‘अपनत्व’ का प्रसार

August 1950

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(ले. श्री चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु)

सर्वं भूतात्मात्मानं सर्वभूतानि चीत्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः

(गीताः 629)

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यतियोऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमा मतः॥

(गीताः 6-32)

अर्थ- जो योगयुक्त पुरुष हैं, वे सर्वत्र समदर्शी होते हैं। वे सब प्राणियों में अपने को और सब प्राणियों को अपने भीतर देखते हैं।

(गीता 629 )

हे अर्जुन? जो दूसरों के दुःख और दूसरों के सुख को अपने ही दुख सुख की तरह जानकर सबको समता की दृष्टि से देखता है वही उत्तम और श्रेष्ठ योगी है।

(गीता 632)

संसार में अशाँति किस लिए है? महायुद्ध क्यों होता है? उसकी भयंकर लपटों से पृथ्वी क्यों भस्म हुई जा रही है? कोटि-कोटि मानव-प्राणियों का विनाशक शस्त्रों द्वारा महासंहार क्यों हो रहा है? माता धरित्री मानव-रक्त से रंजित क्यों हो रही है शत-शत वर्षों के अनवरत परिश्रम और प्रयत्न एवं अरबों-खरबों रुपयों के व्यय से जिन सुन्दर, दर्शनीय और रमणीय नगरों का निर्माण हुआ था, वे आज घंटों और दिनों में भस्मसात और विध्वस्त क्यों किये जा रहे हैं? अरबों-खरबों मूल्य की पोत संपत्ति अगाध सागर में क्यों डुबोई जा रही है? सुशिक्षित और सुसभ्य मानव आज बर्बर महा पशु क्यों बन रहा है? कारण यह है कि वह दूसरों को अपने से भिन्न समझता है।

पीछे की ओर देखिए। कौरव पाँडवों के संग्राम का प्राकृतिक कारण क्या था? पृथ्वी राज और जयचंद की कलह का हेतु क्या था? कौरव समझते थे कि पाँडव हमसे भिन्न हैं, जयचंद समझते थे कि पृथ्वीराज हमसे भिन्न हैं। कौरवगण पाँडवों को तथा जयचंद पृथ्वीराज को यदि अपना समझ सकते, तो कुरुक्षेत्र और पानीपत के सर्वनाशी युद्ध कदापि नहीं होते। इतिहास के पन्ने अपने वक्षस्थल में अंकित पंक्तियों द्वारा हमें पद-पद पर चेतावनी देते हैं कि मनुष्यों तुममें, अपनत्व का भाव नहीं है घटनायें आज की हों या प्राचीन, जातीय हों वा व्यक्तिगत, देशगत हों या समाजगत, राष्ट्रगत हों वा वंशगत सारी कलह, सारे क्लेश, विद्वेष और विनाश के कारण का यदि हम अनुसंधान करते हैं, तो हमारी आँखों के आगे मूर्तिमान हो जाता है, ‘अपनत्व का संकोच।

यदि किसी प्रकार ‘आपको’ हम ‘अपने आप, समझ सकते , तो क्या कभी हम आप के साथ विद्वेष या शत्रुता का व्यवहार कर सकते? कदापि नहीं ‘आपको’ हम अपने से ‘भिन्न’ ज्ञात करते हैं, यह कारण है कि हम आपसे स्नेह नहीं करते, आप पर विश्वास नहीं करते, आपके साथ सुन्दर व्यवहार नहीं करते। जरा सोचिए छल, वंचना, कपट, विद्वेष, दंभ, दोहन, शोषण, लूट-मार, हत्या आदि के बाहुल्य का कारण क्या है? एक वाक्य में समस्त अशाँति और सारे दुःखों का मूल कारण है ‘अपनत्त्व का संकोच तथा समस्त शाँति सुख-चैन का हेतु है अपनत्व का प्रसार।

