निष्पाप बनने की प्रेरणा

August 1950

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भर्गो वेति पदं च व्याहरति वै,

लोकः सुलोको भवेत्।

पापे पाप विनाशने त्वभिरता,

दत्तावधानों वसेत्॥

दुष्टवा दुष्कृति दुर्विपाक निचयं,

तेभ्यो जुगुप्सेद्धि च।

तन्नाशाय विधीयताँ च सततं,

संघर्ष मेभिः सहः॥

अर्थ-“भर्गः” यह बताता है कि मनुष्यों को निष्पाप बनना चाहिए। पापों से सावधान रहना चाहिए। पापों के दुष्परिणामों को देखकर उनसे घृणा करे और निरन्तर उनको नष्ट करने के लिए संघर्ष करता रहे।

गायत्री का चौथा पद “भर्गो” मनुष्य जाति के लिए एक बड़ी ही महत्वपूर्ण शिक्षा देता है। वह शिक्षा है-निष्पाप होना। पाप का अर्थ है बुराई, बुराई-माने वे कर्म जो करने योग्य नहीं हैं। इस दृष्टि से वे सभी शारीरिक मानसिक क्रियायें पाप की श्रेणी में आ जाती हैं जिनसे मनुष्य के व्यक्तिगत या सामूहिक जीवन में दुष्परिणाम उत्पन्न होते हैं।

जिन कामों को करने से शरीर का अनिष्ट होता है वे शारीरिक पाप हैं। स्नान न करना, गन्दे वस्त्र पहने रहना, अधिक खाना, बासी, बुसा, जल्दी-2 निगल लेना, हानिकारक चटोरी चीजों पर मन चलाते रहना, रात को जागना, अधिक वीर्यपात, अनियमित स्वास्थ्य विरोधी दिनचर्या आदि को शारीरिक पाप माना जायेगा। ईर्ष्या, डाह, द्वेष, कुढ़न, संताप, चुगलपना, तृष्णा, चिन्ता, क्रोध, शोक, निराशा, उद्वेग, चंचलता, कायरता आदि मानसिक पाप हैं। चोरी, आलस्य, उत्तरदायित्व से विमुख होना, व्यभिचार, शोषण, झूठ, छल, विश्वास घात, उद्दंडता, निष्ठुरता, स्वार्थपरता, देशद्रोह आदि सामाजिक पाप हैं। अनुदारता, संकीर्णता, सर्वत्र बुराई ही बुराई देखना, निराशा, आत्महनन, आत्महीनता, भयभीत रहना, अन्धपरम्परा आदि आत्मिक पाप हैं। कारण स्पष्ट है। इन पापों का अवलम्बन करने से अपनी शक्ति क्षीण होती है, विरोधी बढ़ते हैं, अशान्ति में वृद्धि होती है, समाज में गड़बड़ पड़ती है, फलस्वरूप इस के मार्ग पर चलने वाला निर्बल, दरिद्र, घृणास्पद, निंदनीय बन जाता है दूसरों के अविश्वास, असहयोग एवं विरोध के कारण उसे क्षति उठानी पड़ती है। प्राकृतिक एवं ईश्वरीय नियमों के आधार पर उसे आकस्मिक विपत्तियों का कष्ट भी भोगना पड़ता है।

पाप का फल दुख होता है, इस बात को साधारणतः सभी लोग जानते हैं फिर भी बहुत कम लोग ऐसे हैं जो पापों से बचने का प्रयत्न करते हैं। दुखों से लोग डरते हैं पर दुखों के कारण पाप को नहीं छोड़ते। यह ऐसा ही है जैसे कोई अग्नि तो हाथ पर रखे पर झुलसने से बचना चाहे। देखा जाता है कि अधिकाँश मनुष्य ऐसी ही बाल क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं। दुख चाहता हो, कष्ट और विपत्ति की यातना सहना चाहता हो, ऐसा कोई मनुष्य शायद ही मिलेगा। जो लोग धर्म की तपश्चर्या परमार्थ लाभ के लिए कष्ट सहते हैं वे किसी बड़े आत्मिक सुख की तुलना में छोटे साँसारिक कष्ट को ग्रहण कर लेते हैं वे भी वस्तुतः सुख की आकाँक्षी ही है।

महर्षि व्यास ने लोगों की इस मूर्खता पर आश्चर्य प्रकट किया है कि वे दुख को न चाहते हुए भी पाप करते हैं। पाप के अतिरिक्त भी दुख का कोई अन्य कारण हो सकता है पर यह निश्चित है कि पाप की प्रतिक्रिया दुख के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती। बुरे कर्म का फल बुरा ही होगा भले ही वह आज हो या कल। इतना होते हुए भी लोग पाप करने से बाज नहीं आते, इसका कारण वह भूल है जिसे शास्त्रीय भाषा में माया, भ्रान्ति, अविद्या, असुर्या आदि नामों से पुकारा जाता है।

