तों के निर्धारक होने की अपेक्षा उसका अनुसंधान कर रहे थे। उपनिषत् काल के बाद यह यज्ञविज्ञान का अनुसंधान बीच में ही अवरुद्ध हो गया। दूसरी ओर यदि यह मान भी लिया जाय कि ब्राह्मणकाल में यज्ञ-सम्बंधी समस्त विज्ञान का पूर्ण ज्ञान हो चुका था, तो मैं पूर्णता के पक्षपाती इन सज्जनों से भी यही निवेदन करूंगा कि विज्ञान में सदा ही नये-नए परीक्षणों के लिये अवकाश रहता है। विज्ञान की गवेषणा किसी समय भी किसी एक ही सिद्धाँत पर स्थिर नहीं रहती। विज्ञान प्रतिक्षण नई-नई संभावनाओं से परिपूर्ण रहता है।
यज्ञ विज्ञान के विषय में मेरी यह मान्यता और भी अधिक स्पष्ट और प्रबल है। इस समय हम यज्ञविज्ञान को सर्वथा विस्मृत कर चुके हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारे यज्ञ-यज्ञविज्ञान का पुनरुद्धार हो तो इसके लिए प्राचीन एवं अर्वाचीन समस्त वैज्ञानिक सिद्धांतों का पूर्ण विवेचन कर नये नये प्रयोगों के द्वारा प्रकृति के गुप्त रहस्यों को समझने का एक महान् प्रयत्न करना होगा।
यज्ञ में अग्नितत्व प्रधान है परन्तु यज्ञाग्नि के स्वरूप को समझने के लिये जिस विज्ञान शाला की आवश्यकता है वह विज्ञानशाला विश्व की समस्त वर्तमान विज्ञानशालाओं से विलक्षण और व्यापक साधनों से सम्पन्न होगी।
यह केवल भारतीय राष्ट्र का ही नहीं अपितु समस्त विश्व का दुर्भाग्य है कि अभी उसका ध्यान भारत के प्राचीन लुप्त विज्ञान की ओर आकृष्ट नहीं हुआ। यज्ञाग्नि तत्व के ज्ञान के साथ-साथ हमको अपने आप शब्दाग्नि का ज्ञान भी होगा। यज्ञों की यह विशेषता थी कि उनमें— अग्निशक्ति, शब्दशक्ति और काल विशेष की शक्ति तीनों का एक अभूतपूर्व सम्मिश्रण होता था। वर्तमान वैज्ञानिक संसार शब्दशक्ति और काल परिवर्तन की गति के ज्ञान से सर्वथा शून्य है। मन्त्र शक्ति में शब्दशक्ति का रहस्य अन्तर्हित है। प्रहगतियों के परिवर्तनानुसार नाना नक्षत्रों से यज्ञों का जो सम्बन्ध था, वर्तमान वैज्ञानिक उस कालज्ञान की ओर एक क्षण के लिये भी कभी नहीं विचारते।
धूम के प्रभाव का भी सबसे अधिक विश्लेषण करना होगा। एटम-धूम के विषैले प्रभाव ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि धूम हजारों कोसों तक फैलता है। यज्ञ धूम भी विषैले धूम की अपेक्षा अपने सुगन्धित धूम से न जाने कितने व्यापक वातावरण पर अपने व्यापक प्रभाव को करता था। जो यज्ञविषयक अनुसंधान करना चाहते हैं, वे नाना प्रकार के पदार्थों की आहुतियों से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के धूम प्रभावों का परीक्षण करेंगे।
वर्तमान विश्व का समस्त वायु-मण्डल लाखों कारखानों की चिमनियों के दुर्गन्धमय धूम से परिपूर्ण हो रहा है। अपनी भौतिक आवश्यकता की लोलुपता में आज का कोई भी व्यक्ति इस बात का परीक्षण नहीं कर रहा है कि इस धूम का हमारी वर्षा-हमारे अन्न और हमारे मस्तिष्क पर कैसा प्रभाव हो रहा है। यज्ञानुसंधान करने वाले विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इस विषय पर पूरी तरह से मनन कर विश्व को यह दिखा दें कि विश्व के लिये यदि कोई कल्याणकारी धूम हो सकता है तो वह केवल यज्ञ धूम ही है। यज्ञ धूम से यदि विश्वव्याप्त होगा तो इसकी मस्तिष्क शक्ति स्वयमेव विकसित होगी एवं इस धूम से सम्पन्न समस्त वर्षा पृथ्वी के प्रत्येक पदार्थ में एक विशेष गुण की अधायक होगी।