हमारा पड़ोसी धनवान हो गया और हम दरिद्र हो गये, हमारे मन में द्वेष पैदा हो गया। क्यों द्वेष उत्पन्न हुआ? इसलिए कि पड़ोसी को हम अपना नहीं समझते। हम उसे अपने से भिन्न समझते हैं इसलिए उसका सुख भी हमारा सुख नहीं हो सकता वरन् हमारी डाह का कारण बन जाता है। प्रतिदिन हमारे सामने दुर्भिक्ष, भूकम्प, जल-प्लावन, महामारी इत्यादि विनाशकारिणी विपत्तियाँ आती हैं जिनसे सहस्र-सहस्र नर-नारियों का जीवन नष्ट हो जाता है, किन्तु उसके लिए हमारा हृदय रोता नहीं। हम उसी समय नाच, गाना, नौटंकी, सिनेमा आदि में अपना मनोविनोद करते हैं, रामलीला और कृष्णलीला की आड़ में मेले का सुख लूटते हैं। दीन-दुखियों के आर्तनाद से आकाश कंपायमान हो रहा है, पर हम टस से मस नहीं होते। हम सोचते हैं, उनमें हमारा कौन है? मरने वालों को रहने दो, हम क्यों अपना सुख छोड़ें? अपना मजा क्यों किरकिरा करें? कारण, हमारा अपनत्व हमारे शरीर में परिसीमित है। हमारे परिवार में परिसीमित है और बहुत हुआ तो हमारी जाति में परिसीमित है।

भारतीय संत महात्मा और ऋषि-मुनियों ने एक मत होकर घोषित किया था, अहंभाव को ध्वंस कर दो, सब सुख और शाँति फैल जायेगी। पूजा-पत्री, तीर्थ व्रत, यज्ञ-होम करो, या न करो, धर्म का ध्येय है ‘अहंत्व’ अहंकार-मममार’ का ध्वंस। यही ज्ञान का चरम है, यही वेदाँत है, इसी बात को हम ‘व्यवहारिक वेदाँत की दृष्टि से कह सकते हैं, अहंभाव का प्रसार कर दो, बस सुख और शान्ति का प्रसार हो जाएगा। परमहंस स्वामी रामतीर्थजी अथवा स्वामी विवेकानन्द जी ने अमेरिका और योरोप को यही सन्देश दिया था। यही भारत का दिव्य और अमर ज्ञान है। यही उसकी जगद् गुरुता का महान् गौरव है यही उपनिषदों के एकात्मवाद का वैज्ञानिक निष्कर्ष है। विश्व के समस्त प्राणियों के साथ अपनी अहंता का संप्रसार कर दो। विश्व में-अनन्त में अपने आपको लय कर दो।

वस्तुतः यदि अहंभाव का ध्वंस हो जाय तो आप में और हममें कोई भेद न रह जाय। शब्दाँतर में यदि अहंभाव का संप्रसार हो जाय तो भी हमारा आपस का सारा भेद मिट जाय। इसलिए अहंता का ध्वंस अथवा अहंता का प्रसार दोनों एक ही वस्तु हैं। हमारा अहंभाव जब तक हमारे भीतर संकुचित सीमाओं से आबद्ध है, तभी तक वह दुष्ट ‘अहंकार’ है, जो अज्ञान के कारण है। एक छोटी सी बात पर ध्यान दीजिए। हमारे देश में अब तक संपत्ति व्यक्तिगत है। प्रत्येक व्यक्ति अथवा प्रत्येक परिवार की संपत्ति अलग-अलग है। किंतु चीन और रूस में संपत्ति का राष्ट्रीकरण हो गया है, अर्थात् देश की सारी व्यक्तिगत संपत्ति राष्ट्र की संपत्ति हो गई है, इसका परिणाम यह हुआ है कि अब उन देशों का प्रत्येक व्यक्ति सारे राष्ट्र की हानि-लाभ को अपना ही हानि-लाभ समझने लगा है।

