धन का महत्व

August 1950

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(श्री स्वामी सत्यभक्त जी)

जीवन निर्वाह के लिये जिस जिस सामग्री की जरूरत पड़ती है वह धन है। इसलिये हमें धन की सख्त जरूरत है पर आज जीवन के लिये धन नहीं रह गया है धन के लिए जीवन हो गया है। हर आदमी जीवन खोकर, भाईचारा खोकर, सुख शान्ति खोकर, ईमान खोकर जिस किसी भी तरह धन कमाने के पीछे पाग बना फिरता है। पर इससे दुनिया में धन नहीं बढ़ा, धन का नशा बढ़ा, धन का पागलपन बढ़ा। इससे दुःख बढ़ा अशान्ति बढ़ी, बैर और घमण्ड बढ़ा क्रूरता बढ़ी बेईमानी बढ़ी, और हमारी शैतानियत बढ़ी। मनुष्य धन न खा सका धन ने मनुष्य को खा लिया।

यह ठीक है कि धन के बिना हमारा काम नहीं चल सकता। थोड़ा बहुत धन तो हमें चाहिये ही, पर जितना चाहिये उसी के पीछे यह सब अनर्थ नहीं हो रहा है, अनर्थ वे ही लोग करते हैं जिनके पास चाहिये से अधिक धन है। आखिर सवाल होता है कि ‘चाहिये’ से अधिक धन का लोग क्या करते हैं क्यों मनुष्य उसके पीछे पागल हो रहा है।

मनुष्य को रोटी चाहिये कपड़ा चाहिये रहने को मकान चाहिये, यहाँ तक किसी की धन लालसा हो तो वह ठीक कही जा सकती है। पर देखा जाता है कि इनकी पूर्ति होने पर भी मनुष्य अपने को दीन समझता है और उनके सामने गिड़गिड़ाने को तैयार हो जाता है जिनके सामने झुकने को उसका अन्तरात्मा तैयार नहीं होता। वह सदाचारियों जन सेवकों और गुणियों को इतना महत्व नहीं देता जितना अपने से अधिक धनियों को। इसलिये प्रत्येक मनुष्य धन संग्रह की ओर बढ़ता चला जा रहा है। उतने धन की आवश्यकता है या नहीं इसका विचार वह नहीं करता क्योंकि जीवन के लिये जरूरत हो या न हो किन्तु महान बनने के लिये तो जरूरत है ही। मनुष्य में महान कहलाने की लालसा तीव्र से तीव्र है। और महत्ता का माप धन बन गया है इसलिये मनुष्य धन के पीछे पड़ा हुआ है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। अगर दुनिया में धन से महत्ता मिलेगी तो लोग धन की तरफ झुकेंगे, अगर गुण सेवा सदाचार आदि से मिलेगी तो उसकी तरफ झुकेंगे।

मनुष्य को महान बनना चाहिये और दुनिया को महान बनने वालों की कद्र करनी चाहिये। पर धन और अधिकार से महान बनने वालों की कद्र करना समाज के कष्टों का बढ़ा लेना तथा सच्चे सेवकों को नष्ट कर देना है। किसी आदमी की कद्र करने का अर्थ ही यह है कि वह समाज की ऐसी सेवा कर रहा है जिसका बदला हम भौतिक दृष्टि से नहीं चुका पा रहे हैं इसलिये उसे महान कहकर उसका आदर यश बढ़ा कर हम बदला देना चाहते हैं। इसलिये जिस मनुष्य की जितनी निस्वार्थ जनसेवा हो उसी अनुरूप उसे महान मानना चाहिये।

आज जनता महत्ता की यह परिभाषा भूली हुई है वह समझती है कि जिसने किसी भी तरह धन पैदा कर लिया वह महान है और उसकी हमें इज्जत करनी चाहिये। जो जितने विलास का प्रदर्शन कर सकता है वह उतना ही महान है इसलिये हमें उसकी इज्जत करना चाहिये। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोग धन और विलास की तरफ झुकते हैं। सच्ची सेवा सदाचार और गुण नष्ट होते जाते हैं।

किसी जमाने में अधिक सेवा के बदले में अधिक धन को देखकर उसकी वास्तविक महत्ता का अंदाज बाँधना भी ठीक रहा होगा पर वह समय हमारी कल्पना का ही विषय है, इतिहास के पन्नों में वह नहीं दिखाई देता। आज तो सैकड़ों हजारों में ऐसा एकाध आदमी होता है जो अपनी वास्तविक सेवा या महत्ता के कारण धनी बना हो। अधिकाँश धनी तो बाप दादों की जायदाद से धनी बने हैं या सट्टे से, या किसी बेईमानी से या अकस्मात् किसी की सम्पत्ति हाथ आ जाने से, या दम्भ ठगी आदि से धनी बने हैं। उनके इन कामों से जगत का नुकसान ही हुआ है। ऐसे हाल में उन्हें किसी तरह महत्व क्यों दिया जाए? उन्हें महान क्यों माना जाए?