यज्ञानुसंधान सम्बन्धी इन सब कामों का पूर्ण परीक्षण केवल याज्ञिक विद्वानों के द्वारा ही नहीं किया जा सकता। इसके लिये प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों प्रकार के वैज्ञानिकों के पारस्परिक सहयोग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
यज्ञानुसंधान-शाला की एक योजना—
इसलिये यज्ञानुसंधान शाला के सम्बन्ध में मेरी सबसे पहली योजना यह है कि—यह अनुसंधान-शाला एक ऐसे विशाल प्रदेश में स्थापित हो जहाँ प्राचीन रीति के नाना कुण्ड-मण्डपों एवं आधुनिक रीति की नाना प्रयोग परीक्षण शालाओं की एक साथ स्थापना हो सके। इस अनुसंधान शाला में अनुसंधान करने वाले विद्वानों का कर्तव्य होगा कि वे पहले से ही अपने किसी विषय विशेष की परीक्षा का कार्यक्रम तैयार कर तद्नुसार अपने परीक्षणों को नियत रूप से किया करें।
“उदिते जुड़ोति”, “अनुदिते जुहोति, आदि विवाद ग्रस्त विषयों का सबसे सुन्दर निर्णय उस समय होगा जब सूर्य के उदित होने पर और उसके उदय से पूर्व किये हुए यज्ञों के धूमादि की गति के अन्तर का ज्ञान हमको यन्त्रों की सहायता से होगा।
हवन कुण्डों और आधुनिक यन्त्र शालाओं के साथ यज्ञानुसंधान-शाला में—एक ज्योतिष का विभाग होगा, जो Wather raport ऋतु परीक्षण के अनुसार भिन्न प्रकार की कालगतियों का परीक्षण करता हुआ किस काल में कौनसा यज्ञ और कौन-सी सामग्री विशेष फलदायक होगी- इस बात का निर्णय किया करेगा। हमारे यहाँ अनेक ऐसे मार्ग हैं जिनमें कभी तो हमारी गति ब्रह्मांड के उच्च से उच्चस्तर में होती जाती है और कभी उच्चस्तर से भी हम नीचे स्तर में आ जाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के लिये ग्रह गति के अनुसार होने वाले नाना परिवर्तन परम परीक्षणीय हैं।
मैं यह मानता हूँ कि यज्ञ द्वारा जिस अपूर्व की उत्पत्ति का सिद्धान्त स्थिर किया गया है वह परम महान् है परन्तु श्रद्धा एवं विश्वास से शून्य एवं आध्यात्मिक व्यापकता से शून्य वर्तमान युग उस सिद्धान्त की त्रैकालिक परिस्थिति का ज्ञान नहीं कर सकता। अपूर्व को समझने के लिये यह परमावश्यक है कि हम काल की त्रैकालावाध्य परिस्थिति को समझकर इस क्षण में किये हुए कर्म का फल भविष्य में प्राप्त करने के लिये तैयार रहें। जब तक लोग केवल भौतिक दृष्टि से ही किसी बात का समझना चाहते हैं, तब तक हमको भौतिक परिवर्तनों के द्वारा ही हमारे सिद्धान्तों की विशेषता को उनके समक्ष स्पष्ट करना होगा।