व्यवहारिक वेदाँत की भाषा में हम कह सकते हैं कि इस साँपत्तिक राष्ट्रीयकरण के फल से वहाँ के लोगों का अहंभाव संप्रसार होकर राष्ट्रगत है। सुगंभीर दार्शनिक मीमाँसा यदि इस समय छोड़ दी जाय, केवल स्थूल दृष्टि या लौकिक सामाजिक-भाव से ही इसे देखा जाए, तो भी आप देखेंगे कि हमारा आपका जीवन इतने घनिष्ठ संबंधों से संबद्ध है कि जब तक आप हमें या हम आपको अपना आत्मीय नहीं मान लेते, तब तक पारस्परिक अथवा लौकिक सुख की आप प्रत्याशा नहीं कर सकते। यह बात एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगी।

आप धनवान् हैं। आपको कालरा हो गया। आपने डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने बढ़िया इलाज किया। आप अच्छे हो गये। दूसरा भाई दरिद्री है। उसे भी कालरा हुआ, किन्तु उसके पास कोई चिकित्सक नहीं आया। वह कालरा से मर गया। किसी को उसकी खबर न हुई। उसकी मृत-देह का विषूचिका-विष चारों ओर व्याप्त हो गया। आपने उस दरिद्र भाई को तुच्छ और नगण्य समझकर घृणा-पूर्वक उसका परित्याग अवश्य किया, किन्तु उसके शरीर से वायु में व्याप्त होकर चारों ओर धावमान होने वाले कालरा के विषाक्त कीटाणुओं का आप परित्याग नहीं कर सकते। वे आप पर और आपके निवास-स्थान के बहुत से लोगों पर आक्रमण करेंगे, बाजार की खाने-पीने की चीजों में घुस जाएंगे। इसके विपरीत यदि आप उस गरीब को अपना आत्मीय समझकर उसकी चिकित्सा और उसकी सुरक्षा करते, और उसे चंगा कर लेते, अथवा उसके मृत-शरीर का अंतिम संस्कार कर देते, तो संभवतः इन व्याधियों से आप सुरक्षित रहते।

फलतः आप यदि अपने को ही स्वस्थ रखने का विचार करें, तो भी आप अकेले नहीं रह सकते आपको दूसरों को भी स्वस्थ रखने का उपाय करना पड़ेगा। “जग भले से भला” यह एक साधारण उक्ति है। इस लोकोक्ति के अर्थ का रहस्य ‘अहंभाव या अपनत्व के संप्रसार’ में निहित है। अहंता का विस्तार करने से ही आप सुखी रह सकते हैं। तो बात एक पड़ोसी के संबन्ध में है, वही ग्राम, देश, महादेश और समस्त भूमंडल के संबन्ध में कही जा सकती है।

वेदाँत दावे के साथ कहता है कि द्वैत में भय है। द्वैत का भाव-मात्रा भय है। राग और द्वेष का मूल कारण द्वैत है। द्वैत बंधन है, द्वैत मोह है, द्वैत शोक है, द्वैत दुःख है, और द्वैत अशाँति है। जब तक द्वैत है, जब तक संघर्ष अनिवार्य है। द्वैत को एक क्षण के लिए स्थान देना मानो शोक और भय को निमंत्रण देना है। द्वैत में अवस्थान करना मानो बंधन में, मोह में, शोक में, दुःख में और अशाँति में निवास करना है। द्वैत हमारी दुर्बलता है, दीनता है, अज्ञान है और विनाश है। द्वैत अज्ञान है और द्वैत ही अंधकार है। जब तक द्वैत रूपी दैत्य का विनाश नहीं हो जाता, हमारे भीतर प्रज्ञा का प्रकाश नहीं हो सकता। इस द्वैत-रूपी दैत्य के नाश का साधन है अहंता का ध्वंस अथवा ‘अपनत्व का संप्रसार’। अद्वैत ही प्रकाश है वही अभय पद है और वही मोक्ष या निर्वाण है। ईशावास्य उपनिषद् में स्पष्ट लिखा है-

श्यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आ मैवाभूत विजानतः।

तत्रा को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥ (7)

अर्थ-जिस समय मनुष्य सब प्राणियों को अपना ही आत्मा ज्ञान लेता है, उस समय उस एकता का अनुभव करने वाले के लिए न किसी प्रकार का मोह, या अज्ञान रहता है, और न कोई शोक रहता है।


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