आत्म ज्ञान की उपासना का रहस्य

August 1950

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“ज्ञानं लब्ध्वा पराँ शान्तिमचिरेणाधि गच्छति”

ज्ञान पाने के तुरन्त बाद ही मनुष्य पराशान्ति की ओर अग्रसर होता है। गीता के इस वाक्य से सिद्ध होता है कि शान्ति पाने का एक मात्र साधन ज्ञान है।

लेकिन ज्ञान क्या? किन्हीं किन्हीं लोगों का कहना है कि जिसे भूल गये हैं उसकी स्मृति का नाम ज्ञान है। अर्थात् आत्म स्मृति या आत्मानुभूति का नाम ज्ञान है।

आत्मा स्वयं ज्ञानमय है। उसे अपनी कर्मशक्ति का, आनन्द शक्ति का पता है। जब तक आत्मा निर्लेप रहती है तब तक अपने स्वरूप को वह भूलती नहीं है। और अपने स्वरूप का स्मरण रहने से मनुष्य शक्तिहीन नहीं होता। शक्तिहीन मानव ही अशान्ति को निमंत्रण देता है। इससे सिद्ध होता है कि लोगों का यह कहना कि ज्ञान पाने से शान्ति की ओर अग्रसर हुआ जाता है, तथ्य पूर्ण मालूम होता है।

उपनिषद् कारों ने आत्मानुभूति के लिए श्रवण मनन और निदिध्यासन रूप साधना का उपदेश दिया है। वे कहते हैं-

“आत्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासि तव्यश्च।”

आत्मा को जानना चाहिए इस के लिए श्रवण करना चाहिए, मनन करना चाहिए और निदिध्यासन करना चाहिए।

श्रवण करना चाहिए-क्या श्रवण करना चाहिए?

आत्मा के गुणों का, आत्मा की शक्तियों का, आत्मा के विस्तार का, आत्मा के स्वरूप का श्रवण करना चाहिए। इन सारी बातों को वही सुना सकता है जिसको इनकी जानकारी है दूसरे शब्दों में जिसे आत्मानुभूति है, ऐसा प्रसंग शास्त्रों में आया है। शास्त्रानुशीर्ल भी श्रवण का एक अंग हो सकता है लेकिन इस अनुशीलनता के लिए भी ऐसे व्यक्ति की सहायता अपेक्षित है जो इसके रहस्यों से परिचित हो। आत्म रहस्य को जानने वाला और उसका श्रवण कराने वाला पुरुष गुरु होता है। गुरु के लिए शास्त्रों में कहा गया है-

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानामंजन शलाकयो।

सुचरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरु वे नमः।

अज्ञान या विस्मृति रूप अन्धेरे के कारण जो अन्धे हो गये हैं, जिन्हें कुछ दिखता ही नहीं है उनके नेत्रों को जो ज्ञान रूपी अंजन की सलाई लगा कर खोल देता है वही गुरु है, ऐसे गुरु की ही शरण में जाना चाहिए।

ऐसा गुरु सबसे पहले श्रवण कराता है। श्रवण उसी को कराया जाता है जिसमें सुनने की इच्छा होती है। सुनने की इच्छा मानव को सबसे पहले विनयी बना देती है। गीताकार का कहना है कि-

तदिद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्तव दर्शिभिः॥

ज्ञानी अथवा तत्त्व दर्शी ज्ञान का उपदेश तभी करते हैं जब विनयी होकर मानव उनके पास जाता है और फिर अपनी इच्छा की तीव्रता का प्रकाशन करता हुआ प्रश्न करता है। जब तक जानने की तीव्र उत्कंठा नहीं होती तब तक श्रवण करने का यह व्यक्ति अधिकारी ही नहीं है ऐसी बात कही जाती है।

जब संकट आता है तभी अस्थिर आकाँक्षा उठती है। लेकिन आकाँक्षा कुछ क्षण रहती है और फिर उस ओर से लौट आती है। ऐसी अवस्था में ज्ञान पाने का पात्रत्व या अधिकारीपन नहीं आता है। और जब तक पाने के लिए आकुलता उत्पन्न नहीं होती तब तक विनय का अभाव रहता है। अधिकारी व्यक्ति अपनी नम्रता के कारण किसी भी तत्व को ग्रहण करने तथा जानने की क्षमता रखता है इसलिए वह उस तत्व के जानकार को खोजता है, श्रद्धापूर्वक उसके समीप जाता है, अपनी कठिनाइयाँ उसके समीप निवेदन करता है और उनकी गुत्थियों को सुलझाने के लिये प्रश्नोपप्रश्न करता है। तत्वदर्शी गुरु समाधान करते हुए अधिकारी व्यक्ति को आत्मतत्व का श्रवण कराते हैं।