हमारे प्राचीन यज्ञों में मन्त्रों के अशुद्ध उच्चारण एवं कुण्ड-मण्डपादि के निर्माण में प्रमाद होने से अनेक बार विपरीत फलों की प्राप्ति के उदाहरण मिलते हैं, एक-एक अक्षर के उच्चारण से पृथक्-पृथक् भौतिक परिवर्तन होते हैं—आजकल के वैज्ञानिक जिस रूप में संगीत लहरी के नाना प्रभावों का परीक्षण कर रहे हैं, उस रूप में हमको भी उदात्तादि स्वरों की तत्तद विशेषताओं का परीक्षण करना होगा। कुण्ड-मण्डपादि लक्ष्य के साधन हैं। इनका मापदण्ड यदि किंचित् मात्र भी इधर-उधर हो, तो लक्ष्य भ्रष्ट हो सकता है। इस मापदण्ड को केवल शुष्क शास्त्रीय विषय न मानकर हमारा कर्तव्य है कि हम इनके तार-तम्य से उत्पन्न होने वाले नाना तारतम्यों का ज्ञान भी प्राप्त अवश्य करें।
यदि कोई यह कहें कि इनमें वैज्ञानिकता की अपेक्षा केवल हवन सामग्री की अधिकता अथवा न्यूनता पर ही इनके परिमाणों का निर्धारण किया गया है, तो मेरा उन से यही नम्र निवेदन है कि यदि प्राचीन याज्ञिकों के सम्मुख यह वैज्ञानिक प्रश्न नहीं था, तो हमारा कर्तव्य है कि हम इन बातों की वैज्ञानिक परीक्षा अवश्य करें। यह आवश्यक नहीं कि समस्त विज्ञान प्राचीनकाल में ही उद्भूत हुआ था और आज हम उसमें किसी नवीन वैज्ञानिक विकास के दर्शन नहीं कर सकते। मेरा तो अनुमान है कि नाना प्रकार के पदार्थों द्वारा जो आहुति दी जाती थी उन पदार्थों के पारस्परिक सम्मेलन में किसी न किसी तरह की अपनी निजी विशेषता अवश्य रहती थी। अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न विल्वादि पदार्थों के हवन का विधान है। पशुयाग में भी नाना प्रकार के पशुओं का वर्णन है। जो यज्ञों की हिंसा से भयभीत हों, वे उससे सर्वथा दूर रहें परन्तु उनका भी यह कर्तव्य अवश्य है कि अपनी ओर से भी नाना प्रकार के पदार्थों का सम्मिश्रण कर उनकी आहुति से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के भौतिक प्रभावों का परीक्षण करें।
इन समस्त सूक्ष्म परीक्षणों के साधनों से सम्पन्न यज्ञानुसंधान-शाला यह निश्चित है कि बहुव्यय साध्य है, परन्तु इस अनुसंधान-शाला में जिन सूक्ष्म विषयों का अनुसंधान होगा, उनका प्रभाव समस्त पार्थिव लोक के लिये परम कल्याणकारी होगा। यदि हम वर्षा यज्ञ के विज्ञान को ही पूरी तरह से समझ लें, तो हमारी अन्नादि की सब समस्यायें सहज ही में सुलझ सकती हैं।
यज्ञों पर श्रद्धा रखने वाले सज्जनों से मेरी यही प्रार्थना है कि वे शास्त्रीय आज्ञानुसार यज्ञों के समस्त प्राचीन विधानों की रक्षा करते हुए नवनवीन यज्ञ सम्बन्धी परीक्षणों के लिये भी तैयार अवश्य रहें। अणुबमों के यन्त्रालयों के समान इनमें परम सावधानी से काम करना होगा, परन्तु वेदों की रक्षा के लिये जैसे समस्त वेदांग सुसज्जित रहते हैं, वैसे यज्ञों की प्रगति के लिये यज्ञ से सम्बन्ध रखने वाले समस्त कालज्ञान, स्वर ज्ञान, सामग्री विज्ञान, देवोपासना आदि ज्ञानों और साधनों को भी प्रतिक्षण सहायता के लिये सुसज्जित रहना होगा।
संस्कृत के समस्त विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इस अनुसंधानशाला की आवश्यकता से समस्त भारतीय जनता को प्रतिबोधित करें। प्रति बुद्ध भारत इस अनुसन्धान-शाला को भी एक न एक दिन अवश्य खोलेगा।