भगवान ने एक ऐसी आँखमिचौनी का, भूलभुलैयों का खेल रच दिया है जिसमें कितने ही व्यक्ति बुरी तरह भ्रमित हो जाते हैं। वह खेल है कर्म का फल, तुरन्त न मिलना। यदि चोर का हाथ सूज जाता, झूठ बोलने वाले की जीभ में दर्द होने लगता, व्यभिचारियों की इंद्रियाँ नष्ट हो जातीं। कुदृष्टि डालने वालों की आँखें फिर जातीं, आलसियों को लकवा मार जाता, बेईमानों का धन कोयला बन जाता, कुमार्गगामी लंगड़े हो जाते, अभक्ष्य खाने वालों के पेट में फोड़ा निकल आता और यह सब परिणाम तत्क्षण उपस्थित हो जाते तो कोई भी इन बुराइयों को करने के लिए तैयार न होता। तब सभी लोग पूर्ण धर्मावलम्बी होते। परन्तु लीलाधर की लीला तो देखिए! उन्होंने कर्म और फल दोनों को अटूट रज्जुओं में बाँध कर भी इतना दूर-दूर रखा है कि स्थूल बुद्धि का आदमी उन दोनों की घनिष्ठता को देख नहीं पाता सोचता है कि यदि आज कर्म का फल नहीं मिला तो संभव है कभी न मिलता हो। दूसरी बात यह कि पाप कर्मों में तात्कालिक आकर्षण और लाभ होता है जिनका लोभ संवरण करना बालबुद्धि के लिए कठिन होता है। इसके विपरीत पीछे आनन्द देने वाले सत्कर्म आरंभ में कष्टसाध्य प्रतीत होते हैं। इन दो पक्षों में से किसे चुनें, किसे न चुनें यह निर्णय करना साधारण बुद्धि का काम नहीं है। अक्सर चिकनाई पर पैर फिसल जाता है। तात्कालिक आकर्षण के लोभ में दूरवर्ती स्थायी सुख की उपेक्षा कर दी जाती है और क्षणिक लाभ के उपरान्त दीर्घकाल तक व्यथित करने वाली पीड़ा को अपना लिया जाता है। मंदबुद्धि पशु पक्षी जब जरा से चारे के लोभ में वधिक के जाल में पड़ कर जिस प्रकार दुख पाते हैं वैसे ही लोभ ग्रस्त मनुष्य पाप के फंदे में गला फंसा बैठते हैं और पीछे असहनीय यातनाएं भोगते रहते हैं।

भगवान ने यह खेल मनुष्य की बुद्धि परीक्षा के लिए रचा मालूम होता है। आँखमिचौनी के खेल में बालकों को काफी सूक्ष्म बुद्धि से काम लेना पड़ता है। भूलभुलैया में से बाहर निकलने के लिए भी काफी बारीकी से सोचना पड़ता है अन्यथा उलझन से बाहर निकलना कठिन हो जाता है। मनुष्य को इच्छित कर्म करने की, पाप और पुण्य में चाहे जिसे चुनने की स्वतंत्रता देकर प्रभु ने उसे ऐसे चौराहे पर खड़ा कर दिया है जहाँ उसकी कठिन परीक्षा होती है, होनी भी चाहिए। स्वतंत्रता के साथ विवेक और उत्तरदायित्व भी आवश्यक है, अविवेकी और गैर-जिम्मेदार लोग स्वतंत्रता को बंधन में बदल लेते हैं। इस परीक्षा में पास हो जाना, भ्रान्ति के चक्कर से बच जाना, प्रलोभन में न पड़कर दूरदर्शिता से काम लेना, यही तो बुद्धि चातुरी का प्रमाण है। जो व्यक्ति अपनी चातुरी का ऐसा प्रमाण देते हैं वे स्वर्गीय सुख का, आत्मानंद का, पूर्ण स्वतंत्रता का, जीवन मुक्ति का, आनन्द लाभ करते हैं। जो भूलते हैं वे दुख दारिद्रय की चपत और दुत्कार सहते हैं।