दृढ़ आकाँक्षा से सुना हुआ तत्व मन और बुद्धि में प्रवेश पाता है। यहीं से ज्ञान प्राप्ति की दूसरी अवस्था का आरंभ होता है। साधक मनन करता है। जो सुना है बार बार उसी के सम्बन्ध में विचारना, जीवन के व्यावहारिक क्षेत्रों में किस प्रकार और कहाँ उसका विस्तार है इसे समझने के लिए मन और बुद्धि को खुला रखना, जो सुना है उसका साक्षात्कार करने के लिए जागृत रहना और साक्षात्कार की तीव्र प्रेरणा के साथ कर्म क्षेत्र में अग्रसर रहना मनन की स्थिति का सूचक है।

मनन की क्रिया न होने से श्रवण का कोई फल नहीं होता। श्रवण को अधिक गहरा और व्यापक बनाने के लिए मनन की आवश्यकता होती है। मनन चित्त पर पड़े हुए अनेक पर्दों को खोलता हुआ आगे बढ़ता है। मनन से बड़ी गर्मी उत्पन्न होती है जैसे-जैसे यह ऊष्मा बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही वे सभी आवरण नष्ट होते जाते हैं जिन्होंने आत्म तत्व को ढँक रखा होता है। मनन करते-करते मन सूक्ष्मदर्शी और बुद्धि सूक्ष्म ग्राहिणी हो जाती है। इसके बाद निदिध्यासन की क्रिया आरंभ होती है। तल्लीनता ही निदिध्यासन का दूसरा रूप है। यही ध्यान कहलाता है। तल्लीनता, एकाग्रता, ध्यान और निदिध्यासन सब एक ही क्रिया का परिचय देते हैं। जिन गुणों का, जिन शक्तियों का श्रवण किया है समस्त संसार में जब वे प्रतिक्षण दिखाई देने लगती हैं कहीं भ्रम या अन्तराय नहीं रह जाता तब अनुभूति होनी आरंभ होती है।

यदि तत्व की जिज्ञासा प्रबल है तो श्रवण के बाद मनन रूपी फल साधक को अवश्य मिलता है। प्रबलता की जितनी कमी होगी मनन रूप फल की प्राप्ति भी उतनी ही कठिन रहेगी।

मनुष्य प्रायः प्रमादी होते हैं। सुनकर अनसुनी कर देने की उसकी आदत होती है। इसलिए जब तक तीव्र आकाँक्षा नहीं होती। तब तक श्रवण पर प्रमाद का पर्दा पड़ने का खतरा रहता ही है और यदि श्रवण के बाद मनन न हुआ तो आगे की क्रिया अपने आप बन्द हो जाती है। पर आकाँक्षा की तीव्रता वर्धमान रहती है, साधक क्रमशः एक के बाद दूसरा रास्ता तय करता हुआ आगे बढ़ता है। तीव्रता और मन्दता के अनुमान से ही सिद्धि की प्रगति होती है। इसका सम्बन्ध आकाँक्षा के साथ है। तत्व को जानने या पाने की जितनी तीव्र उत्कंठा होगी, उतना ही अधिक विनय होगा, विनय के साथ श्रवण के प्रति उतना ही तीव्र अनुराग होगा, और श्रवण होने पर मनन हुए बिना रहा ही नहीं जा सकता क्योंकि जहाँ तीव्रता होती है वहाँ प्रमाद होता ही नहीं। प्रमाद में जड़ता होती है और तीव्रता में गति। चेतना की जितनी बुद्धि होगी जड़ता उतनी ही कम होती जायगी। चेतना ही ज्ञान है। ज्ञान होने पर न प्रमाद रहता है और न जड़ता। जड़ता मानव को शिथिल बना देती है चेतना स्फूर्तिवान। इस लिए जैसे जैसे स्फूर्ति बढ़ती जावे समझना चाहिए कि साधना का काम उतने ही अच्छे ढंग से चल रहा है।