हाँ, हर एक तरह के विनिमय का आधार धन ही है इसलिये धनी महत्ता खरीद सकता है। आप गुणी सेवक होने पर भी धूल फाँकते हुए पैदल चलते हो और वह आपकी बगल से सर्राटे से चमचमाती मोटर से निकल जाय, आप थर्ड क्लास में सिकुड़ कर बैठे हों और वह फर्स्ट क्लास में आराम से लेटा हुआ हो, आप सादा भोजन कर रहे हो और वह तरह तरह की स्वादिष्ट चीजें उड़ा रहा हो, आप अपने घर में झाडू लगाते हों और वह नौकरों से सब काम कराता हो इस प्रकार के अन्तर से वह आप पर महत्ता की छाप मार रहा हो यह सब हो सकता है पर इन सब बातों से आप में दीनता पैदा न होनी चाहिये। जब आप जानते हैं कि दुनिया में सौ में निन्यानवे लोग अयोग्य होने पर भी, जन सेवक न होने पर भी, दम्भ अनीति बेईमानी शोषण आदि से धनी बन जाते हैं तब आपमें दीनता का क्या कारण है? पाप, आलस्य, मूर्खता आदि ही दीनता के कारण कहे जा सकते हैं। अगर आपमें ये नहीं है तो आप दीन नहीं हैं और अगर आप दुनिया की उपयोगी सेवा करके उसका बदला धन से पूरा नहीं ले रहे हैं तो आप महान हैं। फिर भले ही आप थर्ड क्लास में सफर करें, झोपड़ी में रहें, साधारण भोजन करें, घर के छोटे मोटे काम अपने हाथ से करें। इन बातों से आपमें किसी तरह की दीनता न आनी चाहिये। न आप खुद को दीन समझें न आप धन और विलास देख कर किसी को महान समझें। जब आपका दृष्टिकोण बदल जायगा और धीरे-धीरे जब समाज का दृष्टिकोण भी बदल जायेगा तब व्यक्तियों का झुकाव धन संग्रह की तरफ इतना न होगा जितना सदाचार परोपकार तथा गुणों की तरफ होगा। इस प्रकार दुनिया से पाप और दुःख की जड़ उखड़ जाएगी।

धन और धनियों के बारे में आपको अपना विचार व्यवहार और शिष्टाचार सुधारना चाहिये इससे इस पाप के उखड़ने में काफी मदद मिलेगी। इस विषय की कुछ सूचनाएं यहाँ दी जाती हैं।

1-किसी भी धनवान को देखकर यह न सोचिये कि वह महान है। अगर वह वंश परम्परा से धनवान है तब तो यही सोचिये कि इसमें उसकी कोई बहादुरी नहीं है, यह तो उत्तराधिकारित्व सम्बन्धी सामाजिक पाप का परिणाम है इसमें उत्तराधिकारी की योग्यता से कोई मतलब नहीं! अगर पूँजीवाद के कारण धनवान है तो यह सोचिये कि यह भी समाज के पाप का परिणाम है। अगर विद्या कला आदि के कारण यह धनी है तब यह सोचिये कि यह तो अकस्मात् की बात है, नहीं तो सैंकड़ों विद्वान और कलाकार मारे मारे फिरते हैं, अकस्मात् अगर किसी को विद्या कला के कारण अन्य विद्वानों और कलाकारों से अधिक प्राप्ति हो गई है तो इसी से वह अन्य विद्वानों आदि से महान नहीं हो सकता, सम्भव है इस ऊपरी सफलता के लिये उसने दम्भ आदि से काम लिया हो, ईमानदारी की हत्या की हो, ऐसी हालत में उसे महान कैसे कह सकते हैं?

2-जो विद्वान कलाकार किसी धनी के आश्रित हैं और इससे कुछ विलास कर रहे हैं इससे उन्हें महान न समझिये। क्या कुत्ते भी धनियों के साथ उनकी मोटर में बैठकर नहीं निकलते?

