संस्कृति की रक्षा के लिए संस्कृत पढ़ना आवश्यक है।

February 1956

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(राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी का एक भाषण)

मेरा विश्वास है कि कोई भी विचारशील व्यक्ति इस बात से इन्कार नहीं करेगा कि-कोई जाति या राष्ट्र तब तक सफलता से आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक उसे अपनी ऐतिहासिक चेतना का, अपनी मानसिक प्रवृत्तियों, शक्ति और साधनों का यथावत् ज्ञान न हो, क्योंकि ऐसी जाति के व्यक्तियों में किसी भी कार्यक्रम के हुए वह मतैक्य और वह उत्साह नहीं हो सकता जो अब होता है, जब जातीय चेतना के मनोनुकूल और कोई कार्यक्रम हाथ में लिया जाता है। जातीय चेतना से सर्वथा अनभिज्ञ जननायक, जन-शक्ति को प्रगति के लिए प्रयोग में लाने में वैसे ही असमर्थ होगा, जैसे कि जलशास्त्र से सर्वथा अपरिचित कोई व्यक्ति नदी को बाँधकर उसे रचनात्मक कार्यों के लिए प्रयोग करने में असमर्थ होता है।

महात्मा गाँधीजी ने इस सत्य को खूब पहचाना था और उन्होंने भारत में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति का जो कार्यक्रम बनाया था, वह हमारी ऐतिहासिक जातीय चेतना के ठीक ठीक ज्ञान पर ही आश्रित था और इसी हेतु उस कार्यक्रम को यहाँ की साधारण जनता का सहज में ही उत्साहप्रद समर्थन और सहयोग मिल गया था। अतः मेरा यह आग्रह है कि भारत के सुन्दर भविष्य के लिए, उसकी आर्थिक और साँस्कृतिक प्रगति के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि हम अपनी जातीय चेतना को पहचानने का यथोचित प्रबन्ध करें। इस प्रबन्ध का एक प्रमुख अँग संस्कृत अध्ययन के लिए प्रबन्ध करना है, क्योंकि संस्कृत में ही तो अधिकतर वह सामग्री है जिसके आधार पर हम अपने जातीय स्वरूप को यथावत् पहचान और जान सकते हैं।

दान की नदी

उन्होंने कहा—मुझे इस बात का खेद है कि इस दिशा में जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, जितना धन, समय और शक्ति लगनी चाहिए, वैसी न तो व्यवस्था है और न उतना धन, समय और शक्ति हम लगा रहे हैं। एक समय था जब राज्य और समाज दोनों ही संस्कृत के अध्ययन का पोषण करते थे। राज-दरबार में संस्कृत के पण्डितों और कवियों का बड़ा आदर सम्मान होता था और राजा तथा सामन्तगण उन्हें प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए पर्याप्त धेनु, धन और धान्य देते थे। समाज के कार्य से भी संस्कृत का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध था कि वह कोई महत्वपूर्ण कदम उसकी सहायता के बिना उठा ही न सकता था। अतः दान की नदी समाज स्रोत से निकलकर सर्वदा ही संस्कृत पंडितों और आचार्यों का आर्थिक जीवन उर्वर बनाती रहती थी।

उस युग में संस्कृत विद्वानों ने जीवन के हर क्षेत्र में अनिर्वचनीय कार्य किया। विज्ञान, कला, साहित्य इन सबका ही भंडार उन्होंने अपने परिश्रम और प्रज्ञा से भरा। यह कहना अनुचित न होगा कि इन संस्कृत विद्वानों ने भारत को वह ज्ञान और शील-निधि प्रदान की, जो आज भी जगत् भर के लोगों को आश्चर्यचकित कर रही है। किन्तु युग बदला और राज्य का परिश्रय संस्कृत के विद्वानों को न रहा। फिर भी यदि संस्कृत अध्ययन जारी रहा, फिर भी यदि संस्कृत के पंडित भारतीय साहित्य, दर्शन और कला के कोष को समृद्ध करते रहे तो वह इसी बल पर कि समाज से आने वाली दान सरिता तब भी पर्याप्त चौड़ी और गहरी थी और उसके धन-जल से इन पण्डितों का जीवन सिंचता रहता था। किन्तु अभी लगभग दो शताब्दियों पूर्व से समाज की यह दान-सरिता भी कुछ सूखने सी लगी है।

