(श्री॰ राजेश जी, साहित्य रत्न)
यह मिट्टी का पुतला-मानव दुख की मार सहेगा कैसे?
मानव में रक्खा ही क्या है? थोड़ी मिट्टी थोड़ा पानी,
थोड़ी सर्दी-गर्मी पाकर पैदा हो जाता है प्राणी।
स्वयं हवा का खेल, हवा में चाहे जैसे किले बना ले-
छिपी नहीं है हमसे, तुमसे जैसी इसकी नींव निशानी॥
इस पर भी दुख पर दुख आयें, फिर यह अमर रहेगा कैसे?
यह मिट्टी का पुतला, मानव इतनी मार सहेगा कैसे?
सुख? जिसको हम सुख समझे थे, वह तो मृगतृष्णा थी कोरी
जिसके पीछे चल कर हमने केवल दुख की राशि बटोरी।
अवसर से पहले ढक लेती सुख के दिन को दुख की रातें-
सुख का द्वार दिखाई देता, दुख आ जाता चोरी-चोरी।
इस पर भी इस जग को कोई ‘सुख का सार’ कहेगा कैसे?
यह मिट्टी का पुतला-मानव इतनी मार सहेगा कैसे?
दुख से बचने को दुनिया ने आशा की दीवार बना ली,
इन्द्रधनुष सी मृग मरीचिका, सुखद कल्पना भी अपना ली।
अपने को धोखे में रक्खा, झूठ मूठ के सपने देखे-
इस पर भी दुख बढ़ता आया, ज्यों−ज्यों सुख की राह निकाली।
घोर दुखों के इस मरुस्थल में जीवन-स्रोत बहेगा कैसे?
यह मिट्टी का पुतला, मानव इतनी मार सहेगा कैसे?