3-सैंकड़ों में एकाध के हिसाब से ऐसे भी धनी हैं या हो सकते हैं तो धन का घमण्ड नहीं दिखाते, जरूरत होने पर सेवा के लिये गरीबों असहायों की झोंपड़ी में आते हैं, दम्भ नहीं करते, विलास का प्रदर्शन नहीं करते, सम्पत्ति जगहित के काम में लगाते हैं, नम्र रहते हैं, उनकी प्रशंसा उन के धनी होने के कारण न कीजिये किन्तु उनके गुणों के कारण कीजिये! सदा गुणों को ही महत्व दीजिए! ऐसे आदमी अगर लखपति हैं तो उनकी इज्जत साधारण करोड़पतियों से भी अधिक कीजिये।

4-दानी का सम्मान करते समय सिर्फ यह न देखिये कि उसने कितना दान किया है किन्तु यह देखिये कि उसने अपनी सम्पत्ति का कौन सा हिस्सा दान किया है, सेवा और जनहित की दृष्टि से किया है या आत्मश्लाघा के लिये?

5-धन विनिमय का आधार बना हुआ है, धनी आदमी हर तरफ धन के द्वारा मनचाही चीजें ले लेता है इसलिये उसका ध्यान रखने की जरूरत नहीं है, जरूरत है उनका ध्यान रखने की जो अपनी सेवाएँ आर्थिक विनिमय के बिना या उसका ख्याल रखे बिना देते रहते हैं। वे समाज के सच्चे साहूकार हैं, यश आदर सुविधाएँ देकर समाज को उनका ऋण चुकाना चाहिये। और आपको भी ऋण चुकाने में हिस्सा लेना चाहिये।

6-श्रम को नीची नजर से न देखिये। एक श्रीमान् ने नौकर के हाथ से गुलाब के फूल मिला हुआ शरबत पिला दिया इसकी अपेक्षा अपने हाथ से मामूली पानी पिलाने वाले का आदर अधिक कीमती है इसे आप ऊँची निगाह से देखिये। श्रम विभाजन की बात दूसरी है घर में श्रम का बटवारा होने से किसी को कोई एक श्रम करना पड़ता हो किसी को कोई दूसरा श्रम, इसमें कोई हर्ज नहीं, पर कोई इस बात की शेखी मारे कि मुझे मेहनत नहीं करनी पड़ती इसलिये मैं महान हूँ तो उसे महान न समझ कर हरामखोर समझिये।

7-सदाचारी, गुणी, परोपकारी आदि का जितना विनय आप करते हैं उससे अधिक या इतना विनय धनी का कदापि न कीजिये। हाँ! धनी है उपयुक्त गुण हैं तो गुणी की हैसियत से सम्मान करना उचित ही है।

8-धनियों में इस बात का विवेक रखिये कि किसने किस तरह धन कमाया है। बेईमानी विश्वासघात दुराचार आदि से धन कमाने वाले धनी की अपेक्षा उस छोटे धनी को अधिक महत्व दीजिये जिसने इस प्रकार पाप नहीं किये हैं।

9-धन के ही कारण जो लोग सार्वजनिक सेवा क्षेत्र के या राजनैतिक क्षेत्र के पद हथिया लेते हैं उनका विरोध कीजिये। धनियों को राजनैतिक पदों पर नियुक्त न होने दीजिये। वे पद विद्वान सत्सेवकों के लिये निश्चित करने की कोशिश कीजिये धनियों के पास धन ही काफी बड़ी शक्ति है और संभव है कि अगर उनके हाथ में ब्राह्मण (विद्वान) और शासक की सुविधा भी आ जाए तो शैतानियत और हैवानियत का नंगा नाच होने लगे। इससे बचने बचाने की यथाशक्ति कोशिश कीजिये।

10-स्वार्थ की दृष्टि से नहीं किन्तु परमार्थ की दृष्टि से आप अपना व्यवहार शिष्टाचार आदि ऐसा बनाइये जिससे मालूम हो कि आप धनी की अपेक्षा सदाचारी परोपकारी गुणी की अधिक इज्जत करते हैं।

आज धन का मनुष्य के ऊपर भयंकर आक्रमण हो रहा है। इसके लिये धनियों की निन्दा करने की जरूरत नहीं है। यह मनुष्यमात्र की या समाज की कमजोरी है। जो गरीब हैं वे भी धन में और विलास में महत्ता देखते हैं उसी की तरफ झुकते हैं, इसका परिणाम यह हुआ है कि सत्य अहिंसा, सेवा, सदाचार, विद्या, कला आदि सभी लक्ष्मी के द्वारा कुचले जा रहे हैं। इससे मनुष्य, मनुष्य का घातक बन गया है और जब तक हम धन को महत्ता देंगे तब तक ऐसा होगा ही। समाज को धन की कद्रदानी घटानी होगी। दूर करनी होगी। तब मनुष्यता की हत्या होने से बचेगी। समाज एक दिन में एक साथ तो यह करेगा नहीं, वह तो एक-एक व्यक्ति को धीरे-धीरे हटानी होगी, सो उस के लिये हर एक व्यक्ति को तैयार होना चाहिये।


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