इस भूल से बचने के लिए ही गायत्री का चौथा शब्द “भर्गः” है। भर्गः- अर्थात् निष्पाप। यह शब्द हमें सचेत करता है कि यदि आपत्तियों से बचना है तो पाप रूपी सर्प से सावधान रहना चाहिए कोई लोग सोचते हैं कि धर्म का, पुण्य का आचरण बड़ा कठिन है। यह मान्यता ठीक नहीं। सदा ही सत्य सरल और असत्य कठिन होता है। झूँठ बोलने में, बेईमानी में, ठगने में, चोरी करने में, व्यभिचार में काफी चालाकी, चतुराई, होशियारी, पेशबंदी, तैयारी आदि की बड़ी आवश्यकता पड़ती है, थोड़ी सी भी चूक हो जाने पर भेद खुल सकता है और निंदा तथा दंड का भागी होना पड़ता है। इसके विपरीत सच बोलने में, पूरा तोलने में, ईमानदारी बरतने में, सदाचारी रहने में किसी खटखट की जरूरत नहीं, मूर्ख से मूर्ख आदमी भी इन बातों में किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव नहीं करता। उचित और आवश्यक चीजें संसार में सुलभ हैं और अनुचित तथा अनावश्यक चीजें दुर्लभ हैं। हवा, पानी, अन्न, वस्त्र आदि आवश्यक चीजें सर्वत्र सुलभ हैं विष आदि अनावश्यक चीजें दुष्प्राप्य हैं। गाय, भैंस, बकरी, घोड़े आदि उपयोगी पशु आसानी से मिल जायेंगे। सिंह व्याघ्र आदि हिंसक पशु कहीं कहीं कठिनाई से दिखाई पड़ते हैं। इसी प्रकार लाभदायक पुण्य कर्म सर्वथा सुलभ हैं इसके विपरीत हानिकारक दुखदायी पाप कर्मों की व्यवस्था बड़ी चालाकी और कठिनाई से बन पड़ती है। जो धर्मपालन की, पुण्य संचय की, इच्छा रखते हैं उनके लिए यह सब बहुत ही सरल और सुलभ है।

फिर भी संचित संस्कारों, पुरानी आदतों, वातावरण के दुष्प्रभावों के कारण यदि बुराइयां छूटती नहीं, सन्मार्ग पर चलते चलते हर बार पैर फिसल जाता है तो भी निराश होने की बात नहीं बुराई के प्रति घृणा और विरोध का भाव जागृत रखना चाहिए। अपनी भूल और बुराई का बार-बार निरीक्षण करते रहना और उसके लिए पश्चाताप एवं छोड़ने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न जारी रहे तो निरंतर बुराई घटती जाएगी चाहे वह कितनी ही मंद गति से कम क्यों न हो रही हो एक दिन उसका पूर्ण अंत अवश्य हो जाएगा। इसके विपरीत यदि विरोध का अन्त कर दिया गया उसे स्वभाव बना लिया गया उसे नीति मान लिया गया और उसके करने में आन्तरिक लज्जा, भय, पश्चाताप तथा दुख का भाव छोड़ दिया गया तो वह बुराई जड़ जमा लेगी और फिर उसका छूटना कठिन हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य लोगों की समाज की, राज की, बुराइयों को भी सहन कर लेना या उनसे समझौता कर लेना उचित नहीं। यदि तत्क्षण उन पापों को मिटा डालना अपनी सामर्थ्य में न हो तो भी उनके प्रति असंतोष, असहयोग, विरोध और संघर्ष तो न्यूनाधिक मात्रा में जारी रखना ही चाहिए। और अवसर आने पर इस विरोध में कष्ट सहने के लिए भी तैयार करते रहना चाहिए। इस प्रकार यह मंद प्रयत्न भी निष्पाप बनने की महायात्रा में बड़ा सहायक सिद्ध होता है।

विद्यार्थी से बार-बार गलती होती है। पहले छोटे दरजे में था तब भी गलती होती थी। अब ऊँचे दरजे में है तो भी गलती होती है। यह देख कर भी कोई विद्यार्थी निराश नहीं होता वरन् उत्साह पूर्वक अपनी पढ़ाई जारी रखता है। और अनुभव करता है कि मैं आगे बढ़ रहा हूँ। निम्न श्रेणी का चोर मनुष्य समझता है कि मैं पाप करता हूँ। ऊँची आध्यात्मिक स्थिति का महात्मा भी आत्मनिरीक्षण में अपने अन्दर अनेकों त्रुटि पाता है। जितनी ही आत्मज्योति बढ़ती जाएगी उतनी ही स्पष्टता से छोटे-छोटे दोष भी बड़े दिखाई देने लगेंगे। इससे किसी को घबराने, हिम्मत हारने या निराश होने की जरूरत नहीं है। “इतना प्रयत्न करने पर भी हम पूर्ण निष्पाप नहीं हो पाये सदा असफल ही रहेंगे” ऐसी हिम्मत हारना उचित नहीं कक्षा 4 के विद्यार्थी की परीक्षा में भी आधे उत्तर गलत निकलते हैं और एम॰ ए॰ का छात्र भी आधे ही उत्तर सही कर पाता है। तो क्या दोनों ही समान असफल, समान अशिक्षित कहे जाएंगे।

गायत्री का ‘भर्गः’ पद हमें निष्पाप बनने की शिक्षा और स्फूर्ति देता है। इस प्रेरणा से बल लेकर यदि पवित्रता की दिशा में हमारा प्रयत्न जारी रहे तो संसार के समस्त कष्टों एवं भव-बंधनों से छूट कर हम जीवन मुक्ति का स्वर्गीय आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।


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