भारत का प्रकाश-स्तम्भ बदला

अँग्रेजी राज्यकाल में शिक्षा की कुछ ऐसी व्यवस्था हुई कि हमारे देश में यह भावना घर करने लगी कि हमारी अपनी ऐतिहासिक परम्पराऐं, संस्कार, रीति रिवाज सब व्यर्थ और हानिकारक हैं और इसलिए उनको छोड़कर विदेशी सभ्यता को अपनाने में ही हमारा कल्याण है। अतः शनैः शनैः संस्कृत विद्वानों और आचार्यों के आर्थिक साधन कम होते गए हैं और वे दरिद्रता के भंवर में डूबते गए हैं। जिस निधि के वे संरक्षक और फैलाने वाले थे, जब उसी के प्रति लोगों के मन में उपेक्षा होने लगी, तो भला यह कैसे हो सकता था कि उन विद्वानों और आचार्यों के प्रति लोगों की आदर-भावना बनी रहे। अतः जो लोग समाज के शिरमौर माने जाते थे, जिन्हें सब लोग पूज्य समझते थे, वे ही समाज में सबसे उपेक्षणीय और परिहास के पात्र समझे जाने लगे। समाज में उन आचार्यों का स्थान लिया अँग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति के पंडितों ने और भारत का प्रकाश स्तम्भ और सूर्य बन गया इंग्लैंड।

इस परिवर्तन का ज्वलन्त उदाहरण यही है कि इस युग में देश की आँखें काशी की ओर न रह कर कलकत्ते की ओर लग गईं। किन्तु इस उपेक्षा और उपहास के युग में भी संस्कृत बनी रही और संस्कृत के विद्वान बने रहे। यह इसीलिए सम्भव हुआ क्योंकि संस्कृत और संस्कृत के विद्वानों ने कभी लक्ष्मी की दासता स्वीकार न की थी। सहस्राब्दियों पूर्व उनके गुरुओं ने यह परम्परा चला दी थी कि सरस्वती के उपासक का धन-धान्य और सम्मान-आदर का मोह न करना चाहिए। उनका तो यह आग्रह था कि चाहे नीति-चतुर प्रशंसा करें अथवा निन्दा, चाहे धन मिले या जाए, आज ही मृत्यु सिर दबा ले अथवा युगभर की डडडडडडडडडडडडडडडडडड धीर लोग धर्मपथ से विचलित नहीं होते। अतः हर प्रकार की उपेक्षा, हर प्रकार की आर्थिक विपत्ति सहकर भी हमारे पंडितों ने संस्कृत को जीवित रखा और उसके भण्डार को भरते रहे।

स्वतन्त्र भारत में भी भय

किन्तु अपने धर्म-निर्वहन के साथ-साथ उनके मन में यह विश्वास भी था कि कभी-न-कभी जमाना करवट बदलेगा और इस देश के, इसकी जनता के, इसके पंडितों और आचार्यों के भाग्य फिर जगेंगे। मैं नहीं कह सकता कि स्वतंत्र भारत में उन्होंने अपने इस विश्वास, इस स्वप्न, इन आशाओं की पूर्ति की झलक देखी है या नहीं, किन्तु मुझे कभी-कभी यह भय होने लगता है कि संभवतः स्वतंत्र भारत में संस्कृत अध्ययन की यह परम्परा कहीं समाप्त न हो जाये।