जिस प्रकार श्रवण के बाद मनन होना ही चाहिए उसी प्रकार आकाँक्षा होने पर श्रवण भी स्वाभाविक होता है। ये सब एक दूसरे के बाद आने वाले नित्य के स्नेही हैं। अर्थात् इन सबके साथ आत्मा का नित्य का सम्बन्ध है। आत्मा तो सब जगह अनेक रूपों से वर्धमान रहता है शास्त्रों में बतलाया गया है कि-

अग्निर्यैको युवनं प्रविष्टे।

रुपं रुपं प्रतिरुपो बभूव॥

एकतस्या सर्वभूतान्तरात्मा।

रुपं रुपं प्रतिरुपो बहच्य॥ “कठ 0।

जैसे अग्नि एक है लेकिन संसार के जितने पदार्थ हैं उनमें उन्हीं रूपों का अनुकरण करती हुई अग्नि मौजूद है। अनेक रूप होने के कारण उस एक के ही अनेक नाम हो गये हैं लेकिन तत्व में कोई अन्तर नहीं आया। इसी प्रकार अंतरात्मा भी एक ही है, अनेक आकार-प्रकारों, रंग-रूपों में समाविष्ट होने के कारण अनेकत्व में दिखाई देता हुआ भी अपनी एकता से वह खण्डित नहीं हुआ है। अखण्ड एकता ही उसका वास्तविक स्वरूप है और इस अखण्ड एकता की अनुभूति ही वास्तव में ज्ञान है। प्रकारान्तर से इसकी अनुभूति प्रत्येक मानव को होती ही रहती है परन्तु इस अनुभूति में अखण्डता नहीं होती। खण्डित अवस्था से अखण्डित अवस्था की ओर जाना ही ज्ञान की साधना का लक्ष्य है, यही स्वरूप प्राप्ति कहलाती है।

आत्मा सच्चिदानन्द घन है। सत् चित् आनन्द से ओत-प्रोत आत्मा का किसी न किसी रूप में सब को आभास मिलता है। जितने सम्बंध या बन्धन है उन सब में आत्मा की ही अखण्डता का आकर्षण व्याप्त है। सब में आनन्द का स्रोत प्रवाहित हो रहा है। स्त्री, पुत्र, पति, पिता, माँ, भाई, धन, दौलत आदि जितने भी आकार प्रकार दिखाई दे रहे हैं और जिनसे सम्बंध बनाये रखने की भावना तीव्र से तीव्र दिखाई दे रही है इस का एक मात्र कारण आत्मा की अखण्डता का प्रवाह है।

जिस सुख या जिस आनन्द की ओर जीव का जन्मजात झुकाव है उसका कारण आत्मा के आनन्द स्वरूप होने के कारण उससे मिलने की प्रेरणा है। खण्ड रूप में अपने आपको उससे पृथक समझने के कारण इस प्रकार की प्रेरणायें किसी न किसी रूप से मिलती ही रहती हैं। ये प्रेरणायें जितनी बलवान होती हैं, अखण्डता के लिए जीवन उतना ही उत्सुक होता है। यही उत्सुकता आत्मानुभूति की साधना में तीव्रता लाती है। सबसे पहले आकाँक्षा को जन्म देती है। फिर श्रवण कराती है फिर मनन करने के लिए मजबूर कर देती है और निदिध्यासन द्वारा आत्मा के एकत्व का बोध और साक्षात्कार दोनों ही हो जाते हैं। यही आत्मानुभूति की अवस्था है। यहाँ पहुँच कर साधक अनेक रूपों, आकृतियों और शक्तियों वाली एक ही आत्मा के दर्शन करता है। तब उसे अपने से भिन्न कुछ भी दिखाई नहीं देता। बल्कि समस्त संसार उस अकेले का ही विस्तार मालूम होने लगता है। फिर तो यह संसार उसका लीला निक्षेप हो जाता है जिसका निर्माण कि उस स्वयं ने स्वेच्छा से किया है। चारों ओर रस का समुद्र लहराता हुआ दिखाई देता है। अशाँति गायब हो जाती है। अनुभूतिकारों का कथन है कि-

“तत्रको मोहः कः शोकः एकत्वम नुपश्यति”

उस अखण्ड-एकत्वचालेः अवस्था में न शोक रहता है और न मोह तब तो एक ही आनन्द की धारा उसके अनुभव में उसकी कोई प्रथक सत्ता नहीं रह जाती। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के फलस्वरूप इस ज्ञान की अनुभूति में साधक परा शान्ति को प्राप्त करता है।


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