आज संस्कृत विद्वानों की जो अवस्था है वह वास्तव में शोचनीय है। अभी राज्य ने संस्कृत अध्ययन को परिश्रय देने का भार अपने सिर पर नहीं लिया है। यह ठीक है कि विद्यालयों में संस्कृत अध्ययन के लिये कुछ प्रबन्ध है, किन्तु वह ऐसा नहीं है, जिसे गिनती में लिया जा सके। संस्कृत की जो पाठशालायें और विद्यालय आज तक चल रहे हैं और जिनके द्वारा ही संस्कृत-अध्ययन की परम्परा अब तक बनी रही है, उनकी अवस्था आजकल शोचनीय होती जा रही है। वहाँ से निकले विद्यार्थियों का हमारे आधुनिक जीवन में लगभग न कुछ के बराबर स्थान है और फल यह है कि आज संस्कृत के आचार्य नौकरी करने को तैयार मिलते हैं और फिर भी उनको नौकरी नहीं मिलती।

अश्रद्धा का प्रमाण

संस्कृत विद्या और संस्कृत पठन-पाठन के प्रति हमारी उदासीनता और तज्जनित आर्थिक कठिनाइयों का और उन लोगों में भी जो आज तक हजार कष्ट सह कर और हमारे प्राचीन अदत्त आदर्शों से प्रभावित होकर संस्कृत अध्ययन-अध्यापन में पीढ़ियों से लगे हुये थे, उनके प्रति अश्रद्धा का दूसरा क्या प्रमाण हो सकता है कि काशी जैसे एक पीठ-स्थान में भी कितने ही आचार्यों के वंशज आज उस पैतृक विद्या का आश्रय छोड़कर आधुनिक शिक्षा ग्रहण करके ऊँची तनख्वाह वाली नौकरियाँ ले रहे हैं।

इसलिये हमें जहाँ एक ओर संस्कृत को जीविकोपयोगी विद्या बनाना है वहाँ इसे भी भूलना नहीं कि उसको आज तक जीवित रखने वाले वही धन्य पुरुष हुए हैं जो इसे केवल अर्थोपार्जन का साधन नहीं मानते थे। समाज को भी अपनी ऐसी भूमिका बनानी है जिसमें मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा-संस्कार सभी लक्ष्मी के ही अनुगामी न बनकर सरस्वती के लिये सुरक्षित रहें और लक्ष्मी के लिए धन-जनित शान-शौकत और लाभ कार्य छोड़े रखा जाये।

अतः हम सबको इस बात पर बड़े धैर्य से विचार करना है कि हम क्या उपाय करें, जिनसे संस्कृत का अध्ययन घटने के बजाय देश में और अधिक प्रसृत हो। सर्व-प्रथम तो हमारे सामने यह प्रश्न है कि भविष्य में संस्कृत पाठशालाओं और विद्यालयों के लिए वित्त का कैसे प्रबन्ध हो। अब तक जो इन पाठशालाओं को दानशील रियासतों, जमींदारों और सेठ, साहूकारों से आवश्यक वेत्तिक सहायता मिल जाया करती थी। कुछ तो उनके लिए दान की गई जमींदारियों की आय के सहारे चल रही थीं, किन्तु अब तो जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन का हमने फैसला कर लिया है। अतः इन पाठशालाओं का वह वैत्तिक स्रोत तो शीघ्र ही सूख जायगा। सेठ, साहूकारों से भी मिलने वाली सहायता का भी कुछ ज्यादा दिन के लिये भरोसा नहीं है।

सच तो यह है कि आज राज्य ने इतने अधिक मात्रा में सामाजिक सूत्र अपने हाथ में ले लिये हैं कि यदि राज्य ने संस्कृत अध्ययन के वित्तभार को अपने कन्धे पर न लिया तो वह संभवतः आगे न चल सकेगा। उस दिशा में राज्य सरकारें पहला काम कर सकती हैं। अब समय आ गया है कि वे संस्कृत अध्ययन के लिये आवश्यक वैत्तिक प्रबन्ध करें। जब समाज के सब सम्पत्ति-साधनों को वे अपने हाथों में ले रहीं है तो कोई कारण नहीं है कि वे समाज के उत्तरदायित्वों को अपने सिर पर क्यों न लें। मेरा विचार है कि भारत की राज्य सरकारों का अब यह धर्म है कि वे अपने कोष से संस्कृत अध्ययन के लिये पर्याप्त सहायता देना आरंभ करें।

साथ ही यहाँ उद्योगपतियों को भी अपना यह धर्म मानना चाहिए कि अपने दान का एक अंश विश्व-विद्यालयों में संस्कृत अध्ययन के लिए विशिष्ट पीठियों की स्थापना के लिए लगायें। इंग्लैंड और अमरीका में वहाँ की भाषाओं के प्रमुख कलाकारों और साहित्यिकों की कृतियों और जीवन के अध्ययन के लिए वहाँ के धनिकों ने वहाँ के विश्वविद्यालयों में विशिष्ट पीठियों की स्थापना के लिए पर्याप्त दान दिया है। मैं समझता हूँ कि हमारे यहाँ के धनिक वर्ग को भी ऐसा ही करना चाहिए।

सहस्राब्दियों से संस्कृत का आधार-तल और पृष्ठभूमि वह अध्यात्मवाद रहा है जो भारत की मानवता की देन है। सहस्राब्दियां व्यतीत हो गई जब भारत में प्रथम बार इस विश्वास का जन्म हुआ कि इस जगत् की हर प्रकार की विपत्ति, बाधाओं, कमियों और कठिनाइयों से मानव तब तक मुक्ति नहीं पा सकता जब तक कि उसका जीवन सत्य की उपासना, सेवा का अटल व्रत और न्याय की अविचल निष्ठा नहीं बन जाता।

इन आदर्श को कृष्णार्पण का नाम दिया अर्थात् व्यक्ति जो कुछ भी करे वह उस श्रद्धा से और इच्छा से करे कि वह यह समस्त विश्व और उससे भी परे विश्वात्मा की प्रसन्नता के लिए कर रहा है, केवल अपनी इन्द्रियों के सन्तोष के लिये नहीं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि व्यक्ति अपने साँसारिक कर्तव्यों को परित्याग करके किसी जंगल में जा बैठे। इसका केवल यही अर्थ था कि वह अपना कोई भी साँसारिक काम अपनी स्वार्थ बुद्धि से न करे वरन् इस विचार से करे कि यही विश्वात्मा की इच्छा के अनुकूल है और वैसा ही करके वह अपने अहं की कैद से छूटकर अपने सच्चे विश्व स्वरूप को पहचान सकता है। इसी आदर्श को हमारे कवियों ने अपने काव्यों में बुना है, हमारे साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में दर्शाया है। पुराण इसी का गुणगान करते हैं और दर्शन भी इसी से प्रभावित हैं। वास्तव में यह कहना अनुचित न होगा कि यह आदर्श हमारी जातीय अनुभूति के ताने बाने में बुना हुआ है। सम्पूर्ण संस्कृत वांग्मय का प्राण और प्रेरणा यही आदर्श है। संस्कृत नाटक, संस्कृत आख्यान और कथायें संस्कृत महाकाव्य, संस्कृत शास्त्र, संस्कृत विज्ञान सर्वत्र ही इसका साम्राज्य है। अतः यह स्पष्ट है कि संस्कृत साहित्य का विद्यार्थी इस आदर्श से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

मेरा विचार है कि जगत् को हम जो सबसे बड़ी देन दे सकते हैं, वह यही आदर्श है और यह देन हम तब ही दे पायेंगे जब न केवल हमारी भूमि और हमारे औद्योगिक यंत्र विशाल धन धान्य की सरिता के ही स्रोत बन गये होंगे, वरन् उनमें कार्य करने वाले श्रमिक और कृषक भी इसी आदर्श से प्रेरित होंगे। उस स्वर्णिम युग की स्थापना के लिए हमें अनर्थक परिश्रम करना है और अनेक प्रकार के आयोजन करने हैं। किंतु इन सब प्रयासों और आयोजनों की महत्त्वपूर्ण शर्त यह है कि शिल्पिक-शिक्षा और आध्यात्मिक शिक्षा की खाई पट जाये। संस्कृत वह सेतु है जो इस खाई को पाटता है और इसी दृष्टि से आधुनिक जगत् में